Featured

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी

हम अब उस तिकोने से पहाड़ के शीर्ष पर हैं जिसके तीन ओर इससे भी ऊँची पर्वत श्रेणियाँ हैं. इन्हीं में समाहित है छिपला केदार. भगवती बाबू सूरज की ओर हाथ जोड़ खड़े हैं.जिसका रंग लालिमा के साथ सुनहरा और देखते ही देखते पीला हो अचानक ही चौड़ी पट्टी की तरह फैली नीली बसंती चुनरी में बदल गया है.कुहासे की धीमी सी पर्त मेरे चश्मे के लेंस में सिमट गई लग रही है. अनायास ही चीना रेंज की याद आ गई है. मेरे सामने दूर तक फैला लड़िया कांटा का पहाड़ है, जिसके बीच में वही तिकोनी सी चोटी है जिस पर जाने को जिस पर चढ़ने को जहां पहुँचने को मैं कितना मचलता था . जब भी उस चोटी पर नजर पड़ती बस कैसे पहुंचूं की सनक सी सवार होती. कितनी बार कहा दिलीप से मुझे ले चल उस पहाड़ तक,तो वह कभी कहता अभी छोटे हो कुन्ना बाबू, वहां चढ़ना तो दूर दस कदम चल थक जाओगे.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“तो गोद में उठा लेना, काने में चढ़ा लेना”. दिलीप कंधे को काने कहता था. मुझे याद है.

“ऐसे बोक के थोड़ी चढ़ते हैं पहाड़, पहाड़ चढ़ने को पों मजबूत होने चाहिए”. वह फिर बहाना मारता.

“अब बड़े होगे तो पों भी मजबूत होंगे तब चलेंगे हाँ”. ये ‘काने’, ‘पौँ’ जैसे बोल सुन बप्पाजी बड़ा नाराज होते ईजा पर, कि हर बखत ये घर के बाहर डोलता रहता है. गँवाडियों जैसी भाषा चढ़ा गया है जबान पे. फिर महेश दा, दिनेश दा को हुक्म होता कि मेरी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दें. अब ये कैसी शामत महेश दा तो जोड़ घटाने की विद्या में झापड़ ज्यादा रसीद करते, हाँ दिनेश दा खूब कहानी किस्से सुना पढ़ाते और गीत भी गुनगुनाते. ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहां कोई न हो…

ऐसी जगह तो वह चोटी ही हो सकती थी जो चीना रेंज के उस फारेस्ट वाले घर से दिखाई देती. कभी हरियाली से भरी दमकती कभी कोहरे की लपेट में आई झिलमिल और जाडों में तो बर्फ से ढकी, बादलों से घिरी. वह लड़िया कांटा की चोटी.

वह चोटी जिस पर चढ़ने के खयाल से ही मुझे ऐसा लगता कि मेरी सारी सुस्ती गायब हो गई है जो हर बार तब पैदा होती रहती जब कहा जाता कि पढ़ो, ये क्या चिल्लपोंमचा रखी चुप बैठो. बाहर बारिश पड़ रही वहां कहाँ जा रहा? शाम हो गई चलो भीतर. हर समय घूमना डोलीना, और भाई बहिन भी यही सीख रहे. ये सब बड़े लोग पता नहीं घर के अंदर कैसे खुश रहते हैं. हर समय बस घर के भीतर घुसे रहो. मजा तो बाहर है. मैं भी खूब दिमाग लगाता. माया दी फूलों में पानी दे रही होतीं तो में उनके हाथ से मग्गा ले लेता. फिर तो मैंने डब्बे के तले में दिन भर लग कील से खूब छेद बना दिए. हथोड़ी जरा भारी थी, कई बार मेरी उँगलियों में भी पड़ी. नीला निशान भी हुआ, दर्द भी होना ही था, पर मैं चुप्प रहा . जरा भी किसी को बताता कि फिर डांठ खाता. दिलीप ताड़ गया चुपचाप मेरे हाथ में कोई हरी पत्ती का रस निचोड़ कर लगा गया. बोला स्याँली है दर्द खींच लेती है.दिलीप और काम में बड़ा चुस्त पर घुमाने के मामले में बेकार था.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

धनसिंह था सही जिसने मुझे चीना रेंज में खूब घुमाया था. जब भी पेड़ों में छपाई होती. चीड़ के पेड़ में लिसा निकालने के लिए तिकोना सा शंकु जैसा डिब्बा लगाना होता. भरे डब्बे के लिसे को कंटर में उल्टा जाता तो ऐसे मौकों में वह मुझे ले ही चलता. कई बार घोड़े पर भी बैठाता जिसका नाम मोती था. चीना रेंज में खच्चर भी थे जिनके बहुत सारे शेड काफी नीचे बने थे. उन पर टिन की छत थी और उन छतों के ऊपर अक्सर घास के पूले डले होते. ये सब जानवरों के काम आती. कक्का जी को भी गाय पालने का खूब शौक था सो हमारे यहां भी दो गाएं तो हमेशा दिखती. उनके छोटे बछड़ों से खेलने में खूब मजा आता.मैं जब भी उनके पास जाता तो वह भी जैसे खुश हो अपने कान हिलाने लगते. अब धन सिंह वन विभाग से रिटायर हो पिथौरागढ़ भुरमुणी में बस गया था. उसको मैंने बताया भी था कि छिपला जा रहा, चल. बड़ी खुशी दिखाई उसने. मुझे बताया कि छोटे थे तब भी खूब घूमते थे.वही शौक अब भी घुमा रहा है. मेरी भी मन होती है पर क्या करूँ घुने बेकार हो गये. पाओं में नसों के गुच्छे हो गये अब. वो आपके कहने से तो गया था डॉ मेहरोत्रा के पास उन्होंने तो बताया कि पीठ की हड्डी में नुक्स है, गांठ जैसी कुछ.. अब दवा खाओ लम्बे समय और वजन भी मत उठाना. आप जाओ खूब पहाड़ चढ़ो. आज कितने साल बाद उस छिपला केदार की ओर बढ़ते चीना रेंज का घर, लड़िया कांटा की चोटी और पहाड़ चढ़ने की अपनी बेकरारी याद आ रही है.

यहां अब हम इतनी ऊंचाई पर चढ़ आये हैं जहां अणवालों की बसासत है. सामने ही कई खेड़े हैं कुछ ऊपर और कुछ नीची जगह पर बनी झोपड़ियाँ. शाम हो चली है. झोपड़ियों के आगे आग जली है. दूर से कहीं भेड़ बकरियों की मेंss-में का स्वर पास आता सुनाई दे रहा है. साथ ही कुत्तों के भोंकने की आवाज तेज होती जा रही है . इस पहाड़ी से नीचे दूर तक बहुत दूर तक धरती और आकाश के बीच कुहासे की झिलमिल सी परत नजर आ रही है. बनकोटी जी नीचे की ओर अपने हाथ के इशारे से बता रहे हैं – वह देखिये. धारचूला से पहले पड़ने वाले स्थान कालिका का शिखर व ऊपरी हिस्सा वह रहा. अब थोड़ा फरक के ये वाला हिस्सा धारचूला जाने वाले कनार से हो गुजरता है जहाँ खूब फैला जंगल है . अब जरा नजर घुमाइए तो दाएं हाथ हुआ नेपाल का इलाका और दूर पसरी हुई सोर घाटी. बस उससे लगी असकोट और डीडीहाट की छटा का अंदाज भी लगता है. अभी शाम है हवा में धुंध भी है थोड़ी. सुबह अगर चट्ट धूप खिले तो सब साफ चिताई देगा .यहां से करीब पांच सौ फिट नीचे की ओर धार में दाईं ओर भैमण की गुफा है. भैमण का उडयार इतना गहरा है और खूब जगह वाला है कि भेड़ बकरियों का पूरा रेवड़ उसमें समा जाए. उसको कल सुबे दिखाएंगे आपको”.

सामने झोपड़ियों से निकल कुछ लोग हमारी तरफ आ रहे हैं. आगे आगे दो कुत्ते भी जो अपने मालिक से कुछ कदम आगे हमें देख भोंक रहे और फिर पीछे मुड़ जैसे उनसे कह रहे कि इतना स्वागत काफी है अभी के लिए?

