प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा: सारा जमाना ले के साथ चले

पिछली कड़ी यहां पढ़ें: छिपलाकोट अन्तर्यात्रा: बेचैन बहारों को गुलजार हम करें

पिथौरागढ़ आते ही नैनीताल वाली आम आदत फिर से रूटीन पकड़ गई और ये थी शहर की परिक्रमा की. जिसे डोलीना कहा जाता. रोज की घूम-घाम जिसमें सभी से भेट-घाट हो जाती. रोजमर्रा के सुख-दुख बंटते. कई नये चेहरे दिखते जो नैनीताल की शाम को अपने आकर्षण से कई गीत गुनगुनाने को मजबूर कर देते. कई हिलोरेँ उठती और चप्पू खे रही अनगिनत नावों के आगे बढ़ने के साथ अनगिनत लहरें मन को तरंगित कर जातीं. शाम ढली नहीं कि जरा ठीक-ठाक बन निकल चलना है. दर्शन घर पर हाथ जोड़ने है. फिर कभी तल्ली ताल बाजार का एक चक्कर और कभी ठंडी सड़क में पाषाण देवी होते नंदा देवी मंदिर, तिब्बती बाजार की रौनक.
(Nainital Pithoragarh Memoir Mrigesh Pande)

नये-नये परिधान जो दिल्ली से अगले ही दिन इस बाजार में पहुँचते और माहौल रंगीन कर देते. न जाने कितनी दूरी तय कर अलमस्त से चेहरे इस गोलाकार फ्लैट की परिधि को अपनी नई नित नवेली छवि की रुमानी से उतनी ही तरगों में बदल देते में बदल देते जितनी झील में उतरती नाव हर चप्पू के साथ लहर छोड़तीं जातीं. ये वो झील थी जिसे मैंने कभी शांत न पाया. हमेशा मचलती और रंग भी बदलती.

रोजमर्रा आने वाले अधिकांश रूटीन से बंधे पहले सीधे नंदा देवी के दो अगल-बगल बने गेट में बंधे घंटे की टन्न कर प्रवेश करते. मामू की दुकान से प्रसाद भी खरीदा जाता और बतियाया जाता. गेट के दाईं ओर के नल से शुद्धि होती फिर सबसे पहले बजरंगबली के दर्शन और घी में सिंदूर मिले कटोरे का स्व-तिलक. आगे नंदा देवी जिसमें महेश पुजारी अपनी स्वाभाविक मुस्कान और धवल दंत पंक्ति के साथ पूजन अर्चन तो कराते ही, हालचाल भी पूछते. नंदा देवी की परिक्रमा होती फिर बगल में शिव जी के दर्शन होते. इसके दाएं बड़े से हॉल में दो मंदिर जिनमें किनारे वाले में राधाकिशन. दुर्गा पूजा में यही हाल बड़े से मंडप के साथ कलकत्ता की दशभुजा दुर्गा की मूर्ति से प्रतिष्ठित होता. नंदा देवी के ठीक सामने भी खुले में शिवजी विराजे होते. कोने पर मंदिर कमेटी का दफ्तर और उसके ठीक पीछे नंदादेवी मेले के समय में बलि स्थान. यहां कटरे भी कटते और अठवार भी होती. इस खच्च को बर्दास्त करना बड़ा मुश्किल होता खास कर तब जब गले में फूल माला पड़े बकरे के सर पर पानी छिड़का जाता और वह सर झटकाता जिसका मतलब कि वह बलि के लिए तैयार है. नंदा देवी मंदिर के ठीक सामने दूर पाषाण देवी दिखती तो मंदिर के बाईं तरफ गुरुद्वारा और ठीक पीछे मस्जिद.

मंदिर के गेट से बाहर निकलते ही उच्च उपभोग की वस्तुओं की कतार में लगी दुकानें सजी संवरी रहतीं. यह तिब्बती बाजार कहलाता. कुछ मेरे दोस्त भी थे इन दुकानों के मालिक, उनमें से कई ऐसे जिन्होंने चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत का व्यापार बंद हो जाने के बाद यहां एक दुकान की परिधि में अपने को व्यवस्थित किया वरना उनके बुजुर्ग तो यायावर व्यापारी रहे. ऊन के काम के शिल्पी, जड़ी बूटी के जानकार और खानपान में अलग सा ही स्वाद भर देने वाले.गर्मी में उन ऊँचे पहाड़ों में चढ़ अपनी खेती पाती सँभालते जहां उनके घर होते और अपने गांव के नाम पर ही उनका सरनेम होता. जाड़ों में फिर नीचे उतर घाटी वाले इलाकों में अपने कारबार में जुट जाना. व्यापार के लिए दर्रे पार कर सीमा से बाहर तो कई देश के भीतर छोटे बड़े शहरों में. इनमें कई कसबों शहरों में उनके पड़ाव होते. तरह तरह के खानपान जो बिल्कुल अलग से अनाज और सुगन्धित मसालों से बने होते. मुझे भी मोमो से लेकर बड़ी चटपटी चीजें और उनमें पड़ने वाले सॉस के चटकारे की आदत यहीं से पड़ी थी. इनके बीच में खुले में एक पंडितजी आ कर बैठते जो शुद्ध घी की टिक्की बनाते. हरे पत्ते के दोने में जिसमें हरे धनिये और पुदीने की चटनी होती पर स्टॉक लिमिटेड. एक अलग कंडी में काली मलका की घी में तली नमकीन जो मुंह में डालते ही गलने लगती. सीजन की हर शाम यह पूरा बाजार गुलों में रंग भरे वादे नौबहार चले गुनगुनाता.

खूब बारिश या जाड़े के मौसम में भी इनके परिवार के सभी सदस्यों के कार-बार चलते दिखते जो ज्यादातर ऊन के काम से जुड़े होते. कहीं गुलाबी से भोटिया मूंगे की माला गछते हाथ दिखते तो कहीं मोती की माला जिसे राइस पर्ल कहा जाता. मेरे लिए यह बड़ा आश्चर्य था कि कभी किसी के हाथ खाली न देखता. दोस्त लोग बताते कि वह तो चलते चलते ऊन कातते रहते हैं और तो और दो लोग आगे पीछे चलते कालीन तक बुन लेते हैं. तभी से इनके रहवासों तक जाने उन के घर देखने के लिए उन ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ने कि इच्छा मचलती रहती. ये भी सुनता कि ये मातृसत्तात्मक परिवार होते हैं जिसकी बानगी में मैं यह देखता कि तिब्बती और खम्पा बाजार की ज्यादातर दुकाने महिलाऐं और सुन्दर किशोरी, तरुणियाँ संभालती.

फिर कैपिटल सिनेमा के बगल में पार्क के ऊपर से गुरूद्वारे और नंदा देवी मंदिर की सीध से ऊपर नैनीताल क्लब तक यह बाजार पसरा होता अपनी-अलग सी रंगत और पहनावे के साथ.

इन दोनों बाज़ारों में मेरे कई सहपाठी भी थे जिनके साथ रहते उनके दूर दराज के इलाके और गांव घरों के बारे में में बहुत कुछ सुनता. रह-रह कर सीमांत के इन इलाकों में जा उसे नजदीक से देखने वहां घूमने-रहने की इच्छा मन में तरंग पैदा करती. सीमांत की अर्थव्यवस्था और उनके रहन सहन के बारे में पोस्ट ग्रेजुएशन करते करीब दस दिन तक वहां रहने का मौका भी मिला था. पिथौरागढ़ होते तवाघाट और फिर ऊपर खेला, पलपला तक और फिर दूसरी दिशा में तवाघाट से ऊपर नारायण आश्रम तक हो आया था. धारचूला से पुल पार कर दारचूला और काली नदी के किनारे बसे कई नेपाली गाँव देखे थे बेतड़ी अंचल के. फिर अल्मोड़ा में पढ़ाते जब तवाघाट आपदा आई थी तब कॉलेज की राष्ट्रीय सेवा योजना के प्रभारी और रसायन शास्त्र के प्रवक्ता व इनर्जी से भरे प्रकाश चंद्र पंत ने वहां जा राहत और बचाव की योजना बनाई. अल्मोड़ा में तब जिलाधिकारी मुकुल सनवाल थे. उन्हें यह बात पता चली जिला कार्यालय भी इसमें काफी राशन रसद जमा कर शामिल हो गया. फिर तो देखते ही देखते एनएसएस के छात्र छात्राओं ने शहर भर से ढेरों कपड़े-कम्बल राशन का ढेर लगा दिया. कॉलेज में शमशेर सिंह बिष्ट, पी सी तिवारी और प्रदीप टम्टा जैसे चटपट नेता थे जो इस दल में अगुआ बने. नैनीताल से गिरदा और शेखर पाठक आये.

