समाज

उत्तराखण्ड में टोपी पहनने का चलन कब शुरू हुआ?

सर्द मौसम है कभी बादल सूर्य को आगोश में ले लेते हैं कभी सूरज देवता बादलों को पछाड़कर धूप फेंकते यहां वहां नज़र आ जाते हैं, कभी पेड़ों के झुरमुट में, कभी आसमान में प्रचंड चमकते, कभी खेतों के पीछे, कभी पहाड़ियों में धीरे-धीरे सरकते कभी नदी का माथा चूमते किंतु इस धूप में ताबिश नहीं है बनिस्बत इसके सर्दी की धूप में कहीं न कहीं नमी भी है. जरा सा धूप मलने का मन हो देह में तो एक चुभन भरी हवा चेहरे को छूकर, सर्र से कानों से होकर गुज़र जाती है. (Trend Wearing Topi Uttarakhand)

फिर क्या किया जाये? नमी और कोहरे भरे दिन से धूप का आंख-मिचौली करना कहां सुकून दे पाता है ठिठुरते शरीर को. झट से ओढ़ लिये जाते हैं शाल, स्कार्फ, कैप या टोपी तब कहीं जाकर निजात मिल पाती है ठंड से. कड़कड़ाती ठंड  हो और दांत किटकिटा रहे हों ऐसे में टोपी, स्कार्फ़ मफलर पहनने का  ख़्याल न आये तो सर्दी का ज़िक्र करना ही बेईमानी है.

बाज़ार में रंग-बिरंगी विभिन्न आकार और डिज़ाइन वाली टोपियों की बहार है. आनलाइन सेल में भी टोपियां धकापेल बिक रही हैं और फेसबुक में भी टोपी चैलेंज की बाढ़ आ गयी है. टोपी पहनी हुई तस्वीरें यक़ीनन बहुत ख़ूबसूरत दिखती हैं. यदाकदा मैं भी टोपी वाली तस्वीर पोस्ट कर देती हूं फेसबुक में.

मेरे फेसबुक मित्र शशी रवांल्टा से एक दिन जानकारी मिली कि उनको टोपियों का बहुत शौक है और उनके पास टोपियों का रोचक संग्रह है. उसी समय मुझे टोपियों का इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई और विभिन्न प्रकार की टोपियों के बारे में पढ़ने की भी.

विभिन्न साइट्स पर टोपियों के बारे में अनंत जानकारी उपलब्ध है. टोपियों के बारे में इतना लिखना संभव नहीं, किंतु इतना जान पायी कि सिर को ढकने की परंपरा का आगाज़ तो भारत में ही हुआ किंतु रोमन, ग्रीक, फारस, हुण, कुषाण, मंगोल, मुगल आदि के काल में भारतीय परिधानों के साथ ही सिर के पहनावे में भी बदलाव आता गया. नई टोपियां या साफे प्रचलन में आये और हम भारतीयों ने इनमें स्वयं को पहले की अपेक्षा ज़्यादा सहज महसूस किया.

सिर के पहनावे को कपालिका, शिरस्त्राण, शिरावस्त्र या सिरोवेष कहते हैं. यह सिर का पहनावा हर प्रांत में अलग नाम व अलग रंग-रूप में होता है. हमारे यहां पगड़ी (साफा) और टोपी पहनने का प्रचलन है. दोनों में फ़र्क भी है और दोनों को धारण करने का अपना-अपना ढंग और परंपरायें भी हैं. पगड़ी का इतिहास ख़ासतौर पर राजपूत समुदाय से जुड़ा हुआ है. इसे पाग साफा और पगड़ी कहा जाता है.

यदि बात केवल साफे की हो तो मालवा में अलग और राजस्थान में अलग प्रकार का साफा बांधा जाता है, जिसे फेटा भी कहते हैं. महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब में यह अलग होता है तो तमिलनाडु में अलग. राजस्थानी में मारवाड़ी साफा अलग होता है तो सामान्य राजस्थानी में अलग. राजस्थान के राजपूत समाज में साफों के अलग-अलग रंगों व बांधने की अलग-अलग शैली का इस्तेमाल समय के अनुसार होता है. जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक केसरिया साफा पहनते थे अतः केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना. बुजुर्ग सामान्यतः खाकी रंग का गोल साफा सिर पर पहनते हैं और विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी,लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफो का प्रयोग होता है. सफेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है.

मुगलों ने अफगानी, पठानी और पंजाबी साफे को अपनाया. सिक्खों ने इन्हीं साफे को जड्डे में बदल दिया जो कि उन्हें एक अलग ही पहचान देता है.

