पिथौरागढ़ की धरती में एक ऐसा व्यापारी परिवार भी रहा जो अद्वितीय था. वह था मालदार परिवार. आज तो यह परिवार अपनी पूरी जायदाद के बारे में ही नहीं जानता. पारिवारिक सम्पत्ति के झगड़े सरे आम हैं. मुकदमेबाजी है पर व्यापार का जो साम्राज्य इस परिवार ने स्थापित किया वह अन्यतम उदाहरण है.
(History of Dan Singh Maldar Family)
हमारी ईजा कहती थी कि उनके परिवार में किसी को मणि मिली थी. उसी मणि से वे माला-माल हो गये थे. अनेक लोग इस मिथ पर पूरी श्रद्धा से विश्वास करते थे. कदाचित वह उत्तराखंड के प्रथम करोड़पति थे. दानसिंह मालदार कुमाऊँ के पहले महान व्यापारी कहे जा सकते हैं. मालदार परिवार के पास कोई डिग्री नहीं थी. पढ़ाई दर्जा चार पांच तक भी नहीं थी पर ऐतिहासिक परिस्थितियों तथा अपनी व्यापारिक बुद्धि से वे छा गये.
राय सिंह के पूर्वज मण से आ कर क्वीतड़ बस गये थे. वह मूलत: सौन थे. सौन दो किस्म के थे. काले और गोरे. वह काले सौन थे. राय सिंह ने अपना जीवन संघर्ष में बिताया. वह अपने पुरुषार्थ के बल पर आगे बढे. घी के व्यापार में प्रथम विश्वयुद्ध में उन्होंने अच्छा पैसा कमाया. रायसिंह के के दो पुत्र हुए- देवसिंह और चंचलसिंह.
देवसिंह ने अपने पिता की व्यापार क्षमता को क्षीण नहीं होने दिया. उन्होंने इसे और भी बढ़ाया. बाद में उनके पुत्र दानसिंह ने इसका और विस्तार किया. चौकोड़ी और बेरीनाग की जायदाद भी उन्होंने खरीदी. देवसिंह के दूसरे पुत्र हुए मोहनसिंह. दानसिंह का कोई पुत्र न था, पुत्रियां ही थीं. मोहन सिंह के तीन पुत्र और नौ पुत्रियां हुई. चंचलसिंह के पुत्र हुये नरेन्द्रसिंह, देवराजसिंह और रवीन्द्रसिंह.
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प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सेना को घी की जरूरत पड़ी. नेपाल में उस समय घी पर्याप्त मात्रा में था. रायसिंह को किसी ने कहा कि आर्मी को घी सप्लाई करो. घी का डिपो वड्डा में स्थापित किया गया. घी सेना को उस समय इतना सप्लाई किया जाता था कि एक पुराने रिटायर्ड सुबेदार मेजर कहते थे कि हम कहते थे कि हमें तरी मत देना. तरी देने में बर्तन खूब मांजने पड़ते और तब तक परेड में फालेन नहीं हुआ जाता था. घी की बहार थी. घी राशन में मिलता था. इस तरह देव सिंह ठेकेदार बन गये.
राय सिंह कहा करते- हमर देबुआ लै ठेकेदार हैग्योछ. देव सिंह जानकार और सम्बन्ध बनाने में माहिर थे. उस समय ठेकेदारी प्रतिष्ठा और जिम्मेवारी का सबब होती थी. देवसिंह ने अपनी प्रतिष्ठा कायम की.
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एडवोकेट देवराज सिंह कहते हैं- उस समय विक्टोरिया के पैसे थे. नगद पैसे खच्चरों में लादकर लाने पड़ते थे. बीस-बीस खच्चर लद कर आते थे. एक तोले का एक सिक्का होता था. बेल्चों से रुपयों को निकाला जाता था. 22 गांवों का हक मालदार साहब ने ले लिया. बेरीनाग, चौकोड़ी चाय बागान खरीदा गया. यह चाय चीनी मूल की थी. पौंधे छोटे होते थे. पर चाय असमी पद्धति से लगाई जाती थी. इस चाय के फ्लेवर की कोई मिसाल न थी. दान सिंह ने व्यापार इतना बढ़ाया कि जंगल की पांच करोड़ की लीज होती थी. उस समय के मुताबिक यह बहुत बड़ी राशि थी. साल का एक करोड़ का टर्न ओवर होता था.
देवराज कहते हैं- हमारे वहां पढ़ाई-लिखाई को एक तरह से डिसक्वालीफिकेशन माना गया. नरेन्द्रसिंह बिष्ट, जो सालों तक पिथौरागढ़ के एम.एल.ए. और अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ के सांसद और प्रदेश के डिप्टी मिनिस्टर भी रहे, जब शिक्षा ग्रहण करने गये तो दानसिंह ने हंस कर कहा- बांजक पेड़ खिन गुलाब लागग्यान. यह सारा परिवार बहुत कम पढ़ा लिखा था पर प्रबुद्ध और प्रयोगशील था.
