अगर आप पहाड़ में हैं और किसी भी साग-सब्जी को खाने के दौरान दांतों के बीच आकर कुछ बारीक, करारे दाने आपके मुंह में रूहानी महक भरा स्वाद घोल दें. अब यह महक जीभ के जायके में घुलकर आपके दिलो-दिमाग पर छा जाए और आपको जीभ की सूंघने की शक्ति नाक से ज्यादा महसूस होने लगे तो आपके दांतों के नीचे जखिया है. जखिया का तड़का किसी भी व्यंजन की पहाड़ी रूह है.
जखिया या जख्या नाम से जाना जाने वाला यह पहाड़ी मसाला महक और जायके से भरपूर है. जखिया उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तड़के के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय मसाला है. काली-भूरी रंगत वाले जख्या के दाने सरसों और राई के हमशक्ल होते हैं. किसी भी पहाड़ी रसोई में इसका दर्जा उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की मैदानी इलाकों में जीरे का. इसमें पाए जाने वाले फ्लेवरिंग एजेंट इसके अद्भुत स्वाद के लिए जिम्मेदार हैं. आलू, पिनालू, गडेरी, कद्दू, लौकी, तुरई, हरा साग, आलू-मूली के थेचुए और झोई (कढ़ी) आदि व्यंजनों में इसका तड़का लगाया जाता है. जख्या से छोंके गए चावल दाल की कमी महसूस नहीं होने देते. जखिया के बीज का तड़का लगाने के अलावा इसके पत्तों का साग भी खाया जाता है. इसकी महिमा को देखते हुए उत्तराखंड के मशहूर गायक, गीतकार और संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने इस पर एक गीत ही रच डाला है. गीत के बोल हैं –‘मुले थिंच्वाणी मां जख्या कु तुड़का, कबलाट प्वटग्यूं ज्वनि की भूख’ (मूली की थिंच्वाणी में जख्या का तड़का पेट में कुलबुलाहट पैदा करता है. आखिर जवानी की भूख जो है.) जखिया का स्वाद एक बार जिसकी जुबान पर लग गया वह इसका मुरीद हो जाता है. पहाड़ी रसोइयों से जीमकर गए विदेशी तक इसके स्वाद के दीवाने हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर की तस्वीर में आप नॉर्वे में रहने वाली आयरिश महिला डाइड्री कैनेडी की जखिया के लिए दीवानगी की खबर पढ़ सकते हैं. प्रवासी उत्तराखंडी भी अपने खाने को पहाड़ी आत्मा देने के लिए पहाड़ से जखिया का कोटा ले जाना कभी नहीं भूलते.
जखिया कैपरेशे (Cappridceac) परिवार की 200 से अधिक किस्मों में से एक है. पहाड़ में जख्या, जखिया के नाम से जाना जाने वाला यह पौधा अंग्रेजी में एशियन स्पाइडर फ्लावर, वाइल्ड डॉग या डॉग मस्टर्ड के नाम से भी जाना जाता है. इसका वानस्पतिक नाम क्लोमा विस्कोसा (Cleoma Viskosa) है. 800 से 1500 मीटर की ऊँचाई में प्राकृतिक रूप से उगने वाला यह जंगली पौधा पीले फूलों और रोयेंदार तने वाला हुआ करता है. एक मीटर तक की ऊँचाई वाले जखिया का पौधा दुनिया के कई देशों में पाया जाता है.
जखिया में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व खान-पान में इसके महत्त्व को और अधिक बड़ा देते हैं. इसके बीज में पाए जाने वाला 18 फीसदी तेल फैटी एसिड तथा अमीनो अम्ल से भरपूर होता है. इसके बीजों में फाइबर, स्टार्च, कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन, विटामिन ई व सी, कैल्शियम, मैगनीशियम, पोटेशियम, सोडियम, आयरन, मैगनीज और जिंक आदि पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं.
पहाड़ की परंपरागत चिकित्सा पद्धति में जखिया का खूब इस्तेमाल किया जाता है. एंटीसेप्टिक, रक्तशोधक, स्वेदकारी, ज्वरनाशक इत्यादि गुणों से युक्त होने के कारण बुखार, खांसी, हैजा, एसिडिटी, गठिया, अल्सर आदि रोगों में जखिया बहुत कारगर माना जाता है. पहाड़ों में किसी को चोट लग जाने पर घाव में इसकी पत्तियों को पीसकर लगाया जाता है जिससे घाव जल्दी भर जाता है. आज भी पहाड़ में मानसिक रोगियों को इसका अर्क पिलाया जाता है.
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि जखिया में बायोफ्यूल पैदा करने के लिए पर्याप्त तत्व मौजूद हैं.
जखिया पहाड़ों की निचली चोटियों पर नैसर्गिक रूप से पैदा होता है. खेतों की मेढ़ों से लेकर, खली पड़े मैदानों, घर-आंगन और बंजर जमीन तक में जखिया आसानी से उग आता है. यह सिंचित जमीन का भी मोहताज नहीं है. बरसात के मौसम में यह किसी खरपतवार की तरह किसी भी जमीन पर पनप जाता है. इसके पौधे में लगने वाली पतली फलियाँ महकदार बीजों को अपनी पनाह में रखे रहती हैं. इन फलियों में से नन्हे-नन्हे बीज निकलकर सुखा लिए जाते है. अब मसाले के रूप में यह आपकी रसोई को लम्बे समय तक महकाने के लिए तैयार हो जाता है.
-सुधीर कुमार
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