हमारा भारत देश विविध परंपराओं, परिधानों एवं मान्यताओं का देश है. इसी देश के अवांतर भिन्न-भिन्न प्रांत हैं और उनकी वेश-भूषायें हैं जो उस प्रांत की विशिष्ट पहचान और संस्कृति को निर्धारित करती है. उसी वेषभूषा का अभिन्न हिस्सा है ‘टोपियां’ जो सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ हमें मौसम के अनुसार सुरक्षा भी प्रदान करती है.

इन्हीं टोपियों में खास टोपियां हैं — उत्तराखंड की गढ़वाली टोपी, हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी,  हैदराबादी टोपी आदि. अनेक प्रकार की टोपियां आज भी प्रचलन में हैं इन्हीं टोपियों की फ़ेहरिस्त में गांधी टोपी भी है जिसे कभी गांधी जी ने पहना होगा. गांधी टोपी कि बात करें तो गांधी टोपी अमूमन खादी से बनायी जाती है और आगे और पीछे से जुड़ी हुई होती है तथा उसका मध्य भाग फूला हुआ होता है. इस प्रकार की टोपी के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़कर इसे गांधी टोपी कहा जाता है. किंतु इस का अर्थ ये नहीं कि गांधी जी ने इस टोपी का अविष्कार किया था. यहां इस बात का ज़िक्र करना माकूल है कि उत्तराखंड में पहनी जाने वाली टोपियां भी गांधी टोपी के रूप में प्रचलित हुईं.

माना जाता है कि उत्तराखंड के मूल निवासियों की अपनी कोई विशेष पहाड़ी टोपी नहीं है. यहां के मूल निवासी टोपी नहीं बल्कि पग्गड़ (ठांटा) पहनते थे. शंकराचार्य जब उत्तराखंड आये तो उनके साथ और उनके बाद काफी मराठी ब्राह्मण भी यहां आये और फिर यहीं बस गये. मराठियों के साथ उनकी मराठी टोपी भी यहां आ गयी और उसके बाद यहां टोपी पहनने का चलन शुरू हुआ. जिसे आज उत्तराखंडी टोपी कहा जाता है वह मूलतः महाराष्ट्र से ही आयी है. लेकिन वे उजली टोपी पहनते थे जो बाद में गांधी टोपी भी कहलायी. आजादी के आंदोलन में यह स्वतंत्रता सेनानियों की पहचान बन गयी थी, किंतु टिहरी के राजा को सफेद टोपी से चिढ़ थी क्योंकि इसे स्वाधीनता सेनानी पहनते थे. अतः राजा ने सफेद टोपियों पर प्रतिबंध लगा दिया और परिणामस्वरूप काली टोपी प्रचलन में आयी.

एक दूसरी रामपुरी टोपी का ज़िक्र भी गांधी टोपी के संबंध में करते हैं. रामपुरी टोपी महात्मा गांधी के साथ आठ दशक पूर्व शुरू हुई. 1931 में जब बापू मोहम्मद अली जौहर से मिलने रामपुर पहुंचे थे उस वक़्त बी अम्मा ने हाथों से बनी सूती कपड़े की टोपी महात्मा गांधी को भेंट की. यही टोपी बाद में गांधी टोपी के नाम से मशहूर हुई.

हिमाचल की टोपियों का ज़िक्र न हो तो टोपियों की शान में गुस्ताख़ी होगी. हिमाचल प्रदेश अपने ख़ूबसूरत सौंदर्य, अपनी प्राचीन वेष-भूषा, खान-पान संस्कृति, कलाकृतियों व भिन्न-भिन्न परंपराओं के लिए जाना जाता है. हिमाचल की पहाड़ी टोपी को पहले बुज़ुर्ग ही अपने सर पर सजाते थे परंतु युवाओं में भी अपने परिधान अपनी परंपरा अथार्त अपनी थाती हिमाचली टोपी को पहनने का उत्साह दिख रहा है.

हिमाचली टोपी  हिमाचली लोगों के जीवन में एक अहम स्थान रखती है. शादी-ब्याह, तीज, त्योहार या कोई भी मांगलिक कार्य का अवसर हो हिमाचली लोगों के इन अवसर पर टोपी पहनाने की परंपरा काफी पुरानी है. किसी राजनीतिक, फिल्मी या विदेशी हस्तियों का टोपी पहनाकर स्वागत करना भी हिमाचलियों की परंपरा है और बहुत सम्मान की बात मानी जाती है. हिमाचली टोपियों का इस्तेमाल विभिन्न रंगों में किया जाता है जैसे हरा और लाल रंग यह हिमाचल के गर्व से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि यह मेहमानों के सम्मान में भी विवाह और अन्य उत्सवों के दौरान विशेष स्थान पाता है.

