आजकल प्रायः कुमाऊँ इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए उल्लेख होने वाले द्वाराहाट नगर के सम्बन्ध में किवदंती रही है कि कुमाऊँ के द्वाराहाट क्षेत्र को देवता, उत्तर की द्वारिका बनाना चाहते थे परन्तु बाधाओं के कारण सफल न हो सके, फिर भी द्वाराहाट कुमाऊँ का एक ऐसा क्षेत्र है जो एक साथ पौराणिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को समेटे हुए है. हिमालयन गजेटियर में एटकिन्सन के अनुसार राजा विरदेव के शासनकाल के बाद कत्यूरी राज्य जब छिन्न-भिन्न हो गया और उसकी छः शाखायें अलग-अलग हिस्सों पर राज्य करने लगी, तब अस्कोट, डोटी, बारामण्डल, दानपुर के हिस्सों के अलावा कुमाऊँ के पट्टी मल्ला डोरा में स्थित इस क्षेत्र द्वाराहाट में राजा गुजरदेव का शासन आया और पाली पछाऊं में आसन्तिदेव राज्यसीन हुए. राजुला मालूशाही की प्रणयकथा में भी जब राजुला रास्ते के कष्ट झेलते हुए गेवाड़ के बैराठ की ओर जा रही होती है तो अन्य के अलावा द्वाराहाट के उखललेख के जंगल में पदुवा दौर्याव भी उसे विवाह करने के लिए प्रताड़ित करता है. History and Heritage of Christianity in Dwarahat
द्वाराहाट की समृद्ध विरासत के साक्षी, यहां के अगणित कचहरी रतनदेवल, मनदेव (मनिया) बद्रीनाथ, केदारनाथ शैली के मंदिर समूह, अनेकों नौले, ऐतिहासिक भग्नावशेष तो हैं ही साथ ही दूनागिरी, पांडुखोली भटकोट जैसे पौराणिक स्थल इसकी पहचान रहे हैं. महायोगी महावतार बाबा, लाहिड़ी महाशय की साधनास्थली, योगदा सोसाइटी का केंद्र होने के साथ साथ उत्कट यायावर रहे महापंडित राहुल सांकृत्यायन की यात्रा के पड़ाव के रूप में भी जाना जाता था. स्यालद बिखौती का मेला तो द्वाराहाट की सांस्कृतिक पहचान का अमिट प्रतीक है.
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इन सब के अतिरिक्त जिस बात की चर्चा बहुधा नहीं होती वह है द्वाराहाट में ईसाईयत के पदचिन्हों की, ईसाई मिशनरियों के शिक्षा, चिकित्सा में योगदान और भूमिका की चर्चा. मसूरी की तरह कुमाऊँ में नैनीताल, रानीखेत अल्मोड़ा आदि शहरों को ही प्रमुखतः ईसाई मिशन के केंद्र के रूप में जाना जाता है. जबकि 2011 की जनगणना भी दर्शाती है कि इस सुदूर एतिहासिक कस्बे द्वाराहाट में लगभग 00.69% ईसाई धर्मावलम्बी अब भी निवास करते हैं. यह भी द्वाराहाट की ऐतिहासिक सांझी विरासत के एक महत्वपूर्ण पहलू का प्रतिमान है. नगर के कालीखोली से रौतेली तक के इलाकों में द्वाराहाट नगर में ईसाई मिशनरीज के प्रत्यक्ष और परोक्ष योगदान की मिसालें आज भी अपनी कहानी खुद कहती हैं.
मिशनरी सोसाइटी ऑफ़ मेथोडिस्ट की सन 1880 की रिपोर्ट बताती है कि पूरे कुमांऊ में डॉक्टर ग्रे के नेतृत्व में मिशन के चिकित्सकीय कार्य चल रहे थे और पिथोरागढ़, लोहाघाट, भीमताल और द्वाराहाट में डिस्पेंसरी की स्थापना की जा चुकी थी तब डॉक्टर ग्रे का अपने साथियों से कहना था कि ईसाईयत का पुराना सिद्धांत था:- “लेट द न्यू पीपुल कम” और हमें एक नए सिद्धांत पर चलना है:- “गो टू द पीपुल”. जो ये बताने के लिए काफी है मिशनों ने आमजन तक धर्मप्रचार के लिए खुद पहुंचने का प्रयास किया इसी का सकारात्मक पक्ष है कि यहाँ आमजन को शिक्षा और स्वास्थ्य की निःशुल्क सुविधा मिली.
