हरसिल, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में स्थित एक खूबसूरत घाटी है, जो कि भागीरथी नदी के किनारे अवस्थित है. इसके साथ ही यह सेब के बागानों के लिए भी प्रसिद्ध है. ब्रिटिश काल में विल्सन नामक व्यक्ति ने हरसिल को टिहरी नरेश से लीज पर ले लिया था और यहां स्थित देवदार के पेड़ का अपार दोहन किया और साथ ही सेब के बागानों का विकास किया.
(Harsil Valley Travelog Uttarkashi Uttarakhand)

इस यात्रा से पूर्व मुझसे विनोद दा ने होली के समय हरसिल की यात्रा करने के बारे में चर्चा करी, जो की मैंने तुरंत स्वीकार कर ली क्योंकि पहाड़ों की सैर मुझे खूब भाती है. मैं अपने काम के सिलसिले से 15 मार्च को ही उत्तरकाशी आ गया था और उत्तरकाशी से हरसिल मात्र 3-4 घंटे की ही दूरी पर है. 17 व 18 को होली की छुट्टी थी व 20 को रविवार पड़ रहा था तो मैंने घूमने के लिए 16 व 19 की छुट्टी ले ली थी जो की स्वीकृत भी हो गयी.  

दिनांक 17 मार्च को विनोद दा लोग अल्मोड़ा से चले व 18 की सुबह मैं नाश्ता करके उत्तरकाशी में उनके इंतजार में बैठा था. जैसे ही उनका फ़ोन आया मैं तुरंत रोड में भंडारी होटल के आगे खड़ा हो गया. कुछ देर बाद विनोद दा लोग भी अपनी बाइकों में भंडारी होटल के आगे पहुंच गये. फिर उन्होंने पेट्रोल पम्प में तेल के लिए पूछा जो कि होली के कारण बंद था, जिस कारण किसी को भी पेट्रोल न मिल सका. फिर हम लोग बिना पेट्रोल के ही अपनी मंजिल हरसिल की ओर चल पड़े. 2 बाइक पहले ही उत्तरकाशी शहर से आगे को चली गयी थी, जिसमें से एक में मैंने बैठना था. फिर क्या था जाना तो था ही, मै पप्पू दा की बाइक में सवार हुआ व सड़क में चलने के नियम को तोड़ते हुए हम ट्रीप्लिंग करते हुए आगे को चल पड़े. कुछ दूरी पर वो लोग भी हमको एक होटल के आगे रुके मिले.

हम कुल 8 लोग व 4 बाइकें थी. पेट पूजा करने के बाद हम अपनी मंजिल की ओर रवाना हुए. होली के कारण पूरी रोड सुनसान थी परन्तु इस तरफ़ होली का माहौल अल्मोड़ा जैसा नहीं था. अल्मोड़ा में तो खड़ी होली व बैठक होली की धूम मचे रहती है और छलड़ी के दिन तो खूब रंग उड़ाया जाता है. घर-घर जा कर होली गाई व अशीक दी जाती है. यहां पर अशीक का अर्थ आशीर्वाद से है, जिसके बदले कहीं आलू-चटनी तो कहीं चिप्स आदि मिलते हैं और होली गायन भी एक लय में होता है.

बहराल चलते-चलते रोड के दांयी तरफ़ हमें एक झरना दिखा, जिसका नाम खेड़ी वॉटरफॉल था जो कि भागीरथी नदी के पानी को मनेरी परियोजना द्वारा मोड़ कर बनाया गया था. पानी नदी में इस तेजी से गिर रहा था कि उसके छीटे ऊपर रोड तक आ रहे थे. वहां पर हम लोग कुछ देर रुके व खूब तस्वीरें खींची. तस्वीरें खीचने के बाद हम पुनः अपने गंतव्य की ओर चल पड़े. कुछ ही दूरी पर मनेरी परियोजना फेज 1 थी, जिसमें भागीरथी नदी का पानी रोका हुआ था. मनेरी के बाद हम भटवाड़ी होते होते हुए गंगनानी पहुंचे. गंगनानी में एक गर्म कुंड है, जहां पर गंगोत्री धाम की यात्रा पर जाने वाले लोग स्नान कर गंगोत्री मंदिर के दर्शन के लिए जाते है.