हिमाचली टोपियां तीन प्रकार की होती हैं-

कुल्लुवी टोपी (कुल्लु जिला)
बुशहरी टोपी (रामपुर, बुशहर)
किन्नोरी टोपी (किन्नौर)

यमुना घाटी के रंवाई में पहने जाने वाली टोपी ‘रवांल्टी टोपी’ के नाम से प्रसिद्ध है. रवांई  में ऊन की बनीगोल टोपी प्रचलित है इसको ‘सिकली,’ ‘सेकई’ या ‘फेडसेकई’ कहते हैं. प्राय:बाजगी लोग जो पूर्व में वाद्ययंत्रों के साथ-साथ सिलाई का कार्य भी किया करते थे वही इसे बनाने में पारंगत होते थे. टोपी को बनाने के लिए वह एक  गोलाकार आकृति का प्रयोग करते हैं जिसे सांचा कहा जाता है. टोपी को सुसज्जित करने के लिए कई बार स्थानीय लोग ब्रहमकमल और हरैई (हरियाली) की छुपकी को भी टोपी के ऊपर लगाते हैं. टोपी सर्दी व गर्मी दोनों मौसमों के लिए अनुकूलित होने के साथ-साथ प्रतिष्ठा का भी महत्त्वपूर्ण सूचक मानी गयी है.

टोपियां पहनने का प्रचलन जितना भारत में है उतना पश्चिमी देशों में भी है बल्कि वहां टोपियां फैशन के तौर पर अधिक पहनी जाती हैं. पश्चिमी देशों में तो टोपियों की दर्जनों किसमें प्रचलन में हैं.

इन सभी टोपियों के अतिरिक्त नेपाली टोपी, जिसे ढाका टोपी भी कहा जाता है नेपाल में बहुत प्रसिद्ध है. दरअसल जिस कपड़े से यह टोपी बनायी जाती है उसे ढाका कहते हैं इसलिए इस टोपी का नाम ढाका टोपी पड़ा है.

एक और टोपी होती है जिसे बोहरा टोपी कहते हैं. बोहरा की महिलायें रिदा पहनती हैं जिसमें महिलाओं का चेहरा नहीं ढका होता है जबकि पुरुष सफेद रंग की टोपी जिसमें सुनहरे रंग की एम्ब्राइडरी होती है पहनते हैं जिसे बोहरा टोपी कहा जाता है. इसके अलावा ताकियाह टोपी भी होती है जो रंग-बिरंगी, छोटी और गोलाकार होती हैं.

टोपियों के अथाह रंग विश्वभर में फैले हुए हैं जिनका संक्षिप्त नाम लेना ही मेरे बस में है इनमें अफगानी पकोल टोपी, पश्तुन टोपी, मस्कती टोपी, सुडानी टोपी, तुर्की टोपी, लखनवी दो पल्ली टोपी, शंकु के आकार की टोपी तुर्की भी विशेष महत्व रखती हैं.

टोपियां न केवल हमें सर्दी, धूप व बारिश से बचाती हैं बल्कि ये सामाजिक प्रतिष्ठा का भी परिचायक हैं. भारत देश ही अकेला देश है जहां इतनी विविधता है. हर किसी धर्म या समुदाय का अपना अलहदा अंदाज़ है पहनावा धारण करने का उसी सलीके में रहना का.

टोपियों की भी अपनी गाथायें हैं अपना वजूद है जिनसे सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, कर्तव्य, संस्कृति का प्रसार जुड़ा है, अपनी अलग सामुदायिक पहचान, अपनी थाती, अपनी धरोहर बचाने के लिए भी नयी पीढ़ी का टोपी धारण करना सराहनीय है. (Trend Wearing Topi Uttarakhand)

देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.

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Sudhir Kumar

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  • हमारी पहाड़ी संस्कृति में पगड़ी (साफा) सिर में नही पहना जाता बल्कि कमर में बांधा जाता है, में ये इसलिए कह रहा हूँ कि हमारी संस्कृति में जो गांव के मुख्य देवता होते हैं उन्हें भूम्याल कहते हैं, जब किसी नये शख्स पर भूम्याल अवतार लेता है तो पुराना पस्वा उसे अपनी कमर पर पहने जाने वाली पगड़ी देता है, और जब भूम्याल पूजा होती है तो हम उन्हें साफा पगड़ी ही देते हैं।
    जहां मैदानी क्षेत्रों में सिर पर पगड़ी धूप से बचाती है, वही पहाड़ी क्षेत्रों में यह पगड़ी कमर को मजबूती देती है, जो पहाड़ में काम करते समय बड़ा सहारा देती है, महिलाओं में पाखुला के साथ पागड़ पहनने का प्रचलन है।

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