“आ रे आ ss!कैसा है रे संकरू? ले आ गए तेरे पौण ले के. खबर बात भेज दी थी तुझे,और कैसा है तू?”
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“मालिको. सब्ब इशरौ किरपा ईष्टो क गैल छ. आपणी विधा भैss. आंगे कि उज भै”.

“औsर पै. आज यो नई गवैसुत डाल राखी त्विले. साला ठुल ठोंकण वाल भै तू. नई ढाँटि तनि लि आ छे?” संकरू को हड़काने के बाद बनकोटी जी मुझसे ऐसे बोले जैसे बड़ी भेद की बात बता रहे हों, ” अब आपको बताऊँ प्रोफ़ेसर साब कितने झटयल हुए इस संकरू के”.

“ये झटयल क्या हुए”? मैंने पूछा.

“बिना लगन के औलाद हुई झटयल . हर बरस एक दो तो निकाल ही देता है”.

“अब ज्यादा नङग्योई नि करो हो रेंजर साब”. भगवती बाबू ने नड़क लगाई.

संकरू मुस्काया. अपने हाथ जमीन तक ले जा फिर हमारी ओर जोड़ बोला, “बिडॉव तो नि पड़ी हो? इतु हिट बेर आछा”?

“अब ल्वात्त नि पड़ रै त तू पैल धारेकि नि चखाले के?”

“किले नीं मालिकों. पैली यो बोनलि में हाथ खुट ध्वे लियो पै. बिछूण बिछी छ. भेटो. फिर चखला कुकुड़ी. उ ले इफरात में छ. ला रे चनरू गिलास धर. तात पाणी धर. मुख के देखनोछै तू”?

संकरू के तमाम असिस्टेंट यानी लगुए-भगुवों से परिचय हुआ. चनरू जो फुरती से गिलट के बड़े गिलासों में कितली से पानी डाल रहा था. हरिया जो फूस के गद्दे के ऊपर दन बिछा चुका था और तीसरा बलुआ जो हम सब का पिट्ठू बैग करीने से रख रहा था.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“ये मुसईयों जैसे गिलास कहाँ से ले आया रे तू. हट मेरे को मत देना इनमें पानी- वानी हाँ”. भगवती बाबू उन गिलासों को देख कुपित हुए.

“हाँsरे. अपने भगवत डिअर को गड़ुए में दे देना पानीये भी बड़ा काम आता है मुसईयों के “.रैंजर साब ने चौका मारा.

चनरू तुरंत भीतर के कमरे में घुसा,जहाँ से खाने की खुशबू आ रही थी.रसोई से तुरंत ही स्टील का गिलास ले आया. चनरू के बाहर आने के बाद भी भीतर से कुछ खनकने की आवाज आती रही व मंद -मंद स्वर भी.

“ये जो कौन लुका रखे रे तूने”?

“मालिकों,अब र्रवाट बनाने खाना पकाने के वास्ते तो चाइये ही ठेरी जनानी “. संकरू मुस्काया.उसके भूरे पड़ी दंतपंक्ति चमकी “हाँsहाँ,तेरे और भी काम ठेरे. कितनी हैं”?

“बेजोड़ हुईं, मल्लब तीन ही हुईं”.

“लोs तो डिअर भगवत,तुम जाओ भीतर, अपनी संध्या- पूजा कर आओ. यहां तो हम पापी हैं बैठे,खाने -पिने -चखने वाले”.

तमतम मुख किये भगवती बाबू बाहर चले गए. दिशा मैदान के वास्ते हाथ में मग्गा पकड़. थोड़ी ही देर में साँझ घिर आई. कान में जनेऊ डाले भगवत बाबू लौट आये. “उधर चलो होs जहाँ झिकडे जले हैं. सुङर,बाग,भालु हुए ही यहां. रात अधरात कुकुरों का भी ट्याँ- ट्याँ टिटाट हुआ”. भगवती बाबू के पीछे बनकोटी जी को छोड़ सब चले.मैं कैमरे की धूल पोछने के बाद डायरी लिखने बैठ गया. खाना खाने के बाद तो फिर लिखना हो नहीं पाता. अभी मौका सही है.

“गंज्याड़ का रसा पियोगे सैबो?”. संकरू ने रेंजर साब से पूछा. “तू शाsले खुद खा कुकुड़ी. हमें दे सिंडालु-ग्वाड़. हट्टs ला वो कड़क माल”

“ल्यो हो. खास गुच्छी डाल भबकाई है. खाप तो लगाओ”.

“पानी-वानी मत डालना मेरे में. प्रोफेसर साबों के में डालना कुनकुना कर. इनको आदत जो नहीं हुई”. सामने भाप छोड़ता गिलास था. भीतर जा लटपट सा खुश्बूदार कुकुड़ी का व्यंजन बड़ी थाली में रख दिया. लालटेन भी रख दी उसके चेले ने. कमरे के ठीक बीच में दो बड़े पाथरों के ऊपर लोहे का तसला रख उस पर बराबर फड़ी लकड़ी सजा दी गई. अब संकरू भीतर रिस्या से छिलुके जला के लाया और लकड़ी के बीच में रख दी.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“जा त चनरू, उ धूपॉक डाब ला”.

उसका चेला फिर गया. भीतर कुछ चूड़ियाँ सी छनकीं. ढप्प-डुप्प हुई और एक काला पड़ा डब्बा ले चनरू आया और खड़ा हो गया.

“मुखतिर नी रौ, ऐक मुट्ठी आगेsन में खित साला”. चनरू ने लपट उठती लकड़ी में डिब्बा खोल कुछ मोरपँखी की पत्ती जैसी मुट्ठी में ली और हाथ घूमा आग में डाली. मादक सी खुशबू फैली. धूप हुई ये, यहां बहुत खुशबू वाली पत्तियाँ हुईं प्रोफेसर साब. केदारपत्ती जैसी धूप भी मिलती है.

“थोड़ी मुझे भी देना. ईजा खुश हो जाएगी”. दीप ने अनुरोध किया “अ! ऐक पुंतुरा बांध दूंगा आपूं के लिए”. संकरू हाथ जोड़ बोला.

“पूंतुरे तो बाद में बांधना तू. क्यूँ रे संकरू. तू शाले पहले ये बता, भितर रसोई में कितनी चूड़ियाँ खनक रहीं”. बड़ा सा घूंट स्टील के ग्लास में भर बनकोटी जी ने आंख टपका के पूछा. तुरंत ही मेरी ओर देख बोले, “अरे आचमन जैसा क्या कर रहे हो आप. गटक जाओ खट्ट. असली सोम रस हुआ ये. आपको मालूम है वेदों में जिस सोमरस का जिक्र है वह खुम्ब की कुछ खास प्रजातियों से तैयार किया जाता था. बॉटनी के दो रिसर्चर हुए बटलर और बिसबी इन्होने 1969 में खुम्ब पर की अपने रिसर्च पेपर में बताया ये. अब सुनो रोम के एक धार्मिक ग्रंथ में खुम्ब को ईश्वर का भोजन माना गया. अब ये संकरू साला तो कीड़ा जड़ी भी मिला देता है माल में. खुम्ब यहां भी खूब मिलते हैं तो ऊपर के बुग्यालों में कीड़ा जड़ी. आगे प्रोफेसर साब, कीड़ा जड़ी मिलती है. आधा ग्राम चबा जाओ कोरी फिर ये सोमरस गटक लो फिर देखो कैसा टन्न करती है बदन. आपकी शादी हो गई”?

“नाs”

“और ये दीप बाबू की”?

“उसकी भी नहीं हुई. ईजा-बाबू ढूंढ रहे, कहीं नाड़ी भेद हो रहा किसी में खड़कास्टक”.

“ओsहो! गुण और योनि का विचार भी जरुरी है प्रोफेसर साब. कुकुर बिलाव योग हो गया तो कोई जड़ी काम नहीं करती. शनि और चंद्र भी साथ नहीं होने चाहिए औरत के चिन्ह में. साला विषयोग हो जाता है. हर समय की कच कच हुई. “

“आपको तो लगता है ज्योतिष का बड़ा ग्यान है”. दीप बोला.