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प्राइमरी शिक्षा और एंग्लो इंडियन वर्नाक्युलर स्कूल की स्थापना
ईसाई मिशन से जुड़े पादरियों और प्रीस्ट या पुरोहित के समकक्ष “रेवरेंड” या रेव उपाधि का प्रयोग किया जाता है. पादरी फिलो मेल्विन बक (रेव पी एम बक) मात्र 24 साल की उम्र में मिशनरी के तौर पर 1870 में भारत आये और उन्होंने शाहजहांपुर के अनाथालय में अपना कार्य शुरू किया और उस के बाद उन्हें नैनीताल और फिर द्वाराहाट स्थानांतरित कर दिया गया. ये लोग अपने कार्य को “इवेंजलेटिक एंड पेस्टोरल” कहते थे जिसका शाब्दिक अर्थ दूसरों को ईसाईयत के प्रति प्रेरित करना था. ईसाई मिशन के कल्याणकारी कार्यों के बावजूद धर्मांतरण के प्रयासों के लिए भी वे विवादित रहे. इन्हीं पी.एम. बक के ऐतिहासिक प्रयत्न से सन् 1880 ई. में द्वाराहाट में वर्नाक्यूलर मिशन विद्यालय की स्थापना हुई. अपने धर्मान्तरण के मिशन को स्वीकार करते हुए रेव बक ने लिखा है कि अंधविश्वासों से पीड़ित लोगों को बाइबल के प्रकाश से द्वाराहाट में धर्मान्तरित भी किया गया साथ ही उसने बताया कि इतवार को चर्च में लगने वाले बाइबल स्कूल में भी संख्या अब 40 से 140 हो चुकी है.
मुरलीधर के शानदार ओल्ड जूनियर स्कूल की विरासत पर बना वर्नाक्यूलर स्कूल
मिशन स्कूल से पहले सरकारी ओल्ड जूनियर स्कूल अंग्रेजों ने द्वाराहाट में स्थापित किया था जिसके बारे में 1859 में उत्तर भारत के विद्यालय निरीक्षक हेनरी स्टूअर्ट ने अपनी रिपोर्ट ” स्टेट ऑफ पब्लिक एजुकेशन” में लिखा था कि- मैंने रामगढ़ के अलावा कुमाऊं के सातों स्कूलों का भ्रमण किया और सतराली, सोमेश्वर और द्वाराहाट के स्कूलों का भ्रमण दो बार कर लिया लेकिन द्वाराहाट के अलावा अन्य स्कूलों के बारे में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है, क्योंकि वहाँ अध्यापकों में अज्ञानता, शिक्षण विधि की कमी और सक्षमता का अभाव है. जबकि स्टुअर्ट के मुताबिक सिर्फ द्वाराहाट का विद्यालय ही उत्कृष्ट पाया गया जिसके प्रभारी श्री मुरलीधर थे जिनकी शिक्षा आगरा कॉलेज से हुई थी और जो अत्यधिक उद्यमी और क्षमतावान थे. इस तरह द्वाराहाट की शिक्षा के लिए वर्नाक्यूलर स्कूल को श्री मुरलीधर से एक मजबूत शैक्षिक नींव मिली थी.
वर्नाक्युलर मिशन स्कूल में संस्कृत के लिए महाराजा होलकर का 500 रूपये का अनुदान
मेथोडिस्ट चर्च की 14वीं सालाना उत्तर भारत की कांफ्रेंस सन 1877 में हुई थी. इसका कार्यवृत्त जनवरी 1878 में लखनऊ से प्रकाशित हुआ. जिसमें द्वाराहाट के मिशनरी इंचार्ज पी एम् बक ने द्वाराहाट में मिशन की गतिविधियों का ब्यौरा दिया और बताया कि सरकार द्वारा गत वर्ष दी गयी सहायता से द्वाराहाट के वर्तमान 3 मिशन स्कूल को उच्चीकृत किया जाना है और 3 नए प्राइमरी स्कूल खोले जाने हैं साथ ही उसने उम्मीद जताई थी कि इस तरह इन 6 स्कूलों में उपस्थिति तीन सौ से चार सौ छात्र हो जायेगी.
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इसमें जो सबसे दिलचस्प उल्लेख बक ने किया वह था कि पिछले मार्च अर्थात सन 1876 में इंदौर के महाराजा तुकाजी राव होल्कर अपनी तीर्थयात्रा के समय द्वाराहाट में आकर रुके और उन्होंने ईसाई मिशन स्कूल का भ्रमण किया तथा उन्हें यह देख कर ख़ुशी हुई कि विद्यालय में संस्कृत भी पढाई जाने लगी है और इस कार्य के लिए उन्होंने खुश होकर 500 रुपये का दान भी विद्यालय को दिया. उने बताया कि अन्य स्रोतों से भी जो दान अब तक मिला है उससे ईसाई और हिन्दू छात्रों के लिए छात्रावास बनाया जायेगा जो अभी तक बहुत दूर- दराज से आते हैं.
