अल्मोड़ा में सबसे पहला प्रवास श्री गोपाल सिंह बिष्ट एवं श्री प्रशांत बिष्ट के सौजन्य से कुमाऊं मंडल विकास निगम के हाॅलिडे होम में हुआ. यह बहुत संक्षिप्त प्रवास था.
अल्मोड़ा में जहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का हाॅलिडे होम है उससे ठीक ऊपर की तरफ इसी संस्था की कुछ काॅटेज बनीं हैं जो लम्बा टिकने वाले पर्यटकों, शोधार्थियों और अल्मोड़ा में आने वाले सरकारी अफसरों को मिलती थी. इन्ही में से एक काॅटेज सी-09 किसी तरह से मुझे भी मिल ही गयी. काॅटेज तो कहने भर को थी, पूरा का पूरा मकान था. एक बैडरूम, एक किचन बाहर, एक मंझोले आकार की लाॅबी जिसमें दो तीन लोग आराम से बैठकर चाय से व्हिस्की तक का सफर, जो भी अच्छा लगे तय कर सकते थे और सामने एक लगभग तीन सौ वर्ग गज का मैदान सा पहाड़ की छत पर फंसा हुआ टुकड़ा और उसके पार दूर दूर तक फैले देवदार के पेड़. उनसे भी आगे तक फैला अल्मोड़ा और नज़र के आखिरी छोर तक फैले ऊंघते उबासियां लेते पहाड़ जिनमें से ज्यादातर पहाड़ों पर बसी बस्तियों के टिमटिमाते सफेद पीले बल्ब खूबसूरत नजा़रे के साथ एक खतरे की हिदायत देते.
हिदायत यह कि किसी भी हालत में शाम सात बजे के बाद बिना किसी सुरक्षा के बाहर नहीं निकलेंगे. सुरक्षा के नाम पर दो स्थानीय हथियार सुझाये गये पहली टाॅर्च और दूसरा डंडा. क्योंकि काॅटेज जहां स्थित थे वह तेंदुओं का सुगम मार्ग के बीच स्थित था. ठीक हाइवे पर बनी चुंगी की तरह जहां यदि मुसाफिरों से भरी बस या कोई ट्रक रूक जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होता.
काॅटेज में दाखिल हाने से पहले एक लंबी और सीधी चढ़ाई चढ़नी थी जो कि कमर तोड़ने वाली थी. रोज रोज यह चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी यह विचार काफी कुछ हौलनाक था. पर बताया गया कि आगे भी रास्ता है जहां से इस कैंपस में आया जा सकता है.
पहली रात थोड़ी बैचेनी भरी बीती क्योंकि तीन चीजें आसपास के वातावरण में मंडरा रहीं थीं. पहली दो चूहों ने पूरी रात कमरे में दौड़ लगाई. डर चूहों का नहीं था बल्कि इसका था कि चूहों की तलाश में कहीं विषधर कमरे में घुस आये तो. दूसरा तेंदुये के बारे में पूरी रात पड़ोसी की हिदायत आंखों के सामने तैर रही थी. तीसरी रात भर आंखों के ठीक सामने दीवार एक बालिश्त से ठीक आधी एक भयानक दिखने वाली मकड़ी.
इतनी बड़ी मकड़ी अल्मोड़ा से पहले कभी नहीं देखी थी. खैर किसी प्रकार से तीनों प्रकार के डर से जूझते जूझते रात कट गयी.
सुबह छः बजे लगाा कि दरवाजे पर कोई जोर जोर से दस्तक दे रहा है. दरवाला खोला तो दो लड़के और एक लड़कों सी दिखने वाली लड़की जिनकी उम्र बारह से चौदह साल के बीच रही होगी. एक ने गिलास में चाय पकड़ी थी, एक ने एक थाली जिसके ऊपर एक दूूसरी थाली ढंकी हुयी थी और तीसरे ने एक बंद डिब्बा पकड़ा था.
पूछताछ करने पर पता चला कि बच्चे तीन अलग अलग पड़ोसियों के थे जिन्होंने अपने नये नये पड़ोसी के लिये चाय भिजवाई थी, पर मेरे लिये यह बहुत जल्दी की चाय थी.
बच्चे बिना किसी हिचक और इज़ाज़त के सीधे अंदर आ गये और तभी उनमें से एक ने किलकारी मारते हुये कहा “ओये बडू!”. मैंने भी आश्चर्य से पूछा क्या है?
“वो रहा दीवार पर“ बच्चे दीवार पर चिपकी मकड़ी की तरफ इशारा कर रहे थे जो अभी भी उतनी ही भयावह दिख रही थी जितनी रात भर दिखी थी.
एक बच्चा जो उन्में सबसे लंबा और बड़ा था, ने हम चारों में सबसे अधिक हिम्मत का परिचय दिया और उस लाईकोसा टैरेन्टुला जिसे अंग्रेजी फिल्मों के शौकीनों की दुनियां में वाॅल्फ स्पाइडर और हमारी दुनियां में मकडी और पहाड पर बडू कहते हैं लपककर चिमटे से ऐसा पकडा कि मकडी को हिलने तक का मौका नहीं मिला. हां इस चक्कर में मकडी की दो टांगें टूटकर फर्श पर गिर पडीं. मकडी कमरे से बाहर थी और हमारी जान शरार के अंदर. उस बच्चे के सामने हमारी अफसरी बौनी नजर आ रही थी. उस बच्चे का नाम कोहली था.
