उत्तराखण्ड के पहाड़ी और मैदानी इलाकों में रसीले, जायकेदार और पौष्टिक फलों की कई किस्में पायी जाती हैं. प्रदेश के सेब, आम और लीची की कई किस्में देश-विदेश तक में लोकप्रिय हैं. लेकिन काफल की बात अलग है. जैसे पहाड़ और काफल बीच शरीर और आत्मा जैसा कोई रिश्ता हो. (Kafal A wild fruit of Uttarakhand)
गर्मियों में पहाड़ की सैर पर आने वाले सैलानी बहुत सी हसरतें पाले रहते हैं, उनमें से एक होती है काफल खाना. दरअसल मैदानों में रहने वाले लोगों ने काफल खाया तो क्या देखा भी नहीं होता. काफल एक ऐसा जंगली फल है जिसका बाहरी रसदार गूदा इसके बीज की तुलना में बहुत ज्यादा मामूली होता है. इंसानी त्वचा जैसा सुर्ख लाल रसदार गूदा खुद के भीतर ज्यादा जगह घेरे गुठली के बाहर चिपका होता है. अपनी अनोखी बनावट की ही वजह से इसे बहुत दिनों तक रखा नहीं जा सकता, लिहाजा ज्यादा दूरी तक भी नहीं ले जाया जा सकता. इसी वजह से इसे खाना हो तो पहाड़ ही आना पड़ता है. पहाड़ से सटे मैदानी इलाकों में काफल की आमद के दिन ही ग्राहक इसकी लूट मचा देते हैं. कुल मिलाकर काफल अघोषित तौर पर उत्तराखण्ड का राजकीय फल का दर्जा हासिल किये हुए है.
बसंत की विदाई के बाद काफल पकने को तैयार होता है. ऋतु परिवर्तन के बीच कई जगह वक़्त से पहले भी काफल का पक जाना देखने में आता रहा है लेकिन चैत के महीने में इसके पक जाने का जिक्र लोककथाओं, लोकगीतों में आम है. नरैणा काफल पाको चैता
कई देशों में मिलता है
काफल का वानस्पतिक नाम मिरिका ऐस्कुलेटा (Myrica Esculata) है. यह मिरिकेसियाई (myricaceae) परिवार से ताल्लुक रखने वाला सदाबहार पेड़ है. मध्यम आकार का काफल का पेड़ 2800 फीट से 6000 फीट तक की ऊँचाई में आसानी से मिल जाता है. यह समूचे भारत के हिमालयी क्षेत्र के अलावा नेपाल, भूटान, चीन, अफगानिस्तान और सिंगापपुर में भी पाया जाता है. इसे बॉक्सबेरी के नाम से भी जाना जाता है.
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चैत के महीने में इस जंगली पेड़ पर लगने वाले फल पककर सुर्ख लाल हो जाते हैं. इससे पहले इनका रंग हरा फिर पीला होता है. एक पेड़ में अमूमन 20-25 किलो काफल लगा करते हैं. इस दौरान उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों से सटे शहरों-कस्बों में इसकी फुटकर कीमत 400 रुपये किलो तक जा पहुँचती है. एक समय में ग्रामीण इलाकों में यूँ ही तोड़कर खा लिया जाने वाला काफल अब मुख्य सड़कों और शहरी-कस्बाई बाजारों में खूब खरीदा-बेचा जाता है. एक सीजन में लाखों रुपये के काफल की तिजारत हो जाया करती है. सैलानियों के सैर-सपाटे के रास्तों के इर्द-गिर्द रहने वाले कई ग्रामीण सीजन में जंगलों से तोड़कर इसे बेचा करते हैं. इस तरह ये कई घरों की अर्थव्यवस्था में भी ख़ासा योगदान दिया करता है.
काफल स्वाद के लिए ही नहीं पहाड़ीपन के अहसास के लिए भी खाया जाने वाला फल है. इसके खट्टे-मीठे स्वाद वाले फलों में बीज के ऊपर खा सकने लायक एक मामूली परत हुआ करती है. इसके बावजूद पहाड़ी लोग इसके दीवाने हैं.
पौष्टिक तत्वों का खजाना
काफल एक मामूली ठेठ पहाड़ी फल जरूर है मगर यह पौष्टिकता से भरा है. इसमें कैल्शियम, कार्बोहाईड्रेट, मैग्नीशियम, प्रोटीन, फाइबर, वसा, पोटेशियम की भरपूर मात्रा पायी जाती है.
औषधीय गुणों से भरपूर
काफल का फल और पेड़ दोनों ही औषधीय गुणों से भरपूर हैं. काफल के पेड़ की छाल, पत्तियां, फल भरपूर औषधीय गुण पाये जाते हैं. उत्तराखण्ड की पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सा में इसका खूब इस्तेमाल किया जाता है. इसे जुखाम, बुखार, रक्ताल्पता, अस्थमा और लीवर की बीमारियों में फायदेमंद माना जाता है.
काफल का फल अच्छा एपीटाइटर भी माना जाता है. इसे ह्रदय रोज और तनाव कम करने के लिए भी कारगर माना जाता है. इसमें मौजूद औषधीय गुणों के कारण विभिन्न आयुर्वेदिक दवाएं बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है.
जायकेदार फल
हरा धनिया, लहसुन, हरी मिर्च, खड़े नमक का मसाला सिल-बट्टे में पीसकर तैयार किया जाये. उसके बाद इसे सरसों के कच्चे तेल के साथ काफलों में अच्छी तरह मिलाकर खाया जाये तो इसका स्वाद आपको अध्यात्मिक आनंद की अनुभूति देता है.
इन्हें खाते हुए इसके बीजों को बाहर फेंकने के बजाय बाहरी सतह का सारा रस लेने के बाद निगल लिया जाये तो खाना आसान हो जाता है. अनुभवी लोग बताते हैं कि शास्त्रों के अनुसार यही काफल खाने की उचित विधि भी है और ऐसा करना पेट के लिए बहुत फायदेमंद हैं.
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