दान सिंह मालदार
दान सिंह ने अपना कारोबार बढ़ाया. वह व्यापार में माहिर थे. उन्होंने लकड़ी के कारोबार में कश्मीर, नेपाल, आसाम तथा तराई में काम किया. सबसे अधिक धन उन्होंने ही अर्जित किया. उनका मुख्यालय नैनीताल में बीरभट्टी बना. रेलवे के स्लीपर सप्लाई करने में वह माहिर थे. वह धीर गम्भीर थे. पर कोई दान मांगने आ गया तो बिना बोले चैक काट देते थे. दान देने के अपने पिता के गुण उनमें थे. मालदार परिवार ने बहुत से स्कूल बना कर दानवीर की उपाधि पायी.
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पूरी पिथौरागढ़ मालदार परिवार ने ही खरीदी थी. यह सारी जमीन लीज की थी. आजादी के बाद सारी सम्पत्ति को अपने रिश्तेदारों में बांटा गया. पर यह सम्पत्ति अकूत थी. आज भी उनकी संतानों को मालूम नहीं कि उनकी सम्पत्ति कहां-कहां है.
दान सिंह मौजी तबियत के आदमी थे. वह क्लबों में जाते थे. उन्होंने ही लकड़ी बगान पद्धति का सफल प्रयोग असम तथा कश्मीर में किया. उस समय चिरान से ही लकड़ी का काम होता था. उसके लिए उत्तराखंड में मजदूर नहीं मिलते थे. अत: चिरानी कांगड़ा से बुलाये जाते थे. दान सिंह ने मानव संसाधन का बेहतरीन प्रयोग किया. उन्हें मनोविज्ञान को भी निश्चय ही समझ थी. आदमियों से काम कराने की लियाकत उनमें खूब थी.
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श्रमिकों से उस समय भी उनका मानवीय व्यवहार होता था. उनके रहने तथा राशनिंग का उत्तम प्रबंध होता था. पर मुनाफे के मामले में पूरे पूंजीपति थे. नफे नुकसान की उनकी आर्थिक समझ गजब की थी. बेरीनाग की चाय विदेश सप्लाई करने की कल्पना उन्हीं की थी, पर उन्होंने अपने कार्य का श्रेय हमेशा अपने पिता को ही दिया.
1918 में उन्होंने जेम्स जौर्ज स्टीवेंस से चौकोड़ी और बेरीनाग की जायदाद खरीदी. 22 गांवों का हक भी खरीदा गया. बेरीनाग की चाय की उस समय धाक दूर-दूर तक थी. इसका सा फ्लेवर किसी चाय का नहीं था. खुद चाहे अधिक शिक्षा न पा सके हों पर उन्होंने औरों की शिक्षा के लिये बहुत कार्य किया. दानसिंह अपने पिता देवसिंह और माता सरस्वती देवी के प्रति बहुत श्रद्धा भाव रखते थे.
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1950 में उन्होंने अपनी मां सरस्वती देवी और पिता देवसिंह के नाम पर पिथौरागढ़ का देवसिंह स्कूल खोला. नैनीताल का प्रसिद्ध महाविद्यालय भी उनकी दानशीलता का उदाहरण है. वह जितने दबंग थे उतने ही उदार भी. रास्ता चलते भी लोग उनसे अपना रोना रो कर कुछ ले ही लेते थे. वह कभी-कभी ठगे जाने का भी आनन्द लेते थे.
जमीन-जायदाद खरीदने का उनको शौक था. नैनीताल में साह लोगों के मुकाबले जायदाद वही खरीद सकते थे. उन्होंने पुरानी बियर फैक्ट्री (बीरभट्टी) की जायदाद खरीद ली. फिर ग्रासमेयर तथा मेविला भी खरीदा. दान सिंह मालदार को पहली बार ‘टिम्बर स्टार’ की उपाधि अंग्रेजों ने दी. अंग्रेज उन्हें विशेष इज्जत देते थे. बताया जाता है कि जंगल नीलामी के समय उनके लिए अलग से सोफा लगाया जाता था. उनकी शान ही निराली थी. हालांकि उनके पेशे को लेकर बहुत से लेखकों ने उन पर इल्जाम भी लगाये. पर आम जनता का कहना है कि उस समय जंगल को ले कर कोई पर्यावरण वाला विचार था भी नहीं.
नेपाल के जंगल के काम में उन्हें बहुत लाभ हुआ तो कश्मीर में भी, जहाँ राजा हरिसिंह के खास आदमी नारायण सिंह रावत उनके बहनोई थे. एक बार उन्होंने चुनाव भी लड़ा. 1935 के एक्ट के बाद हुये चुनाव में उन्होंने हरगोविंद पंत के खिलाफ चुनाव लड़ा. बहुत धन खर्च किया पर बुरी तरह हार गये और जमानत जब्त हो गयी. इसी चुनाव के बाद गोविन्द बल्लभ पंत संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री बने थे. एक तनाव उनके तथा पंत जी के बीच रहा. पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब गोविन्द बल्लभ पंत जेल गये तो उनके परिवार को उन्होंने संरक्षण दिया.
