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टॉपर्स की फोटो छपने के महीने के बहाने

यह अखबारों में टॉपर्स की फोटो छपने का महीना है इसी लिए आपको अपनी शिक्षा के इतिहास की कुछ तारीखों से परिचित कराना अनावश्यक नहीं लगता.

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि यू.पी. बोर्ड की स्थापना 1921 में हुई थी. इस लिहाज से इसे सौ बरस पूरे होने जा रहे हैं. यह बोर्ड हाईस्कूल और इंटर की परीक्षों के लिए बनाया गया भारत का पहला शैक्षणिक बोर्ड था. 1929 में भारत सरकार ने एक संयुक्त बोर्ड का गठन किया जिसे बोर्ड ऑफ़ हाईस्कूल एंड इंटरमीडिएट एजूकेशन, राजपूताना कहा गया. वर्ष 1952 में उसे सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ सेकेंडरी एजूकेशन कहना शुरू किया गया. 1962 में इसका पुनर्गठन किया गया और यही सीबीएसई आज भारत का सबसे बड़ा बोर्ड है. एक और महत्वपूर्ण बोर्ड है आईसीएसई. इसकी स्थापना 1958 में हुई थी.

हमारे उत्तराखण्ड में इन तीन प्रमुख बोर्डों से पढ़े-लिखों की संख्या सबसे अधिक होगी. राज्य बनने के बाद 2001 में उत्तराखण्ड का अपना बोर्ड अस्तित्व में आया जिसका मुख्यालय नैनीताल जिले के कस्बे रामनगर में है.

1921 से आज तक हुई सैकड़ों बोर्ड परीक्षाओं की मेरिट लिस्ट्स निकाली गयी होंगी और जाहिर है इन सूचियों में जगह पाने वालों की संख्या हजारों में रही होगी. आप हाल के अखबार उठा कर देख लीजिये. सभी टॉपर्स अपने-अपने भविष्य की बड़ी-बड़ी योजनाओं की बाबत आपको सूचित करता नज़र आते हैं. इन योजनाओं में देश-संसार को पूरी तरह बदल देने के सपने शामिल होते हैं और उन सपनों को असलियत में बदलने की वैसी ही कार्यनीतियों की डीटेल्स भी होती हैं. कोई आईएएस-आईएफएस बनना चाहता है, कोई गरीबों को पढ़ाना चाहता है, कोई वैज्ञानिक बनना चाहता है तो कोई देश से कूड़ा ख़त्म करना चाहता है.

इतने हज़ार टॉपर्स की मेहनत के बाद हमें जो मोहल्ले-नगर-राज्य-देश और दुनिया मिले हैं उनकी तरफ एक निगाह भर डालने से आपको सच्चाई मालूम पड़ जाएगी.

मैं टॉपर्स के खिलाफ नहीं हूँ. मैं उनके सपनों के खिलाफ भी नहीं हूँ. मेरी दिलचस्पी फकत इतना जानने में है कि ये टॉपर्स समाज के कितने काम आते हैं. और यह भी कि क्या हमारी शिक्षा पद्धति ने उन्हें इस लायक छोड़ा भी है कि वे समाज में बदलाव ला सकने वाले किसी बड़े काम में हिस्सेदारी कर सकें.

हमारे यहाँ कोई ऐसी रिसर्च हुई या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन बोस्टन अमेरिका की कैरेन आर्नोल्ड ने टॉपर्स को लेकर एक ऐसा शोध किया है और बाकायदा साबित किया है कि 90 प्रतिशत टॉपर्स अपने जीवन में खासे सफल रहे हैं लेकिन उनमें से किसी एक ने भी संसार को नहीं बदला है. वे सब उसी घिसे-पिटे रास्ते पर चल कर बड़े अफसर और कंपनियों के सीईओ वगैरह तो बने लेकिन दुर्गम जंगल को काटकर नया रास्ता बनाने का काम किसी ने नहीं किया.

पिछले सौ वर्ष की महानतम मानवीय उपलब्धियों पर निगाह डालें तो पता लगता है कि ये सभी बड़े कारनामे करने वाले स्कूली परीक्षाओं में फिसड्डी रहा करते थे अलबत्ता समाज को लेकर उनका ज्ञान और नजरिया विषद था. तो हो सकता है कि आपकेर नगर का टॉपर डिफरेंशियल कैलकुलस का सबसे मुश्किल सवाल चुटकियों में हल कर देता हो लेकिन उसे यह मालूम न हो कि पॉपकॉर्न भुट्टे से बनता है और बेसन चने की दाल से. और हो यह भी सकता है कि पड़ोस में रहने वाला, भोंदू के नाम से विख्यात कोई लड़का आपके उड़े हुए फ्यूज को मिनट से पहले जोड़ देता हो.

वहीं मैं ऐसे टॉपर को भी व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ जिसने सरकारी नौकरी नहीं की और डाक्टरी की बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बाद उड़ीसा के आदिवासियों के बीच रह कर अपनी ज़िंदगी गुजारी. उसके चाचा अक्सर कहते पाए जाते हैं कि उसने समाजसेवा के चक्कर में अपनी जिन्दगी बर्बाद कर ली है. एक ऐसे दूसरे टॉपर से भी मेरा परिचय है जिसने बड़ा सरकारी अफसर बन कर बीस सालों में इतनी रकम खड़ी कर ली है कि वह अपनी रोलेक्स घड़ियों की संख्या तक भूल जाता है. वह बताता है कि उसके संग्रह में दुनिया की सबसे महंगी शराबों का जखीरा भरा पड़ा है. उसके बारे में राजधानी के सर्कल्स में चल चुका है कि एक पेटी एक्सक्लूसिव सिंगल माल्ट शराब देकर उससे किसी भी फाइल पर दस्तखत करवाए जा सकते हैं.

हमारे देश के टॉपर्स के बाद के जीवन और उसके योगदान पर जब कोई रिसर्च होगी तब होगी. फिलहाल इस संसार को टॉपर्स से ज्यादा उन जिम्मेदार और समझदार छात्र-नागरिकों की आवश्यकता है जो भीषण संकट से जूझ रही हमारी महान मानव जाति के लिए नई कल्याणकारी इबारतें लिख सकें. फिलहाल टॉपर्स के बहाने अखबारों को अपने लिए सुर्खियाँ बना लेने का लुत्फ़ उठा लेने दीजिये.

जिनके बच्चों ने टॉप किया उन्हें बधाई.

और जिनके बच्चों ने टॉप नहीं किया उन्हें उनसे दूनी बधाई!

-अशोक पाण्डे

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  • जो टॉपर नहीं बने उनके नाम यह संदेश आपने दिया है के लिए साधुवाद।

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