 तवाघाट जा कर देखा कि पहाड़ जब नाराज होता है, बौल्या जाता तो जैसे अपना ही आंग काट देता है. पेड़ जड़ से उखड़ जाते हैं बोल्डर कितने गहरे जमीन में धंसे लुढ़कने लगते हैं. कितना कुछ दबा देता है. नदी के विकराल हो सब कुछ बहा देने की नीयत तो में श्रीनगर रहते अलखनन्दा के गुस्से में देख चुका था.राहत और बचाव के उस माहौल में खेला और पलपला की ओर देखा कि चोटियों के बीच बनी थोड़ी समतल जगहों पर जो कई सारे मकान हैं, गोठ हैं वह अभी भी धसने की प्रक्रिया में हैं. बारिश लगातार है. आई टी बी पी के कई बैरकों के कई शेड टूटे हैं. ऊपर पड़ी टीन की छतें मुड़ तुड़ गईं हैं. लोग बता रहे हैं तब तो नौ दस दिन लगातार बारिश के तहाड़े थे जिन्होंने रुकने का नाम ही न लिया. नीचे तवाघाट में ऊपर से आती काली नदी अपने पूरे उफान पर इतनी विकराल हो गई थी कि ऊपर बसे तीन चार मील आगे के गावों में रहने वाले मवासे उसका सुसाट भुभाट सुन रहे थे. भूमि में उठ रही हलचल से बदन पर हुए कंप से सिहर रहे थे.

पांच-छह दिन तो हम भी इस इलाके में चले रहे और एक दिन भी सूरज देखना नसीब न हुआ. तवाघाट से ऊपर की चोटियों को देखने के लिए सर पूरा उठाना पड़ता है और आगे चढ़ने के लिए पीठ झुकानी होती है. इसके आगे जो पूरा सीमांत फैला है आगे नेपाल हिमालय, हूण देश यानि तिब्बत और चीन तक वो अद्भुत रहस्य और रोमांच के साथ कैसे अपने आकर्षण से बांध सम्मोहत करता है उसे मैंने कई किताबों में पढ़ा और उन निवासियों से जाना जो यहीं के बहुत-बहुत दूर तक बिखरी बसासतों के बासिंदे थे. और यहाँ से अपनी रोजी रोटी के लिए आगे की पढ़ाई और कामधंधे के लिए उतर तो गये थे पर जिनके मन यहीं अपने गांव और उसकी विविध क्रियाओं में बसे हुए थे.

एमए अर्थशास्त्र की मौखिकी परीक्षा होने के दूसरे ही दिन मुझे मेरे बप्पा जी ने दिल्ली के लिए रवाना कर दिया. दिल्ली विश्व श्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में उनके मित्र जो थे, प्रोफेसर एम. डी. जोशी जो सायंकालीन सत्र में कोरेस्पोंडेंस कोर्स के मुखिया थे. वहां मेरे रहने-खाने की व्यवस्था भी तुरत-फुरत हो गई साझे में और जो मेरा साथी बना वो कलिंग पोंग का था. ठेठ पहाड़ी, नाम इतना लम्बा-चौड़ा कि कई दिन तक मुझे याद ही न हुआ. हॉस्टल में सभी उसे खड़कू कहते और वह अपने साँवले-सुतवां शरीर का हर पोर नचा सर पर पतले से बालों के घूँघर हिला पूरे खुले मुंह के बीच झाँकते झक्क सफेद दांतों की झलक दिखा बोलता, “नोमस्कार, भाले छ” उसके इस छ ने मुझे बांध लिया जिसमें उसका सारा पहाड़ीपन झाँकता. ये ‘मिर्ख खड़का डुव र्सेली’ उर्फ़ खड़कू भेटघाट के पहले दिन ही मुझे बता गया कि उसके खेतों में भरपूर अदरख होती है. डोले भर-भर नारंगी यानि संतरे जिन्हें वह ट्रक में लदवा सिलीगुड़ी के रेलवे स्टेशन तक छोड़ने जाता है. यहां से वो कलकत्ता जाते हैं और दिल्ली व उससे आगे पहुँच जाते हैं. उन्हीं संतरों का बना मामलेट उसने एक बड़ी सी कांच की शीशी से अपने हाथ से ही निकाल मेरे हाथ पर रख दिया और बोला,” खाओ. हमारा फ्रेंड शिप के नाम. हमारा मोम बनाया. बहुत सारा चीज बनाना जानता. शॉप भी वोई चलाता. हमको पढ़ लिख कुर्सी पर बैठने वाला मानुष बनाना चाहता. हमारा चार सिस्टर. सब अलग अलग शॉप चलाता.” यह भी एक संगति बनी कि उसकी भी पांच बहनें और मेरी भी.

“और बाबूजी यानि फादर तुम सही बोला उसको हम बाप्पा बोलता. हमारा बाप्पा बड़ा बहादुर. हमारा दादा भी अपना लहू आजादी की लड़ाई में डाला और बदमाश ब्रिटिश हुकूमत से फाइट किया. हमारा बाप्पा गोरखा रेजिमेंट में था. बोर्डर में मार दिया साला चीनी फौज ने एम्बुश पे.”

सायंकालीन कोर्स में डायरेक्ट पढ़ाने का कोई चांस न था. बस आये हुए असाइनमेंट चेक करो. बढ़िया रेफ़्रेन्स देख पाठ्यक्रम के हिसाब से नये नोट्स बना फोटो स्टेटकर विद्यार्थियों को भेज दो. उनके जवाब आएं तो जाँच करो नंबर दो और हेड साहिब जोशी जी के सिग्नेचर कराओ. इस बहाने यूनिवर्सिटी की विशाल लाइब्रेरी में धंसी इकोनॉमिक्स की अनगिनत किताबों की गंध सूंघने को मिली और सबसे बड़ी बात कि खड़कू के रूप में एक मास्टर मिला.

खड़कू को दिल्ली का चप्पा चप्पा मालूम था.समय भी काफी रहता हमारे पास. बस शाम चार बजे से नौ बजे की लिखत- पढ़त होती थी.उस पर शनिवार और इतुवार ऑफ. ये दोनों दिन प्रगति मैदान वाले रास्ते के होते जहां से सीधे शाकुंतलम और मंजर थिएटर के दौरे लगते. खड़कू पहले ही पता कर लेता कि कौन से नाटक कब हैं या कौन सी चुनी फ़िल्में हैं. ठीक वैसा ही चार्ट उसके पास होता जैसा नैनीताल में कैपिटल सिनेमा का, जहां अंग्रेजी फिल्मों का मंथली चार्ट पहले ही लग जाता, मेट्रो गोल्डन मेयर्स, कोलम्बिया की वितरित फिल्मों का काला ट्रंक दिन दोपहरी में तल्ली ताल बस स्टेशन के बगल में रेल रोड ऑफिस से भूर्रन मियां अपनी साइकिल में लादते निकलते. दुआ सलाम भी होती पूछा भी जाता. वो बताते भी, ” टॉप वाली है बस तीन दिन के लिए तो देख लिययो”. फिर अपनी आंख भी टपका देते. ये भूर्रन मियां मामूली हस्ती न थे वह हॉकी के जाने पहचाने सेंटर फॉरवर्ड भी थे. एक दम बिजली की तेजी से कब बॉल सटका गोल मारने को पास कर दें. दर्शकों की सांस थाम देते.

खड़कू ने चांदनी चौक दिखाई. रस्सी वाली गली तो परांठे वाली भी. कूचा सीताराम में क्या मिलता है और खारी बावली में क्या उसे सब मालूम रहता. हमारे हेड साहिब और भी कई लेक्चरर, लाइब्रेरियन यहां तक कि सुंदरी सफाई वाली भी उसे लिस्ट थमाती और मेरा यार खुशी खुशी माल लाद सबके स्टॉफ क्वाटर और घर की रसोई पर पहुँचाता. उसकी ईमानदारी किंग जॉर्ज के चांदी सिक्के जितनी खरी थी. और उसकी बंगला-नेपाली-हिंदी पर उसकी मजाक भी बनती और ऐसा नहीं, ऐसा बोल कह, उसके उच्चारण को पंजाबी-हरियाणवी और पुरबिया टोन भी दी जाती. अक्सर वह मुझे मास्टर मित्र सेन थापा के गीत सुनाता. ये मित्र सेन पच्चीस साल की उम्र तक फौज में रह रहे और फिर 1926 से ‘हिमालयन थिएट्रीकल कंपनी की बुनियाद डाल गीत संगीत, नाटक, साहित्य व समाज सुधार के कामों में जुट गये. वह बोलता कि, “मित्रसेन का जीवन यह सीख देता है कि ये जीवन तो तभी सुधरेगा जब अगम्य चोटियों, जंगलों, मरुभूमि से ले कर बर्फीले इलाकों तक अपनी मिट्टी की सलामती के लिए खून बहाने का जीवट हो, जज्बा हो. हमारी कौम के पुरखे यही सीख देते हैं दोस्त कि जिस औलाद ने देश-विदेश की खाक न छानी हो और जिस हथियार पर धार न चढ़ी हो वह किसी काम के नहीं होते.”

“देश नखाएको छोरो र पाइन नचढ़ेको हतियार लागडैन”

“क्या तुमने ख़्वाजा अहमद अब्बास की पिक्चर ‘इंकलाब’ देखी है”?

एक बार उसने मुझसे पूछा था. न, मैंने तो नहीं देखी. क्या था उसमें?