ऐसी मान्यता है कि इस गर्म कुंड में स्नान से चर्म रोगों का निवारण होता है. हम लोग गंगनानी में रुके ही नहीं, आगे को चलते रहे. गंगनानी से आगे एक बार तो हम बिलकुल नदी के किनारे चल रहे थे. दृश्य कुछ इस तरह का था, दोनों ओर ऊचे-ऊचे पहाड़ वो भी पथरीले, बीच में नदी, व नदी के किनारे सड़क व सड़क के ऊपर केवल हम बाइक के साथ, अद्भुत नजारा था. इस नज़ारे को धुंद थोड़ा धुमिल कर रही थी, जो की वनाग्नि द्वारा उत्पन्न हुयी थी. पता नही लोग किस मानसिकता के चलते हरे भरे जंगलों को आग के हवाले कर देते हैं. अब आगे बड़ते हुए धीरे-धीरे चढ़ाई बढने लगी थी और यू-टर्न वाले मोड़ होते है एक के बाद एक आने लगे लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे सफ़ेद-गुलाबी फूल लगे हुए पेड़ दिखाई दे रहे थे जो मन को प्रफुल्लित कर रहे थे.

कुछ ही दूरी पर हमें एक पत्थर (पैराफिट) लगा दिखा जिसमें लिखा था, हरसिल 10 किलोमीटर, यानी की अब हम अपने मंजिल के काफी करीब थे. हम चढ़ाई चढ़ने के बाद एक बार पुनः ढलान में उतरे और एक-दम नदी के किनारे उतरे. एक पुल पार करके हम झाला पहुचे. झाला से हरसिल अब कुछ ही दूरी पर था. थोड़ी दूरी बाद हमें एक गेट दिखा, जिसमें लिखा था, पर्यटक ग्राम पंचायत हरसिल में आपका स्वागत है और गेट के बाहर भारतीय सेना की एक चौकी बनी हुई थी.
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हरसिल देखा जाए तो चाईना बॉर्डर के एक दम करीब है तो शायद इसलिए इस तरफ़ आर्मी का इतना जमावड़ा है. गेट के बाहर हम और लोगों के इंतजार में रुके रहे और प्रकृति का आनंद उठाते रहे. हमारे चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ में शंकुधारी वृक्ष थे जो कि नीले आसमान के साथ एक दम हरे चमक रहे थे और जमीन पर कहीं-कहीं बर्फ भी जमी हुई थी. एक नई गाड़ी रोड के किनारे टूटी-फूटी अवस्था में पड़ी थी शायद बर्फ के दबाव से इस अवस्था में पहुच गयी हो.

कुछ देर इंतजार करने के बाद हमारे और साथी भी अपनी बाइकों में पहुंच गये थे. सब के आने के बाद हमने गेट के सामने एक तस्वीर खींची और फिर चल पड़े अपने ठिकाने की तलाश में. हमने मुख्य सड़क छोड़ दी थी, वो सड़क सीधा आगे को लंका होते हुए गंगोत्री को जा रही थी. लंका, गंगोत्री रास्ट्रीय उद्यान का वही ही स्थान है जिसे हाल ही में उत्तराखंड सरकार ने हिम तेंदुओं के लिए सरंक्षित स्थान घोषित किया है. हरसिल के लिए हम मुख्य सड़क से बायीं ओर मुड़ गये थे व आर्मी का निवास स्थान पार करते हुए हरसिल मुख्य बाजार में पहुच चुके थे.

मुख्य बाजार का नजारा कुछ इस तरह था, बीच में सड़क, सड़क के दोनों तरफ़ दुमंजले रंग-बिरंगे मकान, उन मकानों में पारम्परिक चित्रकारी, नीला आसमान व एक छोर में दिखते सफ़ेद पहाड़, शंकुधारी वृक्ष, अब नज़ारे की तारीफ के लिए कोई शब्द ही नही है. हरसिल बाजार पार करने के बाद सुनील भय्या ने अपनी बाइक दांयी ओर कच्ची सड़क को मोड़ी, उन्हीं के साथ में भी बैठा था. लगभग आधा किलोमीटर सफर तय करने के बाद हमने देखा दूर-दूर तक कोई बाइक वाला दिख नहीं रहा और फिर हमको ख्याल आया कहीं हम गलत दिशा में तो नहीं आ गए.

रोड के किनारे हमें एक बुबू जी बैठे दिखे, उनसे मैंने पूछा आपने किसी बाइक वाले को आगे को जाते देखा, तो उन्होंने न में सिर हिला दिया. फिर मैंने अन्य लोगों को कॉल लगाना शुरु किया, बड़ी मुश्किल से एक नंबर लगा, बात करने पर पता लगा हम गलत दिशा में आ गए. बाजार पार करते ही बाई ओर मुड़ कर लोहे का पुल पार कर पतली सी पगडंडी से होते हुए बगोरी गाँव जाना था. तो हम वापस पीछे मुड़े और बताए हुए रास्ते पर चल पड़े.