“अरे मैं तो कुच्छ नहीं. नैनीताल मनोरा रेंज में जब फारेस्ट में लगा तो सिपाहीधारे के पास, बस जेल के नीचे कमरे में रहता था लोहनी जी के क्वाटर में. वो पतरोल हुए बड़े होशियार. गांठे से थे. लोगों ने उनका नाम रखा ठेरा गुजकीड़ा. पूजा पाठ भी कराते. तंत्र मन्त्र भी जानते. कई सैणीयों के झांके तो मेरे सामने शांत किये उन्होंने, त्रिपुण्ड में छारा घसोड़ के. अब पंडित हुए पूजा पाठी में मुझे भी ले जाते. दान के थैले पुटके मैं ही लाता घर तक. उनके घर खाने पिने की कोई कमी ना हुई. आपके चचा चीना रेंज में हुए. आपके घर भी आया हूँ में लोहनज्यू के साथ बहुत बार. पूजा भी कराई है लोहन ज्यू ने. जब आपके चचा की दो लड़कियां हुईं तो पतरोल लोहन जु ने रेंजर साब से कहा था कि घोड़ाखाल में पूजा कराओ. बलि भी चढ़ेगी. तब होगा लड़का. हाँ, सरिता और ममता के बाद प्रमोद हुआ था. मेरे साथ तो रहता है पिथौरागढ़. चचा ने वहीं भेज दिया पढ़ने को”.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“अरे मुझे मालूम है. हमीरपुर में थे साब जब इस लौंडे ने तलय्या के किनारे फायर झोंक दी थी साब की दुनाली से. पत रह गयी जो छर्रे वाला कारतूस था उस ओर जो उस लौंडे की टांग में लगा. दूसरा कारतूस तो एल जी वाला था. तभी रातों रात दिलीप सिंह उनका चपरासी उसे रातों रात ले आया था लखनऊ शास्त्री जी की बड़ी बेटी के यहां जिनके हस्बैंड पंत जी पुलिस के बड़े अफसर हुए . शास्त्री जी की छोटी बेटी तो हुईं आपकी चाची. डंडईया में सब्जी मार्केट के पीछे जमीन भी ली थी साब ने”. संकरू के आसव से वह खूब बौलिने लगे.

“तो फिर प्रोफेसर साब, अब क्या हाल हैं अपने साब के नवाबजादे प्रमोद के”. उन्होंने पूछा. “वहां ठीक है. वो है तो बड़ा इंटेलीजेंट. जीप चलाना उसी ने सिखाया मुझे. मेरे साथ बहिन भी हुई गंगोत्री वहीं कॉलेज में है जुलॉजी में. उसकी शादी भी तय हो गयी है. वहीं डॉक्टर हैं त्रिपाठी जी.”

“अरे में जानता हूं पंडित शिब दत्त त्रिपाठी जी की फैमिली को. ये सालम गांव के हुए. छै बेटे हुए उनके एक बेटी हैं सब सेटल्ड”. बोलते बोलते उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे में रख दिया. जरा चुप हुए, फिर और गहरा घूंट गटक बोले, “आप सब निभा लोगे. आपके पिता ने बड़ा उपकार किया है लोगों का. वही फलता है. कॉलेज में हुए तो वैसे ही संस्कार हुए अब पुलिस फारेस्ट में तो साफ कहूं प्रोफेसर साब पैसा तो बहुत है पर हाय भी उतनी ही है. खाना पीना भी ज्यादा ही होता है. कुछ ही लोग बचे रहते हैं. अब जोशी जी को देखो कंसरवेटर साब को बेदाग हैं कड़क और ईमानदार. सरकार में बड़ी पूछ है. अब मेरा तो ट्रांसफर जब सहसपुर हुआ तो एन के सिंह जैसा हरामी अफसर मिला. साले ने लाखों के पेड़ गिराये. कोठियाँ सजाइं और जब इन्क्वायरी हुई तो गाज पड़ी ए सी एफ साब,पर मुझ पर. वो तो तुला का शनि है मेरा जो न्याय देता है सो बच गया. बड़े साब से विनती करी कि साब पहाड़ भेज दो अपने को कोई प्रमोशन नहीं चाहिए. ईमान से काम हो ऐसी जगह चाहिए. अब यहां कोई टंटा नहीं. बाल बच्चे घरवाली अल्मोड़ा हैं जाखनदेवी वाले अपने घर में. ईजा बाबू हैं. लोहन जू ने ही चिन्ह मिलाया मेरा पूरे अठाइस गुण. घरवाली तो बड़ी गुणी है. मैं तो ऐसा ही सनकी मुंहफट हुआ. पर वो समझती है मैं क्या हूँ.अरे संकरुवे तू क्या मुँह खोले सुन रहा. दिख नी रा कि गिलास खाली है भर इसे.

आप बता रहे थे कि खुम्ब पड़ती है इस जाण मैं. हाँ. बलमा जड़ी सब गला गुलु देती है भबके के लिए. ये जो खुम्ब है न प्रोफेसर साब ये पौष्ट भी हुई स्वाद भी हुआ, औषधि गुण भी हुए इसमें. हाथ आपस में रगड़ते दीप आया. आते ही आग के पास पंसी गया. सोबन, कुण्डल और फिर सब. सबके पीछे भगवती बाबू. एक कोने जा उन्होंने पैंट उतारी और बंदर पैजामा के ऊपर झोले से निकाल पीली घोती पहन ली. “ले होss रे संकरू. इनके ग्लास बनवा. सबसे पहले भगवत बाबू को दे फटाक से”.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“नाहो ना मैं नहीं”

अब ये नाना मत करो गुरु. वो सुनो जिससे ये बनी उसके बारे में चरक संहिता में लिखा है कि,


सर्प छत्रक वजर्यास्तु बहव्योन्यास्छत्र जातय:

शीता पीनस करत्यसस्च् मथुरा गुर्बय एवं च.

“इसे फिर बोलिये और अर्थ भी बताइये. मैं नोट कर रहा हूँ जरा धीरे बोलिएगा हाँ”. “हाँ. हाँ. आप लिखिए. भगवत बाबू ध्यान से सुनो और गुनो

सर्प छत्रक यानी खुम्ब को छोड़ अन्य सभी खुम्ब रस में मीठे गुणों से भरे और शुक्राणुओं में शीत बल कारक होते हैं.

“तुम खाओ हो! पियो भी इससे बना. मैं तो बामण हुआ मैं नहीं खाता ये च्ययूँ फूँ”. भगवती बाबू ने अपने झोले से लाल वस्त्र में बँधी पुटली खोल उसमें रखी सत्यनारायण की मूर्ति एक कोने में जरा ऊपर रखी और दिया निकाल एक पौवे में भरा तेल निकाल बत्ती डाली. धूप जलाई.

“जै हो द्यापता”. बनकोटी जी ने दीप पंत का गिलास फुल कर उसमें अपनी उंगली डाल छीँटे उधर की ओर मारे जहां दिया जल चुका था. उधर जनेऊ हाथ में लपेट भगवती बाबू जप करने की तैयारी में थे.

“लोss! वहां बँधी जनेऊ हाथ में तो आई इस ठुल धोती बामण के . बताऊँ भगवत जी. संध्या पूजा भीतर के कमरे में करते तो बहुत कुछ मिलता “.उनका इशारा रसोई की ओर था. “लो हो दीप बाबू. तू भी ले कुण्डल. जो मिले खाओ जो बने रस-वह घुटकाओ”. ये नहीं वो नहीं के चक्र से उबर जाओ”. बनकोटी जी तरंग में थे.

“हाँ हो हाँ हम भैर भैट रहे यहां तो धुर्मान्न हो रही.” कुण्डल बाहर खिसका.

पीछे पीछे सोबन भी बाकी सब भी. एक के ऊपर एक गिलास चढ़ा, बड़ा मग और भीतर से आई महकती थाली भी बाहर गई.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“अरे. भगवत बाबू के लिए तरुड़ उबाल देना हो पधानियो. कुकड़ी वाला डाढू मत छुवा देना. छूत छात का भी परहेज करते हैं अपने गुरूजी”. जोर लगा अपनी बात कह बनकोटी जी की आंख हमें देख फिर टपकी .