“उसमें जलियाँवाला बाग का सीन था जिसमें दिखाया गया था कि गोर्खाओं की राइफलें जमीन की ओर झुकी हुई हैं और निशस्त्र भीड़ पर ब्रिटिश सिपाहियों ने गोलियां चलाई थीं. ये ही क्यों जब 1814 में नेपाल युद्ध हुआ तब ब्रिटिश हुक्मरान ने खूब हिंदुस्तानी सिपाही भरे. गोर्खाओं की खिलाफत कर ब्रिटिश फौज को आर्थिक मदद देने वाला अर्जुननाथ था जो गुजरात से था. जब नेपाल पर विजय हुई तो सरकार ने उसे ‘खिलअत’ दी. गोरखों को मारने वाले अख्तर लोनी के सम्मान में कोलकत्ता में ‘अख्तर लोनी मानुमेन्ट बना जो आज ‘शहीद मीनार’ है. बलभद्र और अमर सिंह थापा का नाम लोग भूल गये. हमारे बहुत फेमस साइंटिस्ट हुए. जानता होगा तुम वो सर जगदीश चंद्र बोस को, उनका एक आर्टिकल पढ़ा था बांग्ला में, जिसमें उन्होंने लिखा था कि थापा और बलभद्र के शहीद होने की घटना फ्रीडम के लिए फाइट कर रहे लोगों में एक जोश जगाती.”

तुमको बांग्ला भी आती है? मैंने उससे पूछा.

“हाँ थोड़ा-थोड़ा हिंदी, थोड़ा-थोड़ा बांग्ला, थोड़ा नेपाली बस अंग्रेजी में लटकता है. यहां दिल्ली आया, अंग्रेजी सुधारेगा. अपने इलाके की इकॉनमी पर रिसर्च करेगा. जेएनयू में डॉ लामा हैं पोलिटिकल साइंस में उनने हमको रिसर्च का पूरा प्लान समझाया. यहां काम दिलाया. गोरखा का नाम ऊँचा करेगा. तुमको मालूम गोरखा कौम हिंदुस्तान से फिरंगी अंग्रेजों को भगा देने के लिए कितना सैक्रिफाइस किये. इनके बारे में पढ़ा कुछ?”

बस ऐसे ही थोड़ा बहुत. सब कहते कि गोर्खाली राज तो बड़ा ज़ालिम था.

“कुछ की छोड़ो जो एविडेंस है वो देखना पड़ेगा. फिरंगी को भगाने के लिए गोरखा 1814 से तैयार था. तुमको मालूम, उन्होंने पंजाब के राजा रणजीत सिंह तक को अपने साथ के लिए तैयार कर लिया था. पर ऐसा शक पैदा कर दिया गया कि अगर कंपनी बहादुर हटी तो कहीं उनको भगाने वाले गोरखा पंजाब को न हड़प लें. फिरंगी की तो जात व्यापारी की है, वो जीतेंगे, वैल्थ बनाएंगे और चले भी जायेंगे पर अगर गोरखा जीत गये तो फिर वो कहीं अपना इमपायर खड़ा न कर दें. फिर तो इनको हटाना भी पॉसिबल नहीं होगा “

खड़कू की छोटी चमकदार आंखे अवसाद से भरी दिखी. कुछ समय तक वह चुप रहा और फिर अपनी बात पूरी करते उसने अपना नाराज गुस्से से भरा वह रूप दिखाया जो मैं बस अभी देख रहा था.

“सिख राजा रणजीत सिंह के सामने जब ऐसे लॉजिक रखे गये कि ये गोरखा हमारे आँगन में पहुँच आखिर में कहीं पंजाब को ही न निगल दें. अब सोचो, अगर राजा रणजीत सिंह ने तभी गोरखों की बात समझी होती तो फिरंगी मुंह की खाते. उस बखत तो फिरंगी के पास न खूब पैसा था, न फौज और ना ही रसद. बस जिसके पास पैसा होता जीत उसी की होती.

गोर्खाओं से लड़ने के लिए फिरंगियों को खूब दौलत किसने दी जानते हो? गुजरात में सूरत के एक व्यापारी ने, जिसका नाम अर्जुन श्री नाथ था. जिससे फिरंगियों ने सिपाही भरती किये, राशन-रसद खरीदी और गोला-बारूद-तोप खरीदी. इससे उलट गोर्खाओं के पास उनकी खुकरी थी, जीत का मंसूबा था और उसका हर सिपाही योद्धा था जिनके भीतर आगे बढ़ते ही जाने और अपने प्राणों की परवाह न कर अपनी मातृभूमि को बचाने वाले वीर थे बलभद्र जैसे, अमर सिंह जैसे. तब भूटान ने नेपाल की मदद की तो सिक्किम फिरंगियों के साथ हो लिया.”

“गोरखा वह बहादुर कौम रही जो उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुवात तक पूरब में टिस्ता नदी के पश्चिम से ले कर सतलुज नदी तक फैला था. गोरखे प्रकृति के बीच उसकी दुर्गमता में जीने वाली कौम थी. ये इलाके पहले कई सारी बहुत सी छोटी-छोटी ठकुराइयों में बंटा था. ये गोरखा ही थे जिन्होंने ऐसी कोशिश की कि वह सभी ठकुराइयों को एक शासन और एक क्षेत्र के अधीन ले आएं. फिरंगियों की फूट डालो और राज करो की कूटनीति में धीरे -धीरे वह फँसते गये,पर लड़े. फिर 3 मार्च 1816 को नेपाल और ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच वह सन्धि हुई जिसकी नौ धाराएं थीं. जिसमें गंगा-जमुना का सारा उत्तरी इलाका और काली नदी से ले कर सतलुज नदी तक का सारा पहाड़ी और तराई का इलाका उन्हें अंग्रेजों को सौंपना पड़ा. नेपाल के हाथ से सिलिगुड़ी तराई, सिक्किम और दार्जिलिंग के पहाड़ तो पश्चिम से मसूरी, देहरादून, शिमला नैनीताल और अल्मोड़ा के कई हिस्से छोड़ने पड़े. तुम तो कुमाऊं से हो, जानते ही होगे कि गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह के पोते रण बहादुर शाह ने बोर्डर से निकलती काली नदी पार कर 1790 में कुमाऊं और अल्मोड़ा पर अपना अधिकार कर लिया था तो अगले ही साल 1791 में गोरखा सेना ने गढ़वाल पर हमला बोला. काजी अमर सिंह थापा सेना नायक थे और निरन्तर संघर्ष के बाद 1803 में गढ़वाल को अपने अधिकार में ले लिया.

ऊपर दूर पहाड़ी में उल्का देवी मंदिर का पीछे का हिस्सा अभी-अभी कोहरे के छटने के साथ साफ साफ दिखाई दे रहा था. मैंने कहीं पढ़ा था कि गोरखे उल्का देवी को अपनी अधिष्ठात्री मानते थे. गोरखा राज यहाँ पिथौरागढ़ में भी रहा.

अचानक ही बादलों से घिरी रुत ने तेज बारिश कर दी. कीचड़ से भर गई सड़क. ऊपर जाती पगडंडी पर चढ़ा तो लसलसी मिट्टी में जूते फंसने लगे. छाता भी नहीं लाया था. बारिश ने एकदम भिगा दिया. चश्मे से धुँधला दिखने लगा तो कोफ्त भी होने लगी. देखा कि और लोग आगे से दूसरे रास्ते को मुड़ रहे हैं. मैं भी उनके पीछे हो लिया. अब यह चढ़ाई पर जाने वाला खड़ंजे-पड़जे वाला बाटा था. जरा देर में ही पड़जे के नुकीले उभार वाले पत्थर जूते के सोल में चुभते महसूस हुए. ऐसा घूमना तो खाली थका दे रहा है. लगा कि टहलने के मामले में नैनीताल से बढ़ कर कोई दूसरी जगह नहीं या फिर अल्मोड़ा में कसार देवी. दीप के साथ जब यहां शाम को बाहर निकला तब तक मौसम बिल्कुल सही था. प्रणवानंद जी से भी मिलने की बात कही थी घनश्याम पुनेठा जी ने, पर चिमसियानौला तक पहुँचे ही थे कि फिर जोरदार बिजली कड़की.

“अब लगता है मौसम बिगड़ेगा ही लौट लेते हैं. कब तक भीगें, बारिश भी तो यहाँ एकदम आती है. वो बादल भी गरजने लगे हैं. मैं यहीं से नगरपालिका की ओर चढ़ घर लौटता हूं. अखबार कल ही लेंगे अब. तू इसी रास्ते लौट, बारिश तो आही गई है. कल मिलते हैं कॉलेज में. जल्दी आ जाना. “दीप बोला और मैंने हामी भरी. उसने मुझे गले लगाया और मैं वापस नीचे टकाना की और लौट गया. दीप ही था ऐसा जो हमेशा गले लगाता, अद्भुत था उसका स्पर्श. मुंह से सिग्रेट की महक भी आती थी.

टकाना अपने नये से घर में लौटा तो वहाँ मेरे सामान की ओवर रोलिंग हो चुकी थी. काफी कुछ व्यवस्थित. मेरा बिस्तर तखत पर था उस पर सफेद चादर और गाँधी आश्रम का रुई का तकिया, अपनी पसंद. बहन के साथ जुटी थीं बालकिशन पंडित जी की बहू और दो बच्चे. एक लड़का जो मेरी किताबें एक रैक में ठूंस रहा था और वहीँ बैठी उसकी बहन जो एक थाली में दराती से भिंडी काट रही थी. ओ मेरे मालिक, ये भिंडी कहीं गीली-गीली न बना दी जाय, वैसे भी भिंडी और पिनालू मुझे जरा भी पसंद नहीं.

