समाज

कल उत्तराखंड में मनाया जायेगा लोकपर्व इगास

इगास: बारा-बग्वाली का समापन-पर्व

इगास (एगास भी), उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में मनाया जाने वाला प्रमुख पर्व है. दीपावली यहाँ बग्वाल नाम से मनायी जाती है. बग्वाल से ठीक ग्यारह दिन बाद इगास मनायी जाती है. वास्तव में गढ़वाल में बग्वाल से लेकर इगास तक फेस्टिव-सीज़न होता है जिसे बारा बग्वाली के नाम से जाना जाता है. बारा बग्वाली अर्थात दीपावली के बारह दिन. यूं समझ लीजिए पूरा पखवाड़ा. लक्ष्मी पूजन  के दिन से एक दिन पहले गढ़वाल में दीपावली का ये फेस्टिव-सीज़न शुरू होता है और इगास के साथ सम्पन्न होता है. (Igas Festival of Uttarakhand)

गढ़वाल के इस फेस्टिव-सीज़न की विशेषता ये है कि पहले और आखिरी दिन कृषि-सहयोगी पालतू पशुओं के प्रति आभार प्रकट किया जाता है. रोली का टीका किया जाता है, गले में पुष्पमाला डाली जाती है, सींगों पर तेल लगाया जाता है और जौ के आटे के गोल पिण्ड खिलाए जाते हैं. इगास, एकादशी के दिन पड़ती है जिसे हरिबोधनी एकादशी या देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है. इगास मनाने का एक तर्क ये भी है कि एक दिन उत्सव जाग्रत देवताओं की उपस्थिति में भी मना लिया जाए. ऐसा माना जाता है कि इस एकादशी से पूर्व छ: माह तक देवता सुप्तावस्था में रहते हैं. (Igas Festival of Uttarakhand)

रात में भैलो (Bunch of resinous wood tied with creepers. Used as fireworks) खेला जाता है और झुमेला नृत्य किया जाता है. निश्चित रूप से पुराने समय में ऐसा पूरे पखवाड़े किया जाता रहा होगा जो आगे चलकर बग्वाल के दो दिन और इगास तक ही सीमित रह गया. पखवाड़े भर घरों में विशेष पकवान बनते हैं और पूरी कोशिश होती है कि नौकरी या व्यवसाय के लिए घर से दूर रहने वाले परिजन भी इस त्योहार को परिवार के साथ मनाने में शामिल हों. गढ़वाल में बग्वाल त्योहार का कितना महत्व है ये जानने के लिए हमें वो मुहावरा समझना होगा जिसका हिंदी समानार्थी है – बसंत देखना (जैसे मैं जीवन के चालीस बसंत देख चुका हूँ). गढ़वाली मुहावरा है बग्वाल खाना (भुला त्वै से चार बग्वाल ज्यादा छिन मेरि खायीं अर्थात अनुज मैंने तुझसे चार दीपावली अधिक मनायी हैं).

कुमाऊँ में इगास को बल्दिया एगाश कहा जाता है. नेपाल में भी पशुओं को दीपावली में विशेष महत्व दिया जाता है. वहाँ ये यमपंचक नाम से पाँच दिन मनाया जाता है. पहले चार दिन क्रमश: काग, कुकुर, गै व गोरु तिहार के नाम से मनाए जाते हैं.

इगास, पर्वतीय कृषक-समाज का (जिसमें आज से सौ साल पूर्व तक सभी पर्वतीय निवासी शामिल थे) अपने कृषि-सहयोगी पालतू पशुओं के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करने का पर्व है. आभार उन बैलों के प्रति जिन्होंने हमें अन्न प्रदान करने के लिए प्राकृतिक कामेच्छा से वंचित होना स्वीकार किया, खेतों में हल खींचा,  खलिहान में बालियों से दाने अलग करने में सहायता की. आभार उस गाय के प्रति जिसके दुग्ध-उत्पादों ने श्रम करने की शक्ति दी.

कृषि-सहयोगी पशुओं के प्रति कृतज्ञता

इगास पर्व एक अवसर भी प्रदान करता है उनको जो मुख्य आयोजन में शामिल होने से किसी कारणवश वंचित रह गए हों. ऐसी बहुत सी कहानियां भी इससे जुड़ी हैं जो कभी पौराणिक महाकाव्यों से जुड़ती हैं और कभी राजा और उनके दरबारियों से.

इगास का संदेश स्पष्ट है – सफलता और उपलब्धि  के सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, वंचितों के आंचल में भी हर्ष-उल्लास व पकवान-मिष्ठान्न सुनिश्चित करना और सर्वोपरि यह कि अंधकार (जो अब अज्ञान का अधिक रह गया है) को दूर करने के लिए अंत तक प्रयास करना.

ग्लोबलाईजेशन और सूचना क्रांति का एक दुष्परिणाम ये हुआ है कि हम अंतरर्राष्ट्रीय पर्व-त्योहारों की जानकारी से तो लैश हो गए हैं पर अपनी जड़ों से जुड़े पर्वों की सामान्य जानकारी भी नहीं रखते. फिर हम दूसरे समुदायों की उत्सवधर्मिता से ईर्ष्या भी करने लगते हैं.

पिछले 19 वर्षों से उत्तराखण्ड में राजकीय स्तर पर कोई आयोजन, कोई संकल्प, कोई घोषणा (अवकाश घोषणा अगर हो भी जाए तो भी पर्याप्त नहीं) इगास को लेकर नहीं हुआ है. और ये कहने में कोई संकोच नहीं कि एक महत्वपूर्ण अवसर का सदुपयोग नहीं हो सका है. ऐसा अवसर जब प्रदेश के पर्वतीय-कृषकों और कृषि-सहयोगी पशुओं के कल्याणार्थ संकल्प लिया जा सकता है, घोषणा की जा सकती है. कृषि और पशुपालन विभाग को इस अवसर पर जनपदों में कृषि-उत्पाद प्रदर्शनी व पशुपालन प्रदर्शनी/शिविर का आयोजन करना चाहिए. कृषि व पशुपालन सम्बंधी पुरस्कार प्रदान करने चाहिए.

गढ़वाल में इगास का एक दृश्य

इगास के निहितार्थ को समझ कर ही असली इगास मनायी जा सकती है. घरों को प्रकाशित करना, गीत-नृत्य का आयोजन करना और पकवान बनाना ये सब भी इगास में सम्मिलित हैं पर इगास की पूरी तस्वीर इतनी ही नहीं. कृतज्ञता का भाव, वंचितों का ध्यान और जीवों के प्रति सम्मान इगास के मूल तत्व हैं. इन तत्वों को याद रख कर इगास मनाएंगे और मनाते हुए दिखेंगे तो जड़ें भी मजबूत होंगी और शाखाएँ भी पुष्पित-पल्लवित.

बारा-बग्वाली के समापन पर्व इगास की सभी को अग्रिम  हार्दिक शुभकामनाएँ.

-देवेश जोशी

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). इस्कर अलावा उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197  और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.

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