वर्नाक्यूलर मिशन स्कूल की सफलता
पादरी बक द्वारा स्थापित यही मिशन स्कूल कालांतर में जूनियर हाईस्कूल व हाईस्कूल तथा सन 1953 में इण्टरमीडियट हुआ. आज यह मिशन स्कूल, द्वाराहाट इंटरमीडियेट कालेज के नाम से जाना जाता है. इस विद्यालय ने इस पूरे क्षेत्र में शिक्षा प्रसार का अभूतपूर्व योगदान दिया. इस विद्यालय की ख्याति ऐसी थी कि यहाँ गढ़वाल से भी शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करने हेतु आया करते थे. गढ़वाली छात्रावास का खण्डहर आज भी यहाँ मौजूद है. 1887 में यहाँ के सभी छात्रावास भर चुके थे और प्रवेश आवेदन लम्बित थे और बढ़ती छात्र संख्या को देखते हुए स्कूल इंस्पेक्टर ने सरकार से ग्रांट दोगुनी करने के लिए लिखा था.
छात्राओं की शिक्षा का केंद्र
डॉक्टर श्रीमती वॉग जब 1886 में द्वाराहाट मिशन में आईं तो उन्होंने छात्राओं की शिक्षा भी व्यवस्था की. आज जहां द्वाराहाट राजकीय कन्या इण्टर कालेज है. वहां 1886 में मिशनरीज का प्रशिक्षण स्थल रहा था, बाद में मिशनरी प्रशिक्षण केन्द्र बरेली में स्थानांतरित हुआ. डॉक्टर श्रीमती वॉग जब द्वाराहाट में ईसाई मिशन की प्रमुख थीं तब उनकी सहायता के लिए वहाँ मिस एल बोएड तैनात थीं. 1886 की मिशन रिपोर्ट में श्रीमती वॉग ने लिखा है कि –“हमारे स्कूल में अब भीड़ हो गयी है, जितना हमारे पास पैसा नहीं है उससे ज्यादा छात्रायें हैं. हमें अब नया स्कूल बनाना होगा और यदि एक कक्ष और होता तो मैं और छात्राओं को प्रवेश देती. मिस बोएड ने अठारह छात्राओं का चरित्र निर्माण किया है.“ हालांकि यह दीगर बात है कि भारतीय छात्राओं को शिक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए मिशनरीज को बहुत संघर्ष करना पड़ा और वर्ष में वह आठ छात्राओं को ही विद्यालय में ला पाते थे. मिस एलुइन बोएड ने एक अनूठे प्रयोग के तौर पर द्वाराहाट में बॉयज एंड गर्ल्स साहित्यिक सोसायटी की भी स्थापना की थी. इस सोसायटी का उद्देश्य बच्चों में साहित्य के प्रति रुचि बढ़ाना और उन्हें सृजनशील और स्वावलम्बी बनाना था.
1888 का स्थानीय-मिशनरी संघर्ष
द्वाराहाट सर्किट के मिशन में 1888 में मिशनरी के रूप में एन एल रॉकी की नियुक्ति हुई और मिशन चिकित्सक के तौर पर डॉ. एच. के विल्सन आये. अपनी मिशन रिपोर्ट में रॉकी ने जिक्र किया है कि द्वाराहाट का मिशन हमेशा से एक युद्वस्थल रहा. उनके अनुसार कट्टर और आक्रामक स्थानीय निवासी हमें शत्रु की तरह देखते रहे. जब मिशन डॉक्टर विल्सन अपने बंगले की नींव डाल रहे थे तो भीड़ जुट गई और दो आदमियों ने नींव तोड़ दी और जिन्हें डॉक्टर विल्सन ने घूंसों से मारकर हटाया हालांकि उसके बाद वे दोनों समाज के हीरो बन गए. बाद में मिशन स्कूल में पढ़ने वाली एक स्थानीय छात्रा को उसके रिश्तेदार उठा कर ले गए जिनके पीछे डॉ. विल्सन दौड़ते रहे और फिर उस छात्रा को वापस ले आये. रॉकी स्थानीय स्वाभिमानी लोगों के प्रतिरोध से इतने ज्यादा आजिज़ थे कि उन्होंने यहाँ से स्थानातंरण का अनुरोध स्वयं किया. इसके बावजूद डॉ. विल्सन ने द्वाराहाट में टिके रहने का फैसला किया.