“कुकड़ी तो गज़ब बनाई है हो. कहां का रस टपका दिया है तेरी पधानियों ने”.

“एक फायर में पांच सात टपकी फिर एक ढूंढ-ढाँढ अपना झप्रू ले आया”.

“साssले ये तो बता किसने बनाई? आन कान न कर. इतनी रसक्याव इतनी क्योँव बनी हैं कि बनाने वाली के हाथ चूम लूँ वाली हौस हो रही . तेरा शुक्र तो साले बड़े उच्च स्थान में होगा. कितनों की करी ये भी याद नहीं होगी इस साssले को. अब बताता क्यूँ नहीं, मौणियां क्यूँ गया? बड़ा मशिण है ये, मलक्योंण में माहिर”.

“अरे गुसांईं. इतने वार-पार फरक दिन-रात बाकरों को हाँक अपनी ठौर लौटो तो कोई पाणि पूछने वाली, र्रवाट फुलाने वाली हूण चें कि नी? अठरा की उमर में विधो हो गई. घरवाला किसी झगडे फसाद में खुकरी से हन्या दिया बैरी ने. इनको छोर मुया कर गया. अधाई पर खेती करने वाले कुनबे के साथ पुल पार कर आ गई जौलजीबी. बजांग वाले उस पदम राज ने मुझसे कहा कोई इसके लिए ग्वाल गुसें ढूंढना हो मालिक तो मेरे खेड़े चली आई. साथ इसकी बेणी भी है.मिने भी मालिको गवेसूत पहना दिया.”

“तू साले अध बुड़े .आते ही देख लिया मैंने आंगड़ी सूख रही थी बाहर. भोटि भी थी न बाहर? अंगवाल भेट का पूरा अपणयाट होगा यहां. अच्छा बता चिचाट करती है? तू भ्ही रे हरामी! चिचोड़ने में माहिर हुआ. खूब चिड़चिड़ाट मचाए होंगे? चुलबुलान होगी क्यों? और वो दूसरी चिहड़ी कैसी है? वो भी चमकिल होगी? वो चुड़ छनक रहे भीतर .

ये अटाई पै तो पांव अमड़की गया मेरा रे ss,फुटि खरक गया. ला भर गिलास. अब थोड़ा कुनकुना पानी भी खित दे. ये खुटाणी सीधे करता हूँ रे. पाँव साला गुड़मुड़ हो गया.. तो वो है कैसी? गोर फरांग होगी घाघरि वाली?तू तो पूरी आठ लेने वाला हुआ. तेरी भी छुनरी पै घात पड़ी होगी”? रेंजर साब सुरबुत्त थे.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“घ्हौल डाले आलु लाऊं थोड़े. कुड़कुड़े हो रे. जखि डलवा के ल्याता हूँ”. संकरू ने निवेदन किया.

“हमें आलु खिला अपना साला पुरि चाण चितौण कर बैठ. पूरे ध्याँग देख लाया होगा? झपाव के सोता होगा? समझे प्रोफेसर साब”?

“मैं तो इतनी पहाड़ी समझ कहाँ पाता हूँ. हाँ ये ग्लास के गरम पानी और आपकी बातों के रस में मैं डायरी तो लिखना भूल ही गया”.

“रस तो ये ले रहा. बता भी नहीं रहा स्साला, क्यो रे संकरू. इस साले के पास लाखों की बकरी हैं. बकरवाल आते हैं किन्नौर चम्बा -मंडी हिमाचल से तो उनसे भी खरीदता है ये हर बार पांच सौ हजार”.

“बाँट भी तो ला. सूखा बहुत हो गया. ठुल ब्याव में ला. ये बरोंस भी जरा मेरी तरफ रख. भीतर भड़ेन आ रही? तला तो नहीं पकड़ गया भड्डू का मीट”.

हड़बड़या संकरू छानि की रिश्या में घुसा हड़बड़ाया. बनकोटी जी ने उसे भागते देख फिर अपनी आंख टपकाई और बोले,”सिरतान अंणवाल हुए ये.”

“सिरतान अंणवाल क्या हुआ”?

“अपनी जोती जमीन पर मालिकाना हक मिल गया इन्हें जमींदारी सिस्टम के हटने के बाद. तब से कइयों ने अपनी दशा बहुत सुधार ली. ये तो भोटियाओं के कारिंदे हुए जिन्होंने इन्हें रुपया ढेपुआ मजूरी दी तो साथ ही जैसे-जैसे पुराने पड़ते गए अपने साथ उठ बैठ की हैसियत दी. आयु के हिसाब से सम्मान दिया. मालिक और नौकर के बीच खाने-रहने के बीच कोई भेद-भाव न किया. अणवालों के आदमी बुग्यालों में मालिकों की भेड़ों के साथ कुत्ते सहित लम्बे समय तक डेरा डालते. उनकी चराई के साथ समय-समय पर उनका ऊन निकालते. ऊन की ढ़ेरियों का ढुलान करते. उनकी औरतें और बच्चे मालिक लोगों की जमीन पर खेतीबाड़ी दुधारू जानवरों की सार संभार करते. करीब दस साल की चाकरी-सेवा के बाद भोटिया मालिक अपने नौकर अणवालों को भेड़-बकरियों और भेड़ों पर माल लादने वाले थेलों जिन्हें करबच कहते, के साथ बर्तन भांडो का न केवल आधा हिस्सा देते बल्कि अपनी खेती की जमीन का एक हिस्सा ‘सिरतानी’ में भी दे देते. इससे अणवालों को आजीविका का अवसर और हिस्सा तो मिला ही तो अपने मालिकों को उसने सिरती के रूप में खेतीबाड़ी से हुई फसल का आधा हिस्सा भी दिया इसीलिए ये ‘सिरतान’ कहे गए. फिर जमींदारी प्रथा खतम हुई तो इनको भूमिधारी का हक मिला.”
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

हाथ में प्लेट पकड़े संकरू रसोई से आया. “क्या लाया रे? कर आया नैन मटक्का?

“टुकुड़-टुकुड़ हैं, आपु चाखो बस “.

“ये अणवाल छत्रिय-राजपूत बताते हैं अपने को. अपने नाम के आगे सिंह लगाते हैं. इनके कुनबे राणा, बोरा, धामी, कोरंगा, कुंवर, नेगी, रावत, दानू, डकोटी, बुटोला, फर्सवान, स्याँगला, और सुयाल हुए”.

“क्या लाया रे ये? खुशबू तो गजब आ रही”.

कुकड़ी है. अच्छा! ला धर. दे वो बड़ा ब्याला, सुरवा गटकने में असानी होगी . ले वो गिलास भर. तू तो आंग सेक आया अपना. अच्छा बता जरा? कौन से जेवर दिए तूने अपनी नई वाली को.

“अरे सैबो! वोई धगुला हुआ, एक सुत्ता हुआ. मूंगे की माला हुई. मुनड़ा, बुलाकी और फुल्ली ठहरी बस.” संकरू बोला.

अच्छा ये जो जो ऊनी कपड़ा तुम लोग पहनते हो इसे क्या कहते हैं.” मैंने पूछा.

ये, अरे सैबो. ये ऊपर जो ऊनी है इश्को तो ‘कोथलीगादि’ कहते हैं. भेड़ के ऊन से बनने वाला हुआ ये. नीचे पजाम जैशा ये ‘सुतन’ हुआ. ख्वार में ये ऊनि टोपी हुई. औरतें ऊपर कोट जैशा ‘आङड़ा’ डालती हैं. नीचे ‘कामलागादि’ लपेटती हैं. कमर में लपेटने के लिए सुति कपड़ा हुआ चार पांच गज लम्बा जिसको ‘पागड़ा’ केते हैं”. संकरू बोला.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“अच्छा ये जो बिछा रखा है जमीन में इसका क्या नाम हुआ”?

ये तो “गुदड़या”हुआ.