“कहाँ कहाँ घूम आये पाण्डेजू, देख लिया पिथौरागढ़, अब तुम नैनीताल वाले हुए, क्या पसंद आएगा यहां? मुझे तो अभी तक सज नहीं आई हो यहां, बच्चे इतने बड़े हो गये तब भी अलमाड़ ही याद आता है.” वह एक सांस में बोल गईं.

ना ना, बढ़िया है. दीप के साथ निकला ही था कि बारिश आ गई.

“अरे, बारिस तो होती है यहां अचानचक,उप्पर से मच्छर बहुत हैं. अभी तो गोठ में मैंने गोबर जला रखा. थोड़ी देर में देखना साले भिन-भिन भी नहीं करते सीधे भैटते हैं आंग में, भेंसिया मच्छर हैं यहां बदजात. जहां भैटे सुजा देते हैं. तुम भी कछुआ बत्ती लाना भूल गई होगी हो.” उन्होंने बैणी से कहा और फिर तुरंत बोलीं, “मेरे वहाँ भी नहीं है.अब दाज्यू, तुम ऐसा करो कि फट्ट जिस रास्ते आये उसी पे पहली नरिया की दुकान है वहां सब अटरम बटरम मिलता है. जाओ और ले आओ कछुआ छाप. पैकेट देख के लाना. पुराना टूटा-टाटा माल का भी ढेर हुआ उसके वहां. खूब पकास करेगा और दो नंबरिया माल चिपकायेगा. अब तुम देखदाख के ले आओ, दो एक मोमबत्ती भी ले आना. उससे कहना एक रुपए की दो वाली सफेद वाली दे,नहीं तो इधर-उधर की भिड़ाएगा. लाइट बहुत जाती है यहां.” उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया. ठीक है कह मैंने बहन की ओर देखा वह मुस्का रही थी.

सीढ़ी से मैं उतरने लगा तो फिर उनकी आवाज सुनाई दी, “हो दाज्यू, संभल के जाना. बरखा पड़ी नहीं तो कच्यार में पाँव की घुप्प हुई यहां, देख के जाना, चश्मे वाले हुए तुम”. मैं और सावधान हो गया, अभी नीचे जल रहे काणे से बल्ब का उजाला दिख रहा था. मकान की बोण्डरी खतम होते ही जैसे ही में ऊपर की तरफ तेजी से मुड़ा तो अगले ही कदम पर फच्च हुई और पूरा जूता अंदर पानी में घुस गया. गज्ज-गज्ज होने लगी. लगता है गोबर मिट्टी सब होगा. भारी पैर लिए बढ़ते गया, सड़क के किनारे नाली में खूब पानी बह रहा था. मैंने भी एक-एक कर दोनों पाँव उसमें डोब दिए. कच्चपच्च सब धो दी. बाटा के साँभर वाले बूट की हो गई दुर्गति. दुकान तक पहुंचा, वहां काफी जमावड़ा था. अपनी बारी की प्रतीक्षा में एक कोने में खड़ा हो गया. तभी किसी गाहक को सामान दे नोट गिनते उस दुकानदार के हाथ मेरी ओर देख नमस्कार की मुद्रा में जुड़े और आवाज आई, “आओ पाने जू यहां बैठो. जोशजू ने बताया था कि आप भी यहीं कॉलेज में आप रहे हो”. मैं कुछ प्रतिक्रिया देता इससे पहले ही वो बोले, पड़ोसी हुए अब वो जोशजू, डीएम के स्टेनो हुए. बैठो हां. बस अभी देता हूँ. लो…”. उसने मेरी ओर विल्स फ़िल्टर का डब्बा आगे बढ़ाया जिसमें एक सिगरेट बाहर निकली हुई थी. अरे नहीं. मैं जरा सकुचा गया.” लो भी, ये बस निबटा दूँ”. अब हाथ में माचिस का डब्बा हिला उसने मुझे थमा दिया. फूक लगाते मैंने उस बड़े से बोर्ड को देखा जिस पर लिखा था ठाकुर नारायण सिंह अधिकारी, होलसेल और रिटेल, आपकी अपनी दुकान.

सिगरेट खतम करने तक मेरी समझ में आ गया था कि ठाकुर नारायण सिंह अधिकारी उर्फ़ नरदा ने आव भगत की सहजबुद्धि से अपना एक ग्राहक खींच लिया था. फिर पीछे कहीं से उसका एक छोटू प्रकट हुआ जिसने स्टील के गिलास में छलकती चाय बिल्कुल मेरे मुख के आगे कर कहा, ‘घर से बनी है, पकड़ो . मेरे हाथ ताती रहे हैं’.

खाना खाते बहन ने बताया कि प्रभारी प्राचार्य प्रोफेसर करन तो छुट्टी पर हैं अभी प्रिंसिपल इंचार्ज हमारे जूलॉजी के हेड हैं बाराकोटी सर. उसने पहले ही बताया था कि जब वह ज्वाइन करने पिथौरागढ़ कॉलेज आई थी तब उसे ले यहाँ एक हंगामा खड़ा किया गया था. उसकी वजह थीं मैडम जोशी जिनका इस महाविद्यालय से ट्रांसफर हो गया था जिसकी जगह वह आई थी. बहन ने बताया कि प्रोफेसर करन ने आदेश के अनुसार उसे ज्वाइन कराया तो लड़के प्रिंसिपल रूम में हल्ला-गुल्ला करने लगे. उसे तो डॉ दीक्षित सीधे जूलॉजी डिपार्टमेंट में ले आये. वहां उसके हेड बाराकोटी जी, डॉ दीक्षित, पी.सी. जोशी सभी डीएसबी नैनीताल में रह चुके थे. डिपार्टमेंट के सामने ही जूलॉजी लेक्चर थिएटर था. उसमें बीएससी की क्लास चलती थी. विभाग में आते ही चाय मिली. सबने पी. फिर बाराकोटी जी ने कहा चलो तुम्हारा इंट्रोडक्शन करवा दूँ तुम्हारे स्टूडेंट्स से. पर स्टूडेंट्स तो प्राचार्य के यहाँ हंगामा कर रहे. अरे ये सब क्रिएटेड है. तुम चलो क्लास में. बस यहां खूब पढ़ा दो फिर देखो कोई टेंशन नहीं. पता चला कि जिस जोशी मैडम का ट्रांसफर हुआ उसके महिला गुट ने छात्रों को भड़काया हंगामा वाले सब आर्ट्स वाले थे जिन्होंने इतनी मेज पटकी कि करन साहब का ब्लड प्रेशर गिरने लगा. उनको अस्पताल भी वही स्टूडेंट ले गये और जूलॉजी की क्लास चलती रही. ऐसे हंगामे अब खूब हैं. खन्ना साब के जमाने में चूँ तक नहीं होती थी. फिर कभी गोली कांड हुआ. कभी कुछ और. स्टॉफ में देशी पहाड़ी भी चल गया. अल्मोड़ा और लोकल भी. सबसे बढ़िया बात ये कि बच्चे तो क्लास में रेगुलर रहते हैं. खूब मेहनती भी.

तड़ातड़ बारिश के बाद अब मौसम एकदम ठंडा था. अपने रुई के तकिये में सर रखते ही नींद की आदत भी. सुबह देवी पाठ के मन्त्रों और फिर अविराम घंटी की टुनटुन से नींद टूटी. बालकिशन पंडित जी की पूजा पाठ का स्वर और गूगुल धूप की सुवास फैलती जा रही थी. बालकिशन जी से अभी भेंट न हुई थी उनके बारे में जो सुना था उसके हिसाब से वह कुनला पढ़ने के माहिर तो थे ही पूछ के भी पारंगत थे. पासे फेंक भी कुछ गणत करते थे. अब मिलूंगा तब जानूंगा. मुझे देवप्रयाग के ज्योतिषी पंडित चक्रधर जोशी का स्मरण हो आया और उनकी बात भी कि गणित वाला ज्योतिषी मिले तो पैर पकड़ लो पर फलित वाले को देख के तो नहा लो.

घड़ी देखी, पौने पांच बजे थे. मॉर्निंग वाक की आदत थी. सो फटाफट तैयार हुआ. बहन चाय ले आई थी. मुझे तैयार होता देख बोली उधर स्टेशन से ऊपर चढ़ रामलीला मैदान, नगरपालिका फिर घंटाकरण होते उल्का देवी तक चढ़ जाओ. कैमरा ले जाना. बारिश के बाद खूब साफ दिखतीं हैं चोटियां. तुम्हारी फोटोग्राफी के लिए तो यहाँ बहार है.