डॉ. विल्सन खलनायक से नायक
प्रारम्भ में द्वाराहाट के स्थानीय निवासियों से हाथापाई करने वाले डॉक्टर एच के विल्सन की छवि धीरे धीरे उनकी चिकित्सकीय सेवाओं से स्थानीय जनता में परिवर्तित होती गई. डिस्पेंसरी में उनसे इलाज कराने दूर दूर से लोग आते थे और वो पूरी तल्लीनता से हर मरीज का इलाज किया करते थे. मार्च 1888 में वह केंद्रीय कॉन्फ्रेंस के लिए बम्बई गए थे परंतु तभी पिथौरागढ़ में हैजा फैलने पर उन्हें पिथौरागढ़ भेज दिया गया जहाँ दस सप्ताह उन्होंने रात दिन कार्य किया और बीमारी पर नियंत्रण पाया. इसके बाद जब उन्हें द्वाराहाट वापस बुलाया गया तो स्थानीय मरीजों की बड़ी भीड़ ने उनका स्वागत किया, तब उनकी डिस्पेंसरी में तिल रखने की जगह नहीं थी और मरीज भर्ती करने की जगह भर चुकी थी, तब अपने बंगले के अहाते में भी उन्होंने मरीजों के लिए जगह बनाई. तब उन्होंने यहाँ सप्ताह भर में 80 से ज्यादा सफल ऑपरेशन भी किये. उनकी ख्याति इतनी हुई कि इस बीच देशभर से बद्रीनाथ की यात्रा से आने वाले तीर्थयात्री भी द्वाराहाट में ही विश्राम करने लगे ताकि उचित चिकित्सा भी कराई जा सके. इस काम के लिए उन्हें दवाओं और उपकरणों के लिए सरकार ने ₹ 200 की अतिरिक्त ग्रांट भी जारी की.
द्वाराहाट में मिशनरीज के प्राचीन अवशेष
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कालीखोली में स्थित मेथोडिस्ट चर्च स्थापत्य की एक धरोहर है. सन 1882 में थॉमसन गोवन को यहाँ पहला स्वतंत्र पादरी नियुक्त किया गया. द्वाराहाट सर्किट के ईसाई मिशन का केंद्र यह चर्च रहा है और आज भी प्रार्थनास्थल के रूप में इसकी सुंदर इमारत हरे भरे प्रांगण के साथ नयनाभिराम दृश्य उत्पन्न करती है.
ऐतिहासिक मिशन स्कूल जहाँ आज भी पूरी शान से खड़ा है वहीं पूरे द्वाराहाट नगर में ईसाई मिशन के अवशेष अब भी उपस्थित हैं. आजादी के बाद भी द्वाराहाट में मिशन प्राइमरी पाठशाला वर्षों से अपनी सेवायें देता रहा. आज के इंटर कॉलेज का भवन कभी चिकित्सक विल्सन का था. श्रीमती एस.आर. डेविड ने नगर में एक ‘सेंट मेरी’ विद्यालय खोला गया था किन्तु कुछ समय तक ही यह जारी रहा. सेंट मेरी का यहां एक जीर्ण बंगला और छात्राओं का छात्रावास भवन बाद में एस.एस.बी. का कार्यालय रहा. इसी एस एस बी कार्यालय के पास एक और छात्रावास था जिसका खण्डहर अब लगभग जमींदोज हो गया है. आज भी जीर्णोद्धार किया गया पारसनेज भवन यहाँ मौजूद है, जिससे लगा हुआ डॉ. विल्सन का बंगला है.
कालीखोली में स्थित लोकनिर्माण विभाग के डाकबंगले के सामने स्थित भवन ही मिशन इंटर कॉलेज का छात्रावास था. यहीं पहाड़ी के ढलान पर कब्रिस्तान है. इसके अतिरिक्त भी शिशुमन्दिर के पास पुराना पार्सनेज भवन, रुग्णशाला का भवन आज भी मौजूद है यह कभी ट्रेजरी हुआ करती थी. द्वाराहाट का पूरा कालीखोली, कौंला, रौतेली ईसाई मिशनरी इतिहास की जड़ों की विरासत है.
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द्वाराहाट के उदार ईसाई समुदाय का रहन सहन और पारंपरिक त्योहार मनाने की जीवनशैली उनकी पहचान को शहर की आत्मा से आत्मसात करती है. अल्प संख्या में होने के बावजूद द्वाराहाट में संस्कृति को साझा करने वाला ईसाई समाज राजनैतिक रूप से भी जागृत रहा है. द्वाराहाट के विद्वान बिशप जोशी, विश्व चर्च काउंसिल के सदस्य रहे, कौंला ग्राम सभा की प्रधान दशकों पहले श्रीमती विल्फ्रेड विलियम्स हुआ करती थीं और वर्तमान में ही द्वाराहाट निवासी हेमन्त जोज़फ उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य हैं. ईसाई मिशन के योगदान की छाप इस ऐतिहासिक नगरी द्वाराहाट पर दीर्घजीवी, अमिट और अपृथक है. History and Heritage of Christianity in Dwarahat
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पेशे से अधिवक्ता दुष्यन्त मैनाली उत्तराखंड उच्च न्यायालय में प्रमुखतः जनहित के मामलों की वकालत में सक्रिय रहते हैं.
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