दिशा मैदान से निबट दीप, कुण्डल दा और सोबन आए. आते ही आग के पास बैठ गए. चनरू हाथ में छोटी-छोटी लकड़ियों का गट्ठर भिमें पटक कुछ और लकड़ियाँ आग में बढ़ा गया. हरिया और बलुआ के हाथ में पीतल की तौली थी. उन्हें देख मैंने पूछा इनमें क्या है? इसमें दूध हुआ गाय का. हरिया बोला. बाकरि का दुध सुबे निकालते हैं. वो भगवती बाबू को पिलाना. खूब ताकतवर होता है. मुस्टैंड बन निकलेंगे मेरे इलाके से. दारू -हारू तो पीते नहीं ये पर बरंडी की बोतल रखते हैं वो भी आर्मी वाली. क्यों हो कहीं चुपड़ते हो क्या? उनकी बायीं आँख फिर टपकी.

“आव बाव मत बको हो. अब गिलास मत भरना इनका रे संक रू. बौल्या जाते हैं”.

भगवत बाबू की बात सुन मुस्का के संकरू ने उनसे पूछा,”आपु के लिए गुसांईं  मक्के की र्रवाट बने या ग्युँ क्की?

“बस मडुआ और भात मत लाना. आज एकादशी हुई बर्त हुआ मेरा. और वो मीट हीट का डाढू अलग ही रखना हाँ. मेरे खाने में न चलाना. दूध दे भी लाएगा तो गाय का देना “

आपूं का च्वाख तो नान वालि बना रही. आटा भी अलग ओला उसने. संकरू बोला.

भगवत डिअर तुम तो संध्या पूजा भी रसोई में कर आओ नान वाली के दगड. बनकोटी जी ने अपनी जैकेट उतार स्वेटर के भीतर हाथ डाल सीना खुजाते फिर बाण छोड़ा.

“ओ, अधबुड़े अनस्त हो तेरा. हर बखत एक ही बात”.

संकरू की खातिरदारी परफेक्ट थी. खा पी सब अपने अपने गुदड़या यानी गद्दे में लधर गए जिसे पुराने कपड़ों के साथ भेड़ और बकरी की खाल के साथ जोड़ सिल कर बनाया गया था. उसके ऊपर मोटे काले बनयान रंग का मुलायम कम्बल. झोपडी वैसे भी लकड़ी जली होने से गरम थी और सभी ने पर्याप्त घर की बनी दारू से तृप्ति संतुष्ट दशा प्राप्त की थी. दो तीन ग्लास पीने के बाद बदन की तात बढ़ती रही और जबान भी सकल रही. खाना खाने के बाद संकरू मेरे बिस्तर के पास आया और ‘य तथोड़ी पटपट छ, ला से बलुवा एक गुदड़ और खित “कह मेरे हाथ को ध्यान से देखने लगा क्योंकि में विल्स के पाऊच से सिगरेट लपेट रहा था. सिगरेट कागज़ में जीभ से गीली कर जैसे ही बनी. उसके मुँह से निकला ‘अss हा’
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

वह सिगरेट मैंने उसे ही दे दी. उसने चिमटे से तुरंत जलती आग से क्वेला निकाला और लम्बी फूक ली.

“ईश्मे अतर भी डालते हैं”? उसने पूछा.

“ना, मैं तो नहीं पीता”.

“तमाख तो गजब ठहरा ये सैबो. मेरे को भिजा देना हो सैबो जौलजीबी पंडितजु पोस्ठऑफस के पास. दस तो भेज ही देना. कित्ते का मिलेगा”.

“एक पाउच पेंतीस का आता है. कागज दो रुपए का हुआ”.

“ठीक हुआ सैबोss!माल तो चोखा है. भेज देनाहोss, फाम धरना”.

“मैं भगवती बाबू को दे दूंगा. वो दिलवा देंगे”.

“हाँ होss,ये सब्बिसे बढ़ी हुआ”. 

वह खुश हो गया. उसके हाथ उसने पहने कोथलीगादि के भीतर फतुई में कुछ पुड़ पुड़ा रहे थे. खट से कपड़े में तह किये नोट की पुंतुरी उसने फतुई से निकाली और नोट गिन मेरे हाथ में रख दी.

“बड़े लोग हुए सैबो, शरम् भी लाग रै पर इत्ती तो भेज ही देना”.

“हाँ हाँ पूरा पैकेट भेज दूंगा. ये कितने नोट हैं”?

ह् जार हैं मालिक. कुण्डल दा, बस साढ़े तीन सौ रख लो, एक बंडल आ जायेगा “

मैंने नोट कुण्डल दा को दे दिए. वो हमारे खजाची हुए. “यो देखो. जैजाद वाल भै”. कुण्डल दा बुदबुदाए.

संकरू विल्स की फूक पूरी तन्मयता से लेता रहा.

बनकोटी जी पूरा ढक ओढ़ खर्राटे भरने लगे थे. दीप के बगल में भगवती बाबू लालटेन की रोशनी में एक मोटी सी भूरे जिल्द वाली किताब पढ़ रहे थे, अब उन्होंने चश्मा भी लगा लिया था. मेरे बगल में दीप लेटा था सर तक कम्बल फिट कर आंख और नाक का रास्ता खोले. दूसरी तरफ सोबन जिसने अपनी डायरी निकाल ली थी और पेन झटकते वह तेजी से लिखता जा रहा था. उसकी डायरी मेरी बहुत मदद करती रही. वह हर बात पूरे विस्तार से बड़ी सरलता से लिखता था. मेरे पांव की तरफ संकरू था. अब मैंने उसे बड़े ध्यान से देखा.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“संकरू के सर के बाल भूरे हैं. छितरी-बितरी दाढ़ी है ऐसी कि जरा कोशिश कर एक एक बाल गिना जा सके. ठुड्डी के पास से दाढ़ी की चुटिया सी निकली है जिसके गर्दन के पास पंहुंचते उसमें गाँठ पाड़ रक्खी है. उसके हाथ पर भी बहुत कम बाल हैं और उसकी फतुई से झाँकते सीने में भी वैसे ही मुलायम रोऐं जैसे बाल दिख रहे हैं. उसकी नाक लम्बी पतली और सामने से थोड़ी मुड़ी हुई है. पलकें उभरी हुई कुछ फूली फूली सी हैं. आँखों के कोए नीलापन लिए सफेदी के साथ भूरी. आँखों के नीचे कुछ उभरी फूली सी त्वचा.जब वह खुल कर हँसता है तो चेहरे में कई कई चिम्मड़ उभर आते हैं.हर कही बात पर उसका चेहरा जवाब देता है. संकरू बता रहा कि अपनी ज्याठ ईजा के कहने पर उसने गोरी पार बजांग गों की छोरमुया हो गई सुरसती के गवेसूत डाल फिर ‘समसांड’ भी कराया. ये क्या हुआ?

“बलि चढ़ती है मालिको. हमारे हुवां धौंस और घटयाली भी होने वाले हुए. सबसे बड़ा तो “बौड़य्या” हुआ. पैट देक फसलपराव कटने पर भूमिया देबा के ‘माणू’ में ‘नौकनकू’ पूजा होती है.”

“और कौन से देबी देबता हुए तुम लोगों के पूजनीय?”. सोबन ने पूछा.