कोहली का नाम जैसे नेहरू, गांधी, टैगोर, मोदी, अंबेडकर, कलाम के बिरादराना नाम प्रसिद्ध थे वैसे ही उस मुहल्ले में प्रसिद्ध था. खुद कोहली के पिता को यह रुतबा हासिल न था कि लोग उन्हें कोहली के नाम से जानें. लोग तो लोग थे. सर्वेश्वर कोहली को उनके नाम से नहीं बल्कि “कोहली के पापा“ के नाम से जाना जाता था.
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बच्चे काफी देर तक कमरे में रखे लैपटाॅप, कैमरे, मोबाइल और रूबिक्स क्यूब से खेलते रहे और हम मत चूको चैहान की तरह लाये गये खाद्यान्न पर टूटे पडे थे क्योंकि लड़कों सी दिखने वाली लडकी ने बड़ी अम्मा बनकर हिदायत दी थी कि बर्तन वापस जाने हैं.
यह लडकी निम्मी थी. निम्मी रावत यानी यामिनी रावत. उम्र बारह साल. कक्षा आठ की लडकी. ताइक्वांडो की खिलाड़ी. गुस्सा नाक पर और हंसी नाक के नीचे ठुड्डी के किनारे बने तिल के पास.
तीसरा बच्चा निम्मी का भाई था.
धीरे धीरे दफ्तर से लौटते वक़्त ऐसा लगता कि मैं मुहल्ले भर के बच्चों का एक तरह से पिता बन गया. हर बच्चा इंतजार कर रहा होता. उनमें से कुछ तो साढ़े चार बजे से काॅटेज के सामने धरना लगाये बैठे मिलते, अपनी अपनी मनपसंद चाॅकलेट और टाॅफी की प्रतीक्षा में. रोज बिला नागा मिलने वाली साधारण सी टाॅफी असाधारण होती क्योंकि यह बिना दांत सड़ने और कीड़ा लगने की हिदायत के बिना जो मिलती.
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पर बच्चों की हीरो था कोहली. कोहली जैसी इज़्जत किसी बच्चे को नसीब न थी. प्यार सबको मिलता पर कोहली की पंहुच ऊपर तक थी. बहुत ऊपर तक. बिजली का बिल भरने, गैस का नंबर लगाने, अटक बिटक में मोबाइल रीचार्ज कराने, राशन लाने, बिजली के खराब बल्ब बदलने, घर में सांप बिच्छू निकलने पर उन्हें भगाने जैसे अपेक्षाकृत दिलेरी के कामों की जिम्मेदारी कोहली को मिलती. बाकी बच्चे इन अवसरों पर अपनी प्रतिभा न दिखा पाने के कारण कोहली को कोसते रहते.
पर कोहली तो कोहली था.हवा में कलाबाजी लगाना हो,हैंडल छोड़कर साइकिल चलाना हो या मुंह से सीटी बजाना, सब कोहली के बस की बात थी. बाकी सब बच्चे इन्ही सब मुद्दों पर कोहली से पीछे थे. संगठित विपक्ष की तरह कोहली के घेराव की नाकाम कोशिश करते बच्चे कोहली से थोड़ा बहुत चिढ़ते भी थे.
कोहली यानि चंद्रशेखर कोहली पुत्र सर्वेश्वर कोहली निवास ग्राम भैंसियाछाना जिला अल्मोड़ा, एक औसत दर्जे का मझोले कद काठी वाला शर्मीला पहाड़ी बच्चा, जिसका हाथ लाॅर्ड मैकाॅले की गढ़ी हुयी शिक्षा पद्धति में थोड़ा कमजोर था. पर काॅमन सेंस के मामले में बेजोड़.
कोहली उन बच्चों में था जिन्हें यदि थोड़ी सी दिशा मिल जाये तो वे दुनिया-जहान की दिशा और दशा दोनों बदल दें. पूरी दुनिया को एक नया रास्ता दिखा दें. उसके लिये एक नया रास्ता बना भी दें. पढ़-लिख कर बाबू जी बनकर नौकरी करना बहुत आसान है. और यह किया तो क्या किया. कठिन होता है जंगल के रास्ते के झाड़ झंखाड़ काट कर एक नया रास्ता बनाना. एक नयी मंजिल बनाना.
यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की खोट है जो बचपन से सिर्फ आंकड़े रटना सिखाती है. निम्मी कक्षा आठ में कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की बातें करती है तो कोहली मुंह बाएँ सुनता रहता है पर जब कोहली जब चिड़िया की बोली,बाघ की बोली,नदी,पहाड़,जंगल की छोटी छोटी बातें करता है तब बडे़ से बड़ा दांतो तले उंगली दबा लेता है.
शिक्षा चाहे जैसी हो उसे मातृभाषा, बोली, स्थानीय प्रकृति से क टकर नहीं होना चाहिये. उसे तो गांव, घर, नदी, पहाड़, जंगल, देवदार, काफल, चीड़, हिसालू, गड़ेरी, डुबके, भात, पटाल, गधेरे, नौले, धारे इन सबको छूकर निकलना चाहिये,ताकि कोहली जैसे एक्सट्रा ऑर्डिनरी बच्चे धागे में पिरोयी जाने वाली माला के फूल बन सकें, महक सकें, खिल सकें, मुस्कुरा सकें. और इसके अलावा ”इन व्हिच क्लास डू यू रीड ” पर निम्मी को हंसने का मौका न मिल सके.
निम्मी के बाबू सर्वेश्वर अंकल से ऊंची पोस्ट पर जो ठहरे.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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1 Comments
Anurag Mishra
कितना निश्चल है अल्मोड़ा… जितना पढ़ता हूँ, उतना प्रेम बढ़ता जा रहा है। ऊपर से आपकी प्रसंशनीय अंचलिक प्रस्तुति… बहुत खूब