वाकई. घंटाकरण से ऊपर लक्ष्मीनारायण मंदिर के दूसरी ओर आसमां को छूती वह चोटी दिखी. मंदिर में धूप जला रही एक सयानी सी महिला से पूछा उस चोटी का नाम. असुरचुला. मैं उस चोटी के नामकरण के बारे में उससे कुछ पूछने ही वाला था कि उसने ही पूछ लिया, कौन हो, कहाँ से आये हो? अखबार-हगबार वाले हो क्या? जल्दी-जल्दी उसे सब बता मैंने वाइड लेंस असुरचुला चोटी को फोकस किया. उसे देखते मुझे रांची से दिखती लड़ियाकांटा की वह चोटी याद आ गई जिसको मन में बसाये मैं कई पहाड़ चढ़ चुका था. हर चोटी के सामने फिर अनेक अनेक परवत श्रृंखलाएं.

कई मौके मिले पहाड़ में चढ़ने के तो उससे ज्यादा छूटे. मन था असकोट-आराकोट जैसी पद यात्रा मैं शामिल होने का. तमाम गावों को पार करते लोगों से मिल उनके हाल जानने का. नई जानकारी मिलती. पर छुट्टियां इतनी कहाँ? प्राचार्य चाहे बिरला कॉलेज के श्रीवास्तव साहब हों या अल्मोड़ा के चौधरी सक्सेना, सरकारी नियम कानून और छुट्टी के मामले में बड़े सख्त थे. सरकारी नौकरी की यही सीमा थी उस पर इमरजेंसी के बाद तो कुछ छपाने पर भी पहले अनुमति लो. अजीब टंटे. जब से ये दोनों ही कॉलेज क्रमशः गढ़वाल और कुमाऊं विश्व विद्यालय के अधीन हुए नई भरती शुरू हुई और जो लोग आये उन्होंने किसी की परवाह भी न की. अल्मोड़ा वाले चौधरी जगदीश नारायण सक्सेना की तो साफ चेतावनी होती थी कि बिना परमिशन अगर किसी मैगजीन किसी पत्रिका में लेख वगैरह छपा तो यह सरकारी कोड एंड कंडक्ट के खिलाफ होगा. एक्शन भी तुरंत लिया जायेगा. अकेडमिक जर्नल्स में लिखा जा सकता है जिनमें हर लाइन के साथ चिपका कर वन, टू, थ्री लिखो फिर जहां से टीपा है उसका नाम, पता चिपका दो. इधर इमरजेंसी के बाद तो बड़े-बड़े कर्रे भी मौनी बाबा बन गये थे. अपना रुझान भी फोटोग्राफी की तरफ हो गया.

कमल जोशी के साथ दिल्ली में भटकने के बाद एस पॉल जैसे गुरू फोटोग्राफर मिले जो नेगेटिव देख फोटो बनवाते और कई जगह छपवा भी देते. वामा थी महिला पत्रिका और उसकी संपादक मृणाल पांडे. ट्रांसपेरेंसी का पूरा डब्बा रख लिया उनने टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के दफ्तर में और उसकी गाँव की औरतें, बच्चे, गोठ घर,पेड़ पहाड़ छपते रहे और मेरा रील का खर्चा निकलते रहा.

लक्ष्मी नारायण मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतर अब मैं चंडाक वाली सड़क पर था. मंदिर में भीतर उस महिला ने अपनी पूजा पाती कर मेरे कपाल पर भी पिठ्या लगा अक्षत चिपका दिए और तिकोनी सफेद मिश्री का डला मेरे हाथ में धर दिया जिसे मैंने फौरन मुँह में डाल लिया. कहीं हाथ चटचटे हो गये तो फोटो खींचने में दिक्कत होगी. “यहीं रहती हूँ लिंठयूड़ा में. उधर को आएगा तो घर आना हाँ. सूबेदार जू का घर पूछ लेना कोई भी बता देगा. वो लीलारामजी के घर के पल्ले हुआ. लुंठी हुए हम. मेरे नानतिन भी जै मरयांन कॉलेज. आना हां”. हाँ जरूर. जरूर आऊंगा. मन खुश हो गया.

आगे एक मोड़ कटा और ऊपर घंटियों की आवाज सुनाई दी. आगे चलते चढ़ाई कुछ और बढी. सामने दाईं तरफ वन विश्राम गृह का बोर्ड. उसके बगल में बड़े ही खूबसूरत हरे रंग से रंगे टिन की छत के क्वाटर. उनमें से एक मकान से एक अधेड़ से नाटे कद के गौर वरणीय सज्जन निकले. उनके हाथ में पूजा की थाली थी और वहीँ से वह ऊपर की ओर पगडंडी पर चढ़ गये. अब मंदिर का ध्वज दिखाई दे रहा था. मैंने भी कैमरे का पट्टा गले से हटा कंधे पर लटका लिया.

अब ठीक सामने उल्का देवी मंदिर था. उसके बाईं और छोटा मंदिर. सिंदूर से लिखा भी था भैरव मंदिर. दाईं तरफ पानी का नल जिसके पीछे सीमेंट की एक बड़ी सी टंकी बनी थी. जूता जुराब खोल,हाथ -पाँव धो मैं भी सीढ़ियां चढ़ गया. चारों ओर घंटियों से घिरा पत्थर की पटाल जड़ा अहाता. मंदिर के भीतर से देवी स्तुति के स्वर. सामने से उल्का देवी मंदिर को खींचा भीतर मंदिर, जलता हुआ बड़ा दिया साफ दिख रहा था उसके पीछे की ओर न जाने कितने लाल वस्त्रों के बीच पीले सुनहरे रंग के घाघरा पिछोड़ा पहनाई देवी की मूर्ति जिनके मस्तक में मुकुट था और ठीक ऊपर बड़ा सा चांदी का छत्र. मंदिर के द्वार और बाहर के चित्रकारी किये दो स्तम्भ जिन पर पीतल की घंटियां बँधी थी. मेरी नजर में यह एक बेहतर फ्रेम था.ऑटो फ़्लैश अपने आप ही खटक गई थी.

अब मैं मंदिर के भीतर आ गया. लकड़ी का पार्टीशन था जिसके दाएं कोने पर पुजारी जी चौखे पर आलती पालती लगाए थे. उनकी आँखें मुंदी थीं और दाएं हाथ का अंगूठा बाकी उँगलियों पर फिरता हुआ होठों की लयबद्ध थिरकन के साथ जप मुद्रा में थी. उनकी उंगलियां बड़ी गद्दीदार थीं तो शरीर भी भरापूरा. छह फीट से ज्यादा ही लम्बे भी होंगे. सर पर सफेद टोपी थी जिसके अगल-बगल से घने काले केशों के बीच से चांदी से तार झाँक रहे थे. बहुत चौड़ा माथा था और पांच रेखाओं के ऊपर अर्ध वृत सा बनाती दो रेखाएं भी साफ दिख रहीं थी. मैं उन्हें देख अभिभूत हुआ ही था कि उनकी पलकें उठीं और दाएं से बायें घूम गईं. हाथ देवी को नमस्कार की मुद्रा में आ गये. पंच पात्र की ओर इशारा कर उन्होंने आचमन का निर्देश दिया और फिर पूजा का संकल्प. पहले आये सज्जन का नाम गोत्र उन्हें मालूम था सो उनकी विधि पूरी कर उन्होंने हाथ में फूल रखा और मुझसे पूछा नाम, गोत्र. यह देवी पाठ का संकल्प था. पाठ तो वह तदन्तर करेंगे अभी आरती हुई जिससे पहले सिद्धकुंजिका स्त्रोत का पाठ हुआ. उनका उच्चारण बहुत ही स्पष्ट और वजनदार था. मुझे उस स्वर को सुन अपने बप्पा जी की याद आ गई. ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे के बाद के मन्त्र तो कई बार दिल में झन-झन कर देते थे.

जब से हाईस्कूल में गया तब से नियम बना दिया गया कि सुबह पांच से सात तक पढ़ाई होनी है और उससे पहले हाथ मुंह धो-धा के पहले अपने बप्पा जी की सेवा में बड़े गिलास में चाय प्रस्तुत कर दी जाए. फिर मैं दिया जला धूप जला प्राणायाम करुँ फिर शतनामप्रवक्षामि से आगे कीलक तक पाठ स स्वर पढ़ूं और उसका भाव भी जानूँ फिर आरती. अब जा कर चाय पी जा सकती है. मुझे तब महेश दा याद आते जो अपना तो पांच साल के लिए रूस चले गये और मेरे दिमाग में भर गये कि ये सब पूजा पाठ तो नशा है मार्क्स ने तभी कहा ये अफीम है लूट बाजार. कहीं पोप ने लूटा कहीं पादरी ने तो यहां ब्राह्मण ने, उस धर्मगुरु ने जिसे राजा ने अपने सर पर बैठाया. डर दिखाया कि अगर हमारी बात न मानी तो सर्वनाश होगा.

लोगों ने बताया कि उल्का देवी का यह मंदिर गोरखा राज में बना था जिनके जैसे अत्याचार पहाड़ के किसी राज में पहले हुए न थे उन्होंने तो बच्चों और औरतों को भी न छोड़ा. पर वह देवी भक्त थे. उल्का देवी भी उग्र देवी मानी गई. अब आरती हो चुकी थी और पुजारी जी के हाथ में बजती बड़ी सी घंटी के रुकते ही मेरे दिमाग़ की झन झन भी थम चुकी थी.