“द ss”, सब बोट पहाड़ धार ढूंग में उसी की जोत हुई. सब पुजे. ग्वार की पूजा हुई, दङ-कङ हुआ करदङ हुआ, गंगला हुआ, पाँमायर हुए और ग्वार हुआ ते सब पेड़ बोट रूपी हुए. फिर आए हमारे जानवर, ढोर ढंकड भेड़- बाकरों के दयाप्त, सदवा-बिदवा जिसे गुरूजी जोई हमार ईष्ट हुआ. सारी जमीण के मालिक हुए, “मट्या देव” जो “हूँणे नाथ” और “हुंस्कर” भी कहे गये. अपने गों का बड़ा बांज का बोट है गुरूजी उसी जाग में पुज पाठी करते हैं सब लोग बाग. वहीं थापे हैं ग्वाल्ला, मट्टया, काली महाकाली. अभी दूर जो ताकुला गों के ऊपर, “फरस्योण्या उडयार” है और जुम्मा गों पन एलागाड़ के ऊपर खूब बड़ा पाथर है जिसे पूजणे भी जाने वाले हुए सब. हिन्दू धरम वाले हुए सब, अब बरसों से यहां की धार में पंसी गये तो अपनी खेती पाती ढोर जानवर के त्यार ज्यादा हुए. बीसू त्यार हुआ, फूलत्यार हुआ, ख़तडुआ हुआ. होली,दशें, दीवाल्ली,जन्यु पुने की रीत अब जा के लगी”

आगे की हमारी कठिन सी पद यात्रा संकरू और उसकी मंडली के साथ हुई. भेड़-बकरियों का खूब बड़ा झुण्ड तीन चार सौ को समेटे जिनकी अगुवाई चनरू, हरिया और बलुआ कर रहे थे. बनकोटी जी के पीछे झपुआ उनके कागज पत्तर का थैला पीछे पीठ पर लटकाये चलता. आगे जहाँ कहीं कोई गांव पड़ता वह उधर चल पड़ते और हम आगे निकल जाते. जहाँ नास्ते पानी, खाने खजाने की व्यवस्था होती वहाँ हम को भी ले जाया जाता.वहां से झपुवा के कंधे पर दाएं बायें और झोले लटक जाते जिन पर ऑफिसर राज सैब का नजराना होता. हम बड़े कौतूहल में रहते कि क्या जो होगा इनमें?
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

भगवती बाबू हमारे साथ भी चलते और कई जगह तो बनकोटी जी साहब उन्हें जबरदस्ती ले जाते. “अरे डिअर, बामनों की संगत मुझे बड़ी फलती है और फिर आपूं हुए छः पल्ले की जनेऊ वाले. मैं कहीं बौरी जाऊंगा तो मेरी रोक-टोक भी कर दोगे. हैं ना ss. रहेगा तो तू पलित्तर ही. मतक्यूँण विद्या भी जानता है”.

“इन अणवाल लोगों का इधर धारचूला में बसाव कहाँ कहाँ है?”. मैंने बनकोटी जी से पूछा.

“व्यास और चौदास घाटी के साथ दारमा और मल्ला दारमा में बसे हैं ये. ज्यादातर पहाड़ों के ढलानों में पानी के नौले धारों के पास लकड़ी, पत्थर और घास फूस से छापी झोपड़ियाँ बनाते हैं ये. एक तरफ परिवार के लोगबाग हुए तो दूसरी तरफ इनकी भेड़ बकरियां. संकरू जैसे अपनी मेहनत से पनप गये तो इनके खोड़ भी हैं. खूब बड़ा कुनबा हुआ जितने ज्यादा हाथ उतने कारोबार के फैलने की ज्यादा गुंजाइश. अब ज्यादा मरद तो मौसम देख बुग्याल की ओर चल देते हैं, खेती पाती, दुधारू जानवर, घी दूध की बरकत औरतें ही करती हैं. भेड़ के ऊन की कटाई तो मर्द लोग कर देते हैं उसकी सफाई और सार संभार घर की जनानियों के जिम्मे हुआ.

अणवालों की बड़ी ग्राम सभाऐं छोटी छोटी तोकों में बंटी हैं. इधर धारचूला तहसील में खुमती, तेजम, सुवा, दर, न्यू सूवा, कुरला, तोकुल, जिप्ति, गलाती छाना, बलुआकोट, तुगतुग थोक, हिमखोला, बंगापानी, घोरीबगड़, गलाती गड़ाल, खेत, जुम्मा, सुवाखिम ऐसे गाँव हुए जिनमें इनकी आबादी ज्यादा है तो रांथी बनकोट, जयकोट, तुगतुग तोक और बलुआकोट में कम. कुल मिला के अंदाजन पचीस गाँव हुए इनकी बसासात के”.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“अब कहते तो यह भी हैं कि अणवाल राठ अल्मोड़े जिले के दानपुर से आए इधर सीमांत में, तभी इनमें से कई अपने नाम के आगे दानू लगाते हैं .” भगवती बाबू बोले.

“हाँ, कुमाऊँ गढ़वाल के दुर्गम अन्य इलाकों से भी इनकी आवत होती रही. अणवाल कहीं ऊन वाल से तो कहीं अन्न के ढुलान की क्रिया से पहचाने गये. पहले इनमें ज्यादातर संपत्तिहीन पिछड़े दलित भी थे जो अपने मालिक शौका व्यापारियों की भेड़ चरा जो मेहनताना खाद्यान्न के रूप में पाते थे उसे,’भूड़’ कहते थे. इस तरह से ये कृषिदास भी रहे और इन्हें ‘सिरतान’ कहा गया.

भैमण की गुफा से अब भटिया खान का सफर था. मौसम खूब साफ था और चढ़ाई चढ़ते तो कई बार पहने हुए कपड़े जैकेट भीतर ही भीतर अति गर्मी कर दे रहे थे. अब की बार हमारे साथ दो छोटे टेंट भी थे जिन्हें बोकने का जिम्मा संकरू के चेलों का था. सुबह से चलते चलते अब दोपहर हो गई और बदन कुछ ढीला पड़ गया . दीप ने सोबन से पूछा कि अब रुकेंगे कहाँ, अब तो पटाई लग गई. सोबन संकरू के कान में खुसपुसाता है तो संकरू ठीक सामने एक धार की ओर अपना हाथ उठा देता है. बस पहुँच गये. यहीं रुकना है. पानी भी है पास.

जहां हम रुके वो काफी ऊँची छत वाली गुफा थी. भीतर भी काफी जगह थी यानी ये उडयार थी . कुण्डल दा अब संकरू के साथ बैठ गये हैं. दोनों में बीड़ियों का आदान-प्रदान भी हो गया है. संकरू उस उडयार के एक कोने में एक चपटे पत्थर पर पीठ टिकाये बैठ गया है. उसकी मुद्रा पदमासन की है. सामने के पेड़ों से छितरी धूप उसके चेहरे पर झिलमिला रही है. अपने मालिक को बैठा देख भेड़ों के रेवड़ के इर्द-गिर्द फिरने वाले दोनों कुत्ते पास आ पहले सूंघ-सांघ करते मेरे पास आते हैं और फिर अपने मालिक के पास जा बैठ जा रहे हैं. इनमें एक कुत्ता काला भूरा झलेल है तो दूसरा बिल्कुल काला जिस पर बड़े घने बालों की झल्लर है. रहते ये दोनों साथ हैं तो बीच बीच में एक दूसरे को देख गुर्र-कुट्ट भी होती है. संकरू ने बताया कि झिकरू हैं स्साले. अपने जानवरों से संकरू को बड़ी प्रीत है. इतना बड़ा भेड़ बकरियों का झुण्ड हुआ और बीच बीच में वह उन्हें नाम ले ले के धाल लगाता है. “आss उ, आ ss उ ले पधानी आ निखानी ररर ले s झकूली. ले रे मोतिया आ ss आ ss रे पधाना. अपने रेवड़ की बाकरि हो या भेड़ उसका गोश्त उसके कुनबे में नहीं बनता. वह दूसरी ठौर से लाया जायेगा. पूजा के लिए भी जिसमें पशुबलि होती है व् जिसे ‘समसांड’ कहते है. ‘बौड़य्या’ भी हुआ. पूजा पाती के बारे में उससे पूछता हूँ.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

” सिदू-बिदू हुए, मट्या हूँणेनाथ हुआ, छिपला केदार हुआ पुज सबकी करन भै. फीर ट्वल मानी पितर पुजे गये, वो ट्यड़-ट्याण हो जाने वाले हुए. झट्ट पूजने हुए. बलि खवानी हुई नंतर जैलाग जाते. खुस्स करने हुए त ज्यू जाग हुई. यां त भूत पिशाच की झाँक झाड़ हुई. ट्वल हुए ये त, झिकडू हुए, झिठठ ट्वाट कर दें”. मेरे बदन में झुरझुरी हो गई.

“भूत प्रेत, झाड़ फूँक, टोना टूटका बहोत हुआ यहां सर. कोई रोग-व्याधि लग गई तो उसको दूर करने के लिए भी यही उपाय हुए. जब बिरादरी में कोई मर गया तो उसकी क्रिया होती है. क्रिया करने वाला जब एका बखत खाना खाता है तो परिवार के लोग खूब हल्ला गुल्ला करते हैं थाली पीटते हैं डुडाट मचा देते हैं”. बात बताते सोबन रुका तो दीप ने पूछा,”ऐसा क्यों?”