कुछ ही देर में हम बगोरी गाँव में और साथियों के पास पहुंच गए थे. सभी लोग बोल रहे थे, अरे भई कहाँ भटक गए थे, फिर हमने उन्हें सब विस्तारपूर्वक बताया. विनोद दा व भरत दा रहने के लिए अलग-अलग होम-स्टे में बात कर रहे थे. दाम ज्यादा होने के कारण कहीं बात बन ही नहीं पा रही थी. बांकी हम लोग एक पुराने घर के बाहर बैठ गए जिसके दरवाजो में ताला जड़ा हुआ था. वैसे इसी घर में नहीं, पूरा गाँव ही खाली था. गिने-चुने लोग दिख रहे थे. घर पूरा लकड़ी व पत्थर से बना था और लकड़ी भी देवदार की लग रही थी. वैसे देवदार की ही होगी क्योंकि आस-पास पूरा देवदार का ही जंगल था. घरों पर काष्ठ कला अत्यंत सुंदर थी जो काफी पुरानी भी लग रही था. हमने समय का उपयोग करते हुए वहां पर ढेर सारी तस्वीरें खीची. घर की छत पर एक बकरी या भेड़ की खाल लटकायी हुयी थी.

आस-पास पता करने पर पता चला कि सभी लोग बर्फ व ठंडी के कारण नीचे गए हुये हैं और अब कुछ ही दिनों में वापस आने वाले हैं. इतनी देर में विनोद दा की एक होम-स्टे में रहने की बात फ़ाइनल हो गयी, जिसका नाम था, “द हरसिल होमस्टे”. इसे एक बंगाली महिला संचालित कर रही थी. तो हम सभी लोग अपना सामान ले कर वहां पहुच गए. कुछ ही देर में हमें चाय मिल गयी थी. चाय पीने के बाद हम फिर घूमने निकल गए. जिस बगोरी ग्राम में हम लोग रुके हुये थे वह भागीरथी व जालंधरी नदी के मध्य स्थित है.

यह एक जनजातीय ग्राम है. यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय भेड़पालन व बागवानी है. इस ग्राम को भारत सरकार ने नमामी गंगा के तहत “प्रथम गंगा ग्राम” घोषित किया है तथा यह ग्राम 2019 में स्वच्छता के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है. जिसकी जानकारी हमें गाँव के गेट के पास लगे एक बोर्ड से मिली पर उसी बोर्ड के समीप खूब कचरा फैला हुआ था.

गाँव के आरंभ में एक गेट था व बीचों-बीच एक पतली सी पगडंडी थी जिसके दोनों ओर लकड़ी व पत्थर से निर्मित घर थे. यह घर जमीन से कुछ ऊपर उठाए हुए थे इनकी खिड़की व दरवाजे भी बहुत छोटे थे. कुछ सीमेंट के भी घर थे, गाँव के चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ व कुछ देवदार के वन अवस्थित थे व बगल से आती हुई नदी की कल-कल छल-छल आवाज. गाँव के गेट से अंदर जाते ही सबसे पहले बाएँ ओर ऊन द्वारा निर्मित वस्तुओं की फैक्ट्री अवस्थित है जो की सर्दियों के कारण बंद थी.

चाय पीने के बाद हम लोग बाइकों से हरसिल की वादियो में घूमने निकल पड़े. पतली सी पगडंडी से होते हुए हम नदी किनारे एक शांत जगह पर रुके जो की एक समतल मैदान जैसा था. हर जगह देवदार के छोटे-छोटे पेड़, जमीन पर हरी-भरी घास व छोटी-छोटी झाडिया, कुछ दूर पर तीव्र वेग से बहती हुई नदी व नदी के दोनों छोर की ओर देखे तो बर्फ से ढके हुए पहाड़ दिख रहे थे. एक-दम सुकून भरा नजारा था. पूरी शाम वहां बैठ कर हमने घाटी का आनंद लिया, जिसमें की विनोद दा सबको मशाला लगा हुआ पनीर व मांस आग में भून के परोस रहे थे. पनीर वाले पनीर का व मांस वाले मांस का लुफ़्त उठा रहे थे. शाम ढलने के बाद अपने फैलाये हुये कूड़े का निस्तारण कर हम लोग वापस होम स्टे की ओर चले गये और अगले दिन के कार्यक्रम की चर्चा की.