खड़कू फिर याद आ रहा था. वह यहाँ होता तो कितना खुश होता. पर उच्च पुलिस सेवा में जाने के बाद भी क्या उसमें कुछ बदलाव नहीं आये होंगे. चिट्ठियां तो वैसी ही तूफान भूचाल लाने वाली लिखता था. नाराज भी था कि में उसकी शादी में कालिम्पोँग नहीं पहुँच पाया.

“परिक्रमा कर लें पांडे जी”, पंडित जी का धीर गंभीर स्वर गूंजा. मैं पहले से आये सज्जन के पीछे लग लिया. दाएं घूमते ही पहले वह भैरव के छोटे मंदिर में रुके. उन्होंने धूप जलाई, दिए में तेल डाला. अंदर काली सी एक मूर्ति थी लोहे का त्रिशूल था. दाएं-बायें दीप थे. कोने में खिचड़ी चढ़ी थी. इस भैरव मंदिर के बगल में एक छोटा सा पेड़ था जिसमें गांठे पड़ी थीं उससे नीचे और कई पेड़ जो ढलान की तरफ थे और ठीक इसी जगह से पूरे एक अर्ध वृत में पिथौरागढ़ अपने असीम विस्तार में मेरे सामने था. दूर दिखती पर्वत श्रृंखलाओं के साथ चिपका हुआ नीला आसमान और कई जगहों से उभरता हुआ कोहरा. भैरव मंदिर से निकल अब वह सज्जन मंदिर की परिक्रमा करने लगे थे. मैं भी उनके पीछे हो लिया.

असीक में बेसन का लड्डू और सेव मिला. पंडित जी से उल्का देवी के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने पूछा कि तुम्हारी कुलदेवी कौन है. मैंने बताया ज्वालादेवी. पुरखे हिमाचल से आ अल्मोड़ा बसे. अब तो सभी कामधंधे के खातिर गांव से बाहर निकल गए हैं. गांव में ज्वाला देवी का मंदिर थापा है. “ज्वाला उग्र देवी हुई ऐसे ही तारा और उल्का भी उग्र देवी हुईं. अब यहाँ मिले शिलालेख बताते हैं कि सं 1790 में श्री 5 राणा सरकार नेपाल ने सोर घाटी में किला, नौला और मंदिर बनाया था. पहले ये देवी स्थान भाटकोट में था. वहां देवी की पूजा आराधना में विघ्न पड़े तो उल्का माता को गढ़ी के समीप प्रतिष्ठित कर दिया गया. यहाँ सेरा गांव में मेहता राठ रहने वाली हुई, उनके पुरखों को स्वप्न हुआ, आदेश हुआ तभी इस ऊँचे स्थल में मंदिर की स्थापना हुई. मेहता राठ के कुल पुरोहित पुनेठा हुए जो तब से यहाँ विधिवत पूजन सम्बन्धी कर्मकांड करते आ रहे हैं. पहले यहाँ नरबलि की बात भी कही जाती है गोरखा राज हुआ पहले. अब तो बलि और अष्ट बलि ही होती है जब मन की इच्छा माता उल्का पूरी कर दे तो बलिदान भी होता है और घंटी ध्वज निशान भी चढ़ते हैं. अष्ट्मी के दिन यहाँ खूब भीड़ हो जाती है दूर दराज से लोग आते हैं. इधर पल्ले तरफ धर्मशाला भी बनी है”.

“शक्ति की कृपा हुई यहाँ शिव के साथ. अभी यहाँ मंदिर आते घंटाकरण का मंदिर देखा होगा. वहां स्वयंभू शिवलिंग है. शिव जी वहां ‘घंटेश्वर महादेव’ के नाम से जाने जाते हैं. वहीँ बाहर भगवती माता हुईं तो भैरव, हनुमान और नंदी भी. पारिजात का पेड़ भी. उसके फूल कोई नहीं तोड़ता. बस जो गिर गए वही टीप कर चढ़ते हैं. अब देखोगे कि नवरात्री में और खास कर पुण्युं के दिन जब चैतोल का डोला उठता है तो यहाँ उल्का देवी में माता का अवतार हो जाता है, चैतोल में तो विशाल मेला लगने वाला हुआ जिसमें खास कर तीन डोले आते हैं. ये जो लिंठुड़ा का डोला हुआ वो भगवती का प्रतीक हुआ तो चैंसर और जाखनी से जो डोले आये वो भाई के स्वरुप हुए जो अपनी बहन से मिलने घंटाकरण आते हैं. ये ऐसा मंदिर हुआ जहाँ बाइस गांवों की चैतोल आती है. घंटाकरण मंदिर बनाने उसकी देखरेख में कैप्टन उमेद सिंह लुंठी का बड़ा पराक्रम हुआ, वहीँ लिंठयूङा के हुए. अब जब भी कभी वहां जाओगे तो आनंद बल्लभ जोशी से मिलना, वहां पुजारी हुए, पास में ही चिमसिया नौला में रहते हैं वैसे हुए गणाइ गंगोली के”.

“घंटाकरण से ऊपर आते जीजीआईसी का बोर्ड देखा होगा तुमने, पहले वहां गोरखों का किला था जिसको गढ़ी कहते थे वहां डेढ़ सौ से ज्यादा सैनिक रह सकते थे. उनकी कवायद परेड खेत में होती थी जहाँ अब देव सिंह खेल का मैदान है वहां पानी की व्यवस्था एक नौले से होती थी जिसे कोत का नौला कहते थे. कोत का मतलब हुआ हथियार. अभी जहाँ सोल्जर बोर्ड है वहीँ हुआ कोत का नौला. बहुत पहले की बात है 1881 से 1883 की जब यहाँ थर्ड गोरखा कंपनी आयी थी और उसका बसेरा उसी कोत के नौले के पास हुआ”. मुझे अपने झोले से नोटबुक में लिखता देख वह बड़े खुश से लग रहे थे.

“अब इस उल्का देवी मंदिर से आगे ये जो दिगतोली का रास्ता है उस पर आगे छह सात मील आगे मोष्टा देवता के मंदिर जाना. उनको इंद्र का पुत्र माना जाता है. उस मंदिर के बाहर माता का हिंडोला है. हिंडोला का मतलब समझते हो, झूला हुआ. भादों यानि सितम्बर में ऋषिपंचमी को माता का डोला निकलता है जिसकी शुरुवात यहीं के गांव खुक्देव गांव से होती है. जागर भी होता है और बलि भी. ये बलि महाकाली के लिए हुई. बलि के समय मोष्टादेव दूधाधारी पंचदेव पर पर्दा डाल दिया जाता है. मोस्ट द्यापता को रोज एका बखत खीर, पूड़ी दूध चढ़ता है. अब जब बारिश नहीं हो तो मोष्ट मानु में यज्ञ करवाते हैं. पूरे छह पट्टी सोर से सारे इलाके के पंडित आते हैं. तीन दिन के यज्ञ हवन से मोस्टा खुश हो जाते हैं. बारिश हो जाती है. मोष्टा के पुजारी ढुङ्गा के हुए बकरकटिया. वहां जाओगे तो पूछना कि मोष्टा के संबंध और स्थानीय द्यापताओं लाटा से, बाला से, पशुवा से और सबकी मैय्या महाकाली से कैसे हैं ?

अभी कल ही स्टेशन के पास शिव मंदिर गया था. वह भी बहुत प्राचीन हुआ ना? मैंने पूछा.

“हाँ ,बताते हैं कि सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी में अस्कोट के रजवार खड्ग पाल सिंह ने पुराणी बाजार में नौले के पास इसे स्थापित किया. वहां पितरोटा गांव से लायी लक्ष्मी नारायण की मूर्ति स्थापित है. देखना अब ध्यान से, उसमें नारायण के जो वहां हैं गरुड़, वो मनुष्य रूप में हैं. अब जजमान, सोर घाटी में छः-सात मील गोल घूम जाओ तो कई पुराने गुफा मंदिर मिलेंगे. नकुलेश्वर हुआ, फिर अर्जुनेश्वर, थरकोट, बलकोट, दिंगास, घुसरा और कौशल्या देवी का मंदिर जो आपके कॉलेज से नीचे जीआईसी के मल्ली ओर पड़ता है. सुकौली से एक मील पहले. भगवन राम की माता हुईं कौशल्या, कहते हैं कि यहीं इसी स्थान पर उन्होंने शिव की तपस्या की. वहां एक शिला है उसी को कौशल्या देवी मान कर पूजा जाता है. वहां जाना और देखना हरगौरी. वहीँ का पाषाण हुआ जिस पर हरे रंग का लेप है. पेड़ के साथ आदमी का भी अंकन. शिब जी के जटा-जूट देखोगे जो जूड़े से बंधे हैं. शिब-पारबती को मुकुट भी पहना रखा. दोनों के कानों में कर्णफूल जैसे गोल सिक्का. शिब जू के हाथ में रुद्राक्ष की माला जैसे जाप कर रहे शिब जी के दोनों पैरों में झांवर भी. उन्हीं के बाएं पैर में पार्वती माता आसन लगा कर विराजमान हैं.”