“ताकि भोजन करने वाले को किसी जानवर या पक्षी की आवाज न सुनाई दे. जिस किसी पशु या पक्षी की आवाज सुनाई दे गई तो ये समझते हैं कि मृतक आत्मा उसी की योनि में गई. ऐसी आवाज सुनते ही खाना भी छोड़ना पड़ता है”. सोबन ने बात पूरी की.

चेलों ने आग जला उस पर चाय की बड़ी कितली रख दी है. भगवती बाबू के लिए एक शीशी में अलग से गाय का दूध है. बाकी के लिए किसी भेड़ बकरी का थन निचोड़ने हरिया उन्हें एकबट्या रहा है. रेंजर साब बनकोटी जी बड़ी देर से मेरे कैमरे के व्यू फाइनडर में आँख लगा सामने के दृश्य आगे पीछे कर रहे हैं उसमें दो सौ एम एम का टेलीफोटो लेंस लगा है.

“बड़ा बढ़िया कैमरा है आपका. साफ दिख रहे हैं रूख-डाव जो दूर पहाड़ की चोटी तक जाते जाते छोटे होते जा रहे बोट दिख रहे. आगे तो हिमरेखा तक जाते बुग्याल की असली खूबसूरती देखोगे आप. भले ही अब सांस लेने में थोड़ी हिचक लगेगी पर जो हवा नथुनों से फेफड़े में घुसेगी वह ही है प्राण वायु. जितनी देर उसका धारण होगा उतना प्राण बचेगा” बनकोटी जी गले से कैमरे का पट्टा उतार मेरे हाथ में थमाते बोले.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“ऐसे ही वचनों में तू संत ज्ञानी जैसा लगता है. पता नहीं उस दाढ़ी वाले झक्कड़ रजनीश ने क्या लिख मारा जिसे पढ़ तू ओछयाट करने लगता है.” भगवती बाबू बोले.

“लो, उसका तो पहला ही सूत्र कहता है कि जल्दबाजी मत करो और अंत के लिए उतावली मत करो. एक दूसरे में खो जाओ, एक हो जाओ. यही सहवास है यही समाधि है. यही ब्रह्मचर्य है. देखो इस संकरू को कैसे डूबा है यहां समाधि में. इतनी डांटियां हैं इसकी कोई दुखी, चिड़चिड़ी, कच- कच करने वाली नहीं होगी.पूर्ण समर्पण. ये तो असली कंपन में प्रवेश कर जाता है पूरे ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर जाता है एक दूसरे में प्रवेश कर जाता है सारा विभाजन मिटा देता है, एकता को प्राप्त कर लेता है. यही लाओत्से का अद्वेत है, शंकर का अद्वेत है…”

रेंजर साब की बात पूरी भी न हुई थी कि झल्ला के भगवती बाबू उठे और बोले, “चलो हो! उठो खट्ट. यहां तो खिचरोली फिर शुरू हो गई “. सिर पर टोपी डाल वह उस दुबट्टे पै आगे बढ़े जहाँ से आगे का शिखर आता.

“जल्दी न करो, भागो नहीं, अंत की फिक्र न करो. यही तो कहता है गुरु. और भगवत मेरे डिअर, रास्ता ये नहीं वो दूसरा वाला है.और यहां कितली में चाई ख़ौल गई है. इतना क्या रणेँ रहे हो. बामण आदमी इतना लरबराट लाट सैब को फबता नहीं…”
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

ठिठक कर खड़े हो गये भगवती बाबू. जब संकरू ने भी बायीं ओर की धार की ओर हाथ उठाया तब लौट कर उधर ही फरक गये .

गिलास भर-भर चाय मिली. इससे बेहतर चाय नहीं हो सकती जिसमें सुलगती लकड़ियों की खुशबू घुली हो. उस पानी में ख़ौली जिसमें दुनिया भर की जड़ी बूटियों ने अपनी खुशबू अपना ताप छोड़ा हो. थकान मिट गई. बदन लहरा गया. सब उठे.

आगे आगे रेंजर साब चले. सर पर टोप उन पर बड़ा सजता था. पीछे सामान में उनकी दुनाली भी थी. झपुवा ने लटका रखी थी. 

अब उन्होंने दुनाली अपने हाथ में ले ली. भूरे किर्मिच के चौकोर बैग से निकाल उसमें कारतूस डाले.बायीं तरफ एलजी और दाईं तरफ छर्रे. चुस्त चमड़े की जैकेट पहने थे रेंजर साब उस पर हाथ में भरी दुनाली. वाह भई.

“आगे दूर बस अब बुग्याल का इलाका मिलेगा प्रोफेसर साब. घास ही घास. घासों के मजेदार नाम आपने सुने होंगे, कुमरिया, भुजनिया, गुरुड़िया, सीरपतिया. पर इन चरागाहों में ये बिल्कुल अलग किसम की होती हैं. यहां दल्हनी घास तो होती ही नहीं. यहां दिखती है चिड़िया घास, गेहूं घास, धान घास, पँखी घास, गन्धी, नरखुट, मानुला, गुच्छी, दौलनी, पुष्पगुच्छी और लव घास भी होती है भगवत बाबू.”आखिरी बात जोर से कह वह जोर से हँसे. ऐसा लगा पूरी वादी उनकी हंसी का जवाब दे रही थी.

जड़ी बूटी का खजाना हुआ यहां तो इसके चोर भी बहुत फिरते हैं मादर चोss! सारी जड़ खोद जाते हैं. कई कंद तो अब ढूंढे से नहीं मिलते .सालम मिश्री हुई सालम पंजा हुआ. अतीस हुआ. मैंने बताई थी ना वो कीड़ा जड़ी. अपने भगवत डिअर के लिए एक सेर खुदवाता हूँ. इसका ये जनम तो सफल कर देना ही हुआ.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“बिछेन कर दि छे. छि!”कह तेज कदमों से भगवती बाबू आगे बढ़े सीधे नाक की सीध में.

मैं और संकरू आगे पीछे चलते रहे. बनकोटी जी अब दीप को कोई प्रेरक आख्यान समझाने में मगन थे.

यहां डेरा कहाँ हुआ तुम्हारा जहाँ सारा परिवार रहता है? मैंने संकरू से पूछा .

“वो तो दूर ही हुआ. पलपला से भी आगे.ठुल बौजू, ठुल ईजा भी हुई. ताऊ कका सब तीस में दो कम का कुनबा हुआ. छोटे दो भाइयों को छोड़ इधर धारचूला से आगे किसी ने नहीं देखा. ठुल बा कहता है धारचूला से मोटर में बैठा दे. अब साठ चौसठ तक उनने काली पार दारचूला होते नेपाल के ऊपर वाले अंचल और इधर छोटा कैलास, जोलिङ्गकोग, और तिब्बत की मंडी तक बहुत फेरे किये. ऊन ले जाते थे मालिक का. कैसी कैसी बिपदा आई. हुनिये डकैत से भिड़ंत हुई. इष्टे किरपा हुई महाराज.कुड़ी में लौट बेर फिर फरके. एक बार फौजी जीप में बिठाया तवाघाट से आगे जौलजीबी तक. ले इत्ते उखाले कर दिए कि मी तो झस्की गया. देबता का कौल नहीं होगा ना, मोटर पै चढ़ने का. इन पहाड़ी धार पै चलते भी भोत बात माननी पड़ती हैं उचेण रखना होता है.तबी दयाप्त मदद करते हैं. यहां दानव राक्षक्स भी हुए जंगली जनावर भी उनसे भी बचना हुआ”.

“तुम्हारी रिश्तेदारी भी यहीं फैली होगी”.

“हाँ, यां भी हुई. नेपाल भी हुई. वो वल्ला दर्मा पल्ला दरमा. उधर व्यास चौदास भी. मेरे तो ज्यादा इधर दरमा में हूए. सुवा, तीजम, जुम्मा, रांथी खेत. इधर को सियालेख हुआ उधर गलाती की गाड़ और छाना हूए. फीर जै कोट, खुमती और बलुआ कोट. कई डेरे जिप्ति, बूंगबूंग, गलागाड़ से ऊपर वहां तुगतुग तोक, सुवाखीम, तिकुल और कुरला में हूए. ज्यादा उप्पर तो घास फूस, मट्टी पाथर क्की झोपडी हुई बस्स”.