कुछ समय पश्चात हमारा भोजन भी तैयार हो गया था. भोजन करने के लिए हम लोग जमीन पर एक दरी बिछा कर बैठ गए क्योंकि नीचे बैठ कर खाने का अपना अलग ही आनंद है. भोजन करने के बाद हम लोग दिन-भर खीची गयी तस्वीरों को देखते हुये सो गए.
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अगली सुबह लगभग 5:30 पर मैं और पप्पू दा सूर्वोदय का नजारा देखने बाहर आ गए लेकिन ऊँची पहाड़ियों के कारण सूर्य की किरण बर्फ से ढकी हुयी पहाड़ियों पर पड़ ही नहीं रही थी. धीरे-धीरे समय बीतता गया और लगभग 6:00 बजे के आस-पास सामने दिखती हुई सफ़ेद पहाड़ियां लाल चमकने लगी जिनको देखने के लिए हम सुबह से बाहर ठंड में इंतजार कर रहे थे. लगभग 6:30 तक हमने पहाड़ियों में पड़ते हुये अलग-अलग रंग को देखा और खूब तस्वीरें खींची फिर हम गंगोत्री धाम जाने की तैयारी में जुट गए जो की हरसिल से मात्र 20-25किमी की ही दूरी पर था. नाश्ता करने के बाद हमने कुछ देर अबीर-गुलाल का टीका लगा के व होली के गीत गा कर होली मनायी. फिर हम बाइकों से गंगोत्री धाम की ओर चल पड़े.

भैरव-घाटी के समीप उचाई मे स्थित पुल से ली गई तस्वीर

मुखबा (गंगा मैया का शीतकालीन आवास), लंका होते हुये हम भैरोघाटी पहुँचे जहां हमने कुछ देर रुक कर खूब-सारी फोटो खींची. भैरोघाटी से पहले हमने एक पुल पार किया जो की बहुत ही ऊंचाई पर था नीचे पतली सी नदी व नदी के दोनों तरफ पथरीले ऊचे पहाड़. जैसे-जैसे हम आगे बड़ रहे थे हमारे चारों ओर पहाड़ियों की ऊंचाई बड़ते जा रही थी और पेड़ों की संख्या भी कम हो रही थी. कुछ देर बाद हम गंगोत्री धाम पहुंच गए थे जो की एकदम सड़क के किनारे ही स्थित है व आस-पास कुछ दुकानें, जिनमें अधिकतर बंद थी और लगे हुये तालों में कपड़ा लपेटा हुआ था, जो की शायद बर्फ से बचाव के लिए किया हो. धाम के बाई ओर एक पैदल रास्ता था, जो की गोमुख की ओर जा रहा था.

गंगोत्री से गोमुख के बीच की पैदल दूरी मात्र 25किमी है. मंदिर जाने वाले रास्ते पर थोड़ी-बहुत बर्फ जमी हुयी थी. हम किनारे-किनारे चलते हुये मंदिर के अंदर पहुंचे जो की सफ़ेद चमक रहा था और चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ तथा मंदिर चारों ओर से होटलों से घिरा हुआ था. परंतु मंदिर के कपाट बंद थे, फिर भी बहुत संख्या में लोग पहुंचे हुये थे. धाम के ठीक नीचे भागीरथी नदी अपने तीव्र वेग से बह रही थी. कुछ देर हमने मंदिर के सामने बैठ कर समय व्यतीत किया व तस्वीरें खींची. फिर हम नीचे नदी की ओर चले गए.

नदी और मंदिर के बीच में राजा भागीरथ की तपस्थली थी जिसे एक छोटे से मंदिर का स्वरूप दिया गया है. ऐसी मान्यता है कि राजा भागीरथ ने यहीं पर बैठ कर गंगा के अवतरण के लिए तपस्या की थी. नदी किनारे भी हमने कुछ देर समय व्यतीत किया नदी का पानी बहुत ही ठंडा था फिर भी फोटो खींचने के लिए हमने उसमें खड़े होने का दुस्साहस किया. कुछ लोग नदी किनारे ध्यान लगा कर बैठे हुये थे. कुछ देर नदी किनारे समय व्यतीत कर हम सभी वापस हरसिल की ओर रवाना हो गए.

आधे रास्ते में छोड़ी बिन पेट्रोल की बाइक पर दूसरी बाइक से पेट्रोल निकाल कर पेट्रोल भर हरसिल की ओर चल पड़े. रास्ते में गंगनानी में हमने गर्म कुंड में स्नान का भी आनंद लिया जो की एक अलग ही अनुभव था. मौसम खराब होने के कारण थोड़ा ठंड हो रही थी पर कुंड के अंदर गर्म पानी में ठंड का कुछ पता ही नहीं चल रहा था. दिन भर की थकान कुंड में जाते ही छू-मंतर हो गयी थी. शाम हमने फिर नदी किनारे देवदार के जंगल में आनंद पूर्वक व्यतीत करी आज हवा पिछली शाम से कई ज्यादा थी.

रात में भोजन करने के बाद दिन-भर की गतिविधियों की फोटो देख और उन पर चर्चा कर हम सो गए. अगली सुबह नाश्ता कर हरसिल की वादियों को छोड़ हम अपने-अपने निवास स्थान की ओर चल पड़े.
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सचिन पाण्डेय

मूल रूप से अल्मोड़ा के रहने वाले सचिन जनपद आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, उत्तरकाशी में जीआईएस विशेषज्ञ के पद पर कार्यरत हैं.

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