“कौशल्या देवी मंदिर देखोगे जब, तो ध्यान देना वहां शीर्ष कमल का टुकड़ा है. जाते ही दरवाजे के बायीं ओर प्रस्तर प्रतिमाएं हैं. भीतर महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा जो चौदहवीं शती की बताई जाती है. चतुर्भुजी वैष्णव मूर्ति है जिसके हाथ में चक्र पीछे की तरफ है, सामने छोटा मंडप लिंग है जिसे शैवमत वाला कहा जाता है. सूर्य की भी मूर्ति है जिसके प्रभा मंडल से सूरज की किरणें फूटतीं हैं तो दोनों हाथों में कमल के फूल. सबसे ज्यादा ध्यान जायेगा किन्नर मिथुन की मूर्ति पर जिसका चेहरा अंडाकार है, सुतवां लम्बी नाख, बाहर की और उभरे होंठ, पतली कमर, उभरे हुए वक्ष. किन्नर के गले में सुत्ता है, जैसा यहाँ अस्कोट के देवल दरबार की मूर्तियों में भी दिखता है. गदा के ऊपर पंछी जैसा उड़ता किन्नर. इसी से लगता है कि सोर, सिरा और अस्कोट में यक्ष पूजा पहले से होती रही. ये जाख, जाखणी तो जाख पुरान में हैं. इन्हें अब गांव के देबता के रूप में भी पूजा गया. यही जख यक्ष हुए जिनको गों भर का रक्षक समझा गया. अभी जिस घंटाकर्ण के मंदिर की बात हो रही थी तो, वो और घड़ियाल भी बहुमानित यक्ष हैं. कौशल्या देवी मंदिर के पास दो-दो धारे भी हैं. गर्मी में एकदम ठंडा पानी. इनको ‘महादेव का पानी’ कह लो”.   

मंदिर में पूजा हेतु कुछ औरतें हाथ में क्रोशिये और वस्त्र से ढकी थाली ले कर सीढ़ियां चढ़तीं दिखायीं दीं. “बड़ा अच्छा लगा तुम से मिल के, आते रहोगे अब” कह पंडित जी उठ खड़े हुए. साथ बैठे सज्जन भी जो इस वार्तालाप के बीच मौन थे. क्या मालूम कुछ ध्यान व्यान या जाप कर रहे हों. सीढ़ियों से नीचे खोले जूते पहनने को मैं उठा ही था कि उन्होंने पूछ ही लिया, “नये आये लग रहे हो. खूब फोटो खींच रहे हो. लगते तो पहाड़ के ही हो पिथौरागढ़ घूमने आये होंगे”? मैंने बताया अपने बारे में तो वह बड़े खुश हुए. मुझसे बोले, “मैं पंत हूँ, यहीं बीडीओ. कॉलेज में मेरा लड़का पढ़ता है अनिल, छोटी लड़की है जीजीआईसी से इस साल इंटर हो जाएगी. चलो, यहीं पर रहता हूँ, सरकारी आवास है. अब तुम तो रिश्तेदारी में ही निकल आये”.

चलिए, आता हूँ कह मैं उनसे पूछ बैठा कि ये जो सोर घाटी यहां से दिखाई दे रही, जरा उसके बारे में मुझे बताइये. “हां, हां, अभी जूता मत पहनो फिर, आओ” कह वह मंदिर के बाईं तरफ की ओर चलने लगे वो देखो नीचे जो हिस्सा दिख रहा वो रई का इलाका है. उन पहाड़ियों पर जो इसकी बाईं तरफ हैं उनमें अभी कोहरे की पर्त है, नहीं तो पंचचूली दिखती, और भी कई जगहों से दिखती है यह पर्वत श्रृंखला अपने पूरे आकार में “अब मंदिर की दाईं ओर परिक्रमा करते भैरव मंदिर से पीछे की पहाड़ियों की ओर इशारा कर उन्होंने बताया उधर फ़ौजी इलाका है. केंद्रीय विद्यालय भी उधर ही है. नैनी सैनी भी. इधर पंडा फार्म हुआ. अब ये ठीक सामने जो फील्ड देख रहो हो ध्यान से देखो दो हैं, जो नीचे थोड़ा सा दिख रहा वह इंटर कॉलेज है और दूसरे फील्ड के ऊपर है तुम्हारा कॉलेज. उसके ऊपर ही बजेठी है. कॉलेज के पीछे जो पहाड़ी है वह टॉप के बाद नीचे उतर कर बिषाड़ गाँव जाती है. अब ये और दाएं देखो वो मेग्नेसाइट फैक्ट्री. बहुत बढ़िया अव्वल दर्जे का मेग्नेसाइट मिलता है पिथौरागढ़ में, आगे देवलथल में भी है. काफी रोजगार की गुंजाइश रखता है ये. इस फैक्ट्री के ऊपर चँडाक की पहाड़ी लिपरोसी मिसन है वहां. तुमको तो में देख रहा फोटो का बड़ा शौक है इतना बड़ा लटका रखा है तो चंडाक से खींचना सोर घाटी को. चंडाक से आगे मोस्टमानु का मंदिर है. चंडिका देवी है. पंचचूली अपनी पूरी श्रृंखला में दिखती है, छिपलाकोट तक फैली हुई नेपाल हिमालय तक”.

ये छिपलाकोट? इसके बारे में बहुत सुना है. “अरे, शिव आवास हुआ सब. सब नहीं पहुँच पाते उधर, आदि कैलाश है, ॐ पर्वत है. कैलास मानसरोवर है जहां अभी तो यात्रा चीन युद्ध के बाद इधर से बंद है”.

स्वामी प्रणवानंद जी तो कई बार गये हैं.

“अरे, वो तो सिद्ध योगी हैं. पिथौरागढ़ में ही हैं आज कल.”

हां, मेरे कक्का जी भी उन्हें जानते हैं.

“क्या नाम हुआ तुम्हारे कक्का जी का”?

जी, मथुरा दत्त पांडे,

“अरे, वो नैनीताल वाले डीएफओ साब. अच्छा! इसका मतलब तुम हरदा के लड़के हुए. तुम्हारी बहन हुई गंगोत्री, अनिल को पढ़ाती है कॉलेज में.”

पंत जी गदगद हो गये. फारेस्ट रेस्ट हाउस के बगल में उनका घर भी आ गया. खूब फूल, गमलों में हरी घास, बरामदे में अगल-बगल पेड़. एक पेड़ तो निम्बू से लदा हुआ था. पंय्या का पेड़ जिसकी पत्तियों के बीच छोटे छोटे लाल दाने लटक रहे थे. पंय्या रांची में भी खूब था. इसके पके बीज चूस गुठली की थू करने में बड़ा मजा आता था. एक बार तो में इसके छोटे से पेड़ से गिर भी गया था जिसके पल्ले तरफ सिसूण का झाड़ था.

 “बैठिये पांडे जी” मुझे बेंत की कुर्सी पर बैठने का इशारा कर पंत जी ने धाल लगायी, “अनिल, बाहर आओ”. पर्दा सरका वह भीतर चले गये. मैंने देखा पांच सात फोटो खींचने की अभी गुंजाइश थी. नींबू का लदा पेड़, पंय्या, स्याँली का झाड़ खूब गदराया भाँग का बोट और इनके पीछे ढाल दार छत का पंत जी का मकान. आस-पास के फूल और बेलें. मैं लेंस धुमा फ्रेम बना ही रहा था कि फ्रॉक पहने एक किशोरी दरवाजे पर आई और मुझे देख कुछ सिमट सी गई.एक हवा का झोंका आया और उसके बाल उसके आधे चेहरे को ढक गये. क्लिक.. क्लिक.

कैमरा नीचे कर आगे कुर्सी की ओर बढ़ा तो देखा कि उसकी वक्र सी निगाह मेरी तरफ है. नौजवान था. खूब घने बाल, गोल सा चेहरा जिस पर वर्गा कार जबड़े.सांवला रंग और आगे बढ़ते हुए चाल में एक हल्की सी लचक.

“ये हमारे साहिबजादे हैं, अनिल. बीएससी फाइनल में हैं अभी. कितना कहा पीएमटी दो, न हमारी कौन सुनता है”? परदा हटाते पंत जी बाहर आ रहे थे.

“मुझे नहीं बनना डॉक्टर! कितने डॉक्टरों को दिखा चुके आप मेरा पाँव. रोज की पूजा में क्या मांगते हैं आप? सब बकवास? खट से बात पलट एकदम से चेहरा शांत कर वह मुझसे बोला, ‘जरा सर, अपना कैमरा दिखाइए. निकोन है एसअलआर. टेली फोटो लेंस. पापा, मैं आपसे यही कहता रहा हूँ कि मुझे ऐसा कैमरा चाहिए, आप हो कि धारचूला से वो सडियल याशिका लाने की बात करते हो.”

मेरा कैमरा कोई छू भी दे तो मेरे तन बदन में किचिर-बिचिर हो जाती पर ये क्या हुआ कि अभी वह अनिल के हाथ में है और उसके चेहरे पर इतनी खुशी कि उसका मुंह उत्सुकता से खुलता जा रहा और बड़ी खूबसूरत दंत पंक्ति अलग सी चमक रही. कैमरा देखते उसके चेहरे का तनाव अचानक ही कहीं तिरोहित लगा. आंखों में अलग सी चमक उभर गई. बड़ी सावधानी और नजाकत से थामा उसने कैमरा.