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पंत उनकी इस दरियादिली को कभी नहीं भूले. और कहा जाता है कि एक बार तो सारे कुमाऊँ के जंगल के ठेके लिए यह प्रयास किया गया कि कोई टेंडर नहीं होगा सिर्फ वही टेंडर देंगे. पर उस समय के जाने माने दबंग ठेकेदार किशनचंद ने साफ कहा कि मैं टेंडर भरूंगा. बात आई गयी हो गयी. पर पंत उनके आखिर तक मुरीद बने रहे. भारत विभाजन के समय जब झेलम में लकड़ी बहने से काफी हानि हुई तो बताया जाता है कि पंत जी ने उनकी मदद की. उनकी परोपकार की भावना हमेशा तरंग में रही. वह अक्खड़ मिजाज आदमी थे. उन्होंने कभी भी गलत माल को ले कर समझौता नहीं किया. कहा जाता है एक बार गुणवत्ता में खरा न उतरने पर उन्होंने हजारों टन लकड़ी के आर्डर को निरस्त कर दिया.
उनको आंकड़े तथा जंगलों की स्थिति जुबानी याद रहती थी. कब क्या करना है, क्या नहीं, वह अच्छी तरह जानते थे. बस चीनी मिल तथा फैक्ट्री वाले मामले में ही उन्होंने मात खायी. बाद बाद में वह अधिक मद्यप हो गये थे.
चंचल सिंह
चंचलसिंह पिठौरागढ़ में ही रहे. उन्होंने घी-कपड़े का व्यापार सम्भाला. चंचलसिंह दर्शनीय व्यक्ति थे. चूड़ीदार पैजामा और वास्कट पहने खूब जमते थे. उन्होंने अथाह सम्पत्ति जोड़ी. साथ ही वह उदार व्यक्तित्व के थे. जिसकी कोई जमानत नहीं देता था, वह देते थे.
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सोरियाली के अतिरिक्त उन्होंने कभी हिन्दी नहीं बोली. उन्हें लोग ठगते भी थे तो वह अपने को ठगे जाने देते थे. एक बार किसी ने इस धोखाधड़ी का बयान उनसे किया तो उन्होंने कहा -जांण छू. उनके किस्से बहुत थे.
वह यों ही मकान बना देते थे. काम निकालते रहते थे. उनका उददेश्य रहता था कि लोग रोजगार पायें. मिट्टी तक खरीद लेते. किसी फेरी वाले का माल नहीं बिका तो बड़े मोलभाव कर वह भी खरीद लेते. किसी की फीस नहीं होती तो फीस दे देते. कहते-हम तो पढ़ नहीं के पाये, तेरा लड़का ही पढ़ लेगा. वह अपराधियों को तक छुड़ा लाते थे. उनके कागज घर ही ले आते. कहते थे- अरे गरीबी सबसे बड़ा अपराध हुआ. वह दरोगा को कहते-जब तक इनका फैसला नहीं होता, तब तक मेरे काम में इन्हें लगा दो. उनके वहां जाति-पाति का कोई बंधन न था.
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हां अपने व्यापार में माहिर थे. जो चावल उनके या मेहमानों के लिए बनता वही मजदूरों के लिए बनता था. बस यह जरूर था कि वह एक कटोरी घी अलग से खाते थे. खूब तगड़ा शरीर था. घोड़े में बैठ गये तो घोड़ा बैठ जाता था.
जाड़ों में एक बार एक नेपाली दो मंडी (कम्बल) चुरा ले गया. वड्डा में उन्हें किसी गड्ढे में डाल आया. उस समय दरोगा कोई खंडूरी था. उसे माल सहित दरोगा ने पकड़ लिया तो चंचलसिंह ने कहा – अरे तुझे जरूरत थी तो मांग लेता. अकल नहीं थी तुझे. उसे छुड़ा कर उन्होंने दो कम्बल के साथ दो कम्बल और दे दिये. बोले ये दो और ले जा. कल फिर तू अपने परिवार के लिए चोरी करेगा. खूब मकान बनाये और बहुत कम पैसों में उनमें किरायेदार रक्खे.
एक बार कहते हैं कि उनके मुनीम ने कहा – आपका किरायेदार मुसलमान बूचड़ किराया मांगने पर गाली दे रहा है. तो उन्होंने कहा कि देने दो. हम मालदार हैं तो गाली सहने में भी मालदार होना चाहिए. जो भी हो पिथौरागढ़ के इन मालदारों के किस्सों को आज भी पुराने पिथौरागढ़वासी पूछने पर रस ले ले कर सुनाते हैं. पर दिल के धनी मालदारों की बात तो बहुत कम बुजुर्ग जानते हैं. शायद इसलिए कि उनका काम आम आदमी की जिंदगी के भौतिकवाद से न जुड़ा था.
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–प्रभात उप्रेती
प्रभात उप्रेती का यह लेख पहाड़ पत्रिका के चम्पावत-पिथौरागढ़ अंक से साभार लिया गया है.
किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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