“अब पता नहीं क्या करना चाहता है ये. कभी घंटो बैठ के लिखता रहता है. अपना सब्जेक्ट थोड़ी, जिसके नोट्स बन रहे हो. वो तो रबिश सी कुछ लाइनें होंगी जिसे ये मॉडर्न पोएट्री कहते हैं, कभी सडियल सी कहानी. भड़ेँ ती के भी बड़े शौक़ीन है जिसे ये नाटक कहते हैं”.

“आप तो पापा बिना देखे, बिना पढ़े ही बता देते हैं कि मैंने क्या लिखा. अपनी फाइल तो चश्मा पोछ-पोछ कर पढ़ते हैं, गुर्राते हैं कि मेरी फाइलों पर हाथ भी न लगाना. और फिर मेरी डायरी मेरी कॉपी आप छू भी कैसे लेते हैं?”

“देखो अनिल, अब तुम…”

लो, तुम बाप बेटों का महाभारत सुबह से ही? अब कौन समझाये इन्हें कि घर को पागल खाना.. लीजिये चाय”. सफेद कप में आई चाय. ऐसे कप ऐसे मग मुझे बड़े भाते थे. नैनीताल ग्रांड होटल में पांडे जी ऐसे ही कप में चाय पिलाते थे. चाय की रंगत और स्वाद ही बदला लगता था ऐसे कप में.

अनिल बड़ी देर तक कैमरे को अपनी आँखों से लगाए उस खुले बरामदे से बाहर जा घूमता रहा. अभी वाइड लेंस लगा था जिसे घुमा घुमा वह बड़ा तरंगित दिखता. उसकी अम्मा मुझसे बहुत कुछ पूछ रही थी. वह कहीं से हमारे रिश्तेदार भी हो रहे थे. उनकी बुआ की लड़की हमारे ग्वालियर वाले कक्का जी, दस दिनी बिरादर… मेरी हाँ हूँ होती रही. ये सारा माया जाल मेरे बस का था भी नहीं.

मैं चाय पी चुका था. अब अनिल ने बड़ी नफासत से कैमरे का पट्टा अपने कंधे से उतार मुझे दिया और कहा, “उस चोटी को खींचिये सर. वो देखिये उसे. वह असुरचुला है. खूबसूरत हिमालय तो सब खींच लेते हैं जो सुन्दर है वह तो बढ़िया आएगा ही. बस इन्हें बेच बड़े फोटोग्राफर बन जाते हैं. आप असुरचुला चोटी खींचिये सर. मैं चढ़ा हूं वहां.

कितना मना किया लोगों ने, इन घरवालों ने, कि तू मत जा उधर नहीं चढ़ पायेगा. पोलियो से पतली हुई एक टांग से भी, मैं चढ़ ही गया. वो देखिये, ठीक सामने वो जो है चोटी उसका शिखर. वहां चढ़ पूरी गोलाई में दिखती है ये सोर घाटी. आइये, इसे खींचने की बेस्ट जगह दिखाता हूँ मैं आपको.

वाकई. अगर स्टैंड लाया होता तो एक बटा पंद्रा, एक बटा तीस पर बत्तीस अपर्चर पर खींचता इसे. खींचूंगा स्टैंड के साथ भी. मैंने दो फोटो खींची एक पूरे वाइड व्यू के साथ अठारह एमएम में और दूसरी दो सौ एमएम में. फिर एक फोटो अनिल को आगे कर ऐसे साइड पोज में जैसे वह असुरचुला के टॉप पर जाने की सोच रहा हो.

अब तो रोल भी खतम था. यहाँ रील कहाँ मिलेगी? पूरा डब्बा इलफोर्ड का. फोर हंड्रेड एएसए?

मिलेगी सर, फोटो श्री वाले पंत जी के यहां. यहां के बेस्ट फोटोग्राफर. पहले लखनऊ में था उनका स्टूडियो. पहाड़ प्रेम में यहां सिनेमालाइन में खोल दिया फोटो श्री. उनका लड़का भी है कुक्कू, गजब क्रिएटिव. और हाँ, वीनस वाला जोशी पहले दिल्ली रहा कई साल. अब यहीं अपने पापा की दुकान संवार दी है. वो सब रखता है कोडक का कागज, केमिकल. आप जो भी चाहेंगे दिल्ली से मंगा भी देता है. प्रिंट भी बनवा देता है दिल्ली मिडास से. आप जब फुर्सत में होंगे तो आपको ले चलूँगा फोटो श्री में, कुक्कू तो घूमने का भी खूब शौक़ीन है. अपनी शॉप में इंलार्जेमेंट बनाएगा बस फिर चल देगा कैमरा लटका के. आप बहुत पसंद करेंगे उसे. रोलीफ्लेक्स, रोलिकॉर्ड और हजलब्लेड भी है उसके पास जर्मन”.

 “एक बात बताइये, आपने ये निकोंन कब लिया? दिल्ली से लिया होगा”.

नहीं, नैनीताल से ही लिया था. साल से ज्यादा हो गया है. मेरे बप्पाजी की अचानक डेथ हो गई थी. नौकरी से रिटायर होने वाले थे और मुझसे कहते थे, देखना मैं कभी रिटायर नहीं हूंगा ठीक थे भले चँगे बस रिटायरमेंट से चार दिन पहले रात आराम से खाना खाया. फिर शाल ओढ़ मुंह में पान डाल किताब खोल पढ़ते रहेl रात एक बजे ईजा ने देखा कि लाइट जली है कमरे में और वो किताब पर झुके हैं. अब सो जाओ कह उठाने लगी तब पता चला कि वो तो बैठे-बैठे ही अनंत की सवारी पर गये. दिसंबर की ठंड थी पर कई महीनों से रम लगानी भी छोड़ रखी थी.

उनके जाने के बाद बड़ा डिस्टर्ब हो गया था मैं. कैमरा तो था मेरे पास भारी सा, रूसी कैमरा. मेरे बड़े भाई रूस से लाये थे पर अब उस पर हाथ लगाने को मेरा मन न करता था. मेरे कक्काजी बैठे थे क्रिया में. घर में लोगों की भीड़ रहती. सब अपनी तरफ से दुख के घाव, जलन और खुजली पर ज़ालिम लोशन लगाते. आगे की रणनीतियाँ तैयार करते. वो भी सोचते होंगे पांच बहनें तीन लड़के सभी बाइस साल से नीचे. कैसे चलेगा? न जमीन,न जायदाद. रेंट कण्ट्रोल का मकान. आठ बच्चों में छह तो अभी पढ़ाई ही पूरी करने में लगे हैं.

बस अपने खास दोस्त थे जो बांधे रखते. उनमें कमल जोशी के पास था कैनन कैमरा जिसे वह हर बखत लटकाये रखता. पर गुण निकोंन के गाता था. बप्पाजी के जाने के तीसरे दिन तक मुझे लगने लगा कि ये माहौल ये लोगों की सतही दिखावटी बातें मेरे भीतर बहुत कुछ खोखला कर रहीं हैं. हाथ और सोच को कुछ नया चाहिए जो अचानक आये इस गैप को भरे तो. सोच-विचार तो में ज्यादा करता नहीं बस लगा कि मुझे नया एसएलआर कैमरा चाहिए. कमल से कहा, मुझे भी निकोंन चाहिए. जिद कर दी. उसने मुंडी हिलाई और लटियाते हुए बताया कि उसके डिपार्टमेंट में पूना से एक रिसर्च स्कालर आया है उसके हेड डॉ पाठक के पास. उसे रिफर किया है उसके गाइड ने. उसके पास है कैमरा, साढ़े तीन हजार में बेचना चाह रहा है. कुछ मुसीबत में आ गया लगता है. यहीं स्लीपी हॉलो में रुका है. अब तू ले ही डाल, ऐसी बॉडी आसानी से नहीं मिलती पीतल की. साथ में दो सौ एमएम का टेलीफोटो लेंस, नार्मल व वाइड एंगल तो हुआ ही. निकॉर्मेट एफ टी टू.

तुरंत मैंने कमल को नोट थमाए और ये निकोंन मेरा बना. इसने बड़ा सहारा दिया मुझे. मैं तो बड़ा अनस्टेबल टाइप हूँ. दिमाग में खचर-बचर होती रहती है. मेरे हाथ में जब से ये आया तब से ये न जाने मेरी कितनी चिंता गला चुका है.

कैमरे के लेंस का ढक्कन बंद करते मैंने देखा कि अभी उसका रील इंडिकेटर पेंतीस पर है यानि दो फोटो की गुंजाइश है खींच तान कर अभी. चलो एक फोटो तुम्हारी उस चोटी के साथ खींचू, फिर तुम मेरी खींचना. मैंने अनिल से कहा. पेड़ों के बीच से झाँकती असुरचुला की चोटी और उसे गर्दन उठा कर देखता अनिल. उसकी आँखों में पीछे से आई धूप की किरण पड़ रही थी और थोड़ा खुले होंठ. सामने का एक जरा सा टूटा नुकीला सा दाँत और हां,मुस्कान के साथ गाल में पड़ रहा हल्का सा गड्ढा. अस्त व्यस्त बालों को हवा रह-रह कर उड़ा रही थी. क्लिक- क्लिक. ये फोटो हार्ड पेपर पर इंलार्ज करूँगा. ज्यादा हाइड्रोक्विनिन के साथ.

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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