“यहां पलपला कब से रह रहे या यहां कहीं से आए”?

“साल बखत तक कुच्च नहीं पता मीको. जनम का बर्स भी न पता. ठुल बाज्यू के भी परदादा आए बताते दानपुर पट्टी से. छत्रिय राजपूत हूए हम. तभी नाम पड़ा शंकर सिंह.बाब ने लाड़ से संकरू कहा तो वोई चल पड़ा. सब वोई कैते हैं. मालिक लोग शौका हूए उन्ने ही काम दिया रोटी दी.ढोर ढँगर दिए. भूड़ मिलने वाली हुई हमारे दादा ठुल दादा को. जो भी किया उनके बास्ते तो अनाज मिला. इस्सी से ‘भुड्या’ कहे गए. उनकि खेतिपाति सब संभाली हुई हमीसे. वो तो ठुल ब्यापार करते हूँण देश कि आवत जाबत हुई. सब्ब मालपानि हमीने सारा. भेड़ बाकर के करबच में. बड़ा जानवर हुआ बोकने को, अब यसे ई आड़े तिर्चे बाटे में, दर्रे में तो हिटना चंवर गाय का बड़ा सुस्त हुआ. उसके बस का नहीं हुआ ज्यादा तेज चलना. बाकरे-भेड़ चढ़ जाएं दस कोस तो बड़ा जानवर तै करे एक कोस. सब बुग्यालों में हमीं गए भेड़ बाकर ले. फरके त ऊन काटा. धोया सुखाया औरतों ने. फीर दे दिया मालिक क्को. अनाज, चीज बस्त, वल्ला पल्ला का ढुलान भी हुआ. माल भाबर तक जाना हुआ. बुज्ञाल तो आदमी ही गया. औरत छूतई हुई तो जाती ना, त नही जाती. उसका जिम्मा घर कुड़ी कि सार पतार, बुढ़-बूढ़े कि, बच्चे-कच्चे कि देख हुई. ढोर ढंगर कि घा पात, चुल्हे कि आग, सौदा सुल्फा सब इनका ही बाट हुआ. अब तो मालिको, हमारे लोग छोटी मोटी दुकानदारी भी करने लगे हैं. औरतें सब खुर-बुर कर लेती हैं, सिपार हुईं जो. परांठ सेकना, पकोडि बनाना चा चुई बनाना. जमा बचत अटक-बटक इनी के हाथ हुई. वो पंडित जू ने हमरी पास्स बुक भी बनाइ है डाकघर में. महिने-महिने ढेपुए ले जाते हैं. बाल-बच्चे पढ़ाने के वास्ते ही जायेगी टेक. ये कब तक चराएँगे भेड़ बाकर.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“सही सोचता है तू संकरू. तू ये बता तुझे कैसा लगता है महीनों महीनों घर से बाहर रहना. कभी बुग्यालों में कभी माल- भाबर”? दीप ने पूछा. चढ़ाई में अपनी सांसों पर काबू पाने हम थोड़ा रूक गए थे.

“इसने हर अड्डे हर खेड़े पर रख छोड़ी है अपनी पधानी. पूरी मौज में रहता है ये ढाटी-ढाडी सब हैं.सौ परसेंट लिबड्ड हुआ ये . कितने झुटक्याल झटयल हैं रे तेरे? बड़ा जिमदार हुआ सब छोड़्यक छोरमुया पै चौतर्फी नजर रहती है इसकी. पूरा चौड़ है. ढिपु भी खूब हूए”. दीप के सवाल का जवाब पीछे आते सब सुन रहे रेंजर साब ने दिया.

“मी तो क्या हुआ सैबो! बाब-ठुल बाब ने की ग्वाल गुसें मालिकों की सेवा. खूब ढोर-ढंगर फलाए. आपण ये दुणी भै भेड़-बकर दुमकण धक्योंण धरण भै. उई इनाम मिल. मी तो आपण बबा क ऐके औलाद. बाब ट ल्हे गो सात-आठ बरस पैली. योई सिमखोला पन बुंग बुंग क अघिल बुज्ञाल बटी घर लौटण में खड्ड-खाड़ में घुरी गो. लंगड़ी गो. खुटेकि हड्डी टुटगे. बांसक खपच्ची लगे, हड़जोड़ लगाss. द्वि तीन मास उस्से रौ. मेऱ ब्या कर गो…”

संकरू की बात खतम भी न हुई थी कि बनकोटी जी अपने रेंजर साब की आवाज सुनाई दी,”अरे इस साले के तो अगल बगल दोनों सुला गया वो. जिससे बात चली उसकी दो चेलियां हुईं. उस पधान की शर्त हुई कि दोनों कन्याओं की शादी साथ करेगा. चालाक हुआ इसका ससुर. देख लिया कि ऐक ही औलाद है. भूमि धारी है अपने खुद के जानवर हैं. अब प्रोफेसर साब, इनके यहां ब्याह में लड़के वालों को लड़की का मोल चुकाना पड़ता है. दोनों देखण चाण हुईं. इसके बाप ने दोनों के लिए नोट गिन दिए.ऐक ही दिशाण में सुलाईँ इसने. अभी भी धौ कहाँ हुई जहाँ-जहाँ फिरा वहां मलक्योंण-मतक्योंण-मलाशण से मुनयेदिण के भाग हूए साले के. बड़ा रंगिल है ये रसक्याव ल्हिण में. बाप भी मालदार हुआ. दुमच्छयु में भी खूब भेड़ बकरी मिले थे स्वर्ग सिधारने से पहले.

ये दुमच्छयु नही मालूम होगा आपको. समझा रे संकरुवा, बता. मुख क्या देख रा साला लाटा बन के?
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

शर्माता सा संकरू बोला, “वो रीत चली आई मालिक लोगों की कि जब भेड़ – बाकरों कि तादाद भौत हो जाए तो शौका लोग ऐक गोल मैं उनको जमा कर देते. ऐक तप्पड़ पै पूरा झुण्ड. उनके चाकर हम अंणवाल भी वहीं ठाड़ रहते. अब मालिकों में सयाना जाता भेड़ बाकर के गोल के ठिक्क बिचौ. ऐक रेखड़ खींचता बिंचो बीच और वोहीं बीच में खड़े हो चीखता जोर से,”छsss यो”. छssयो की इत्ती जोर कि अवाज , धाल कि कान कली जाएं होs. इसे सुन भेड़ बाकर झस्की जाते. कोई ऊपर भागता कोई निचेकि ओर. कोई ऊपर कोई निचे. गोल पन पहले से निशाण हुआ. लाइन पाड़ी हुई. तो गोल के ऐक तरफ भागी भेड़ बाकरी मालिक कि और दुशरी ओर वाली हमारी. कोई कमी थोड़ी हुई मालिक लोगों के पास. कामधंध व्योपार देल- फैल हुई”.

“अब देखो प्रोफेसर साब. कितना मस्त जीवन हुआ ये. अपने मन के राजा. कोई विकृति नहीं हुई. पाप पुण्य का कोई झंझट नहीं हुआ. इसी साले संकरू को देख मुझे तो ओशो याद आता है. ऐसी ही मस्ती देख उस पे मस्तानी चढ़ी होगी. खाओ पियो हगो यही जीवन का सूत्र हुआ. “

चढ़ते चढ़ते रेंजर साब हांफने लगे थे.

बस अब थोड़ा ही चढ़ना है. माठू-माठ चलते रहो हो.

“यहां तो प्रकृति के अनगिनत रूप दिख रहे”. ये खींच ले वाइड एंगल में. देख . जहाँ नजर पड़े पत्थर, चट्टान, गधेरे, झरने, गुफा, पेड़. कैसे कैसे पंछी. और ये फड़फड़ाने सरसराने की आवाज”. दीप की बात खतम भी न हुई थी कि बौनी सी झाड़ी में दुबका कोई जानवर हमारे गुजरते सरकते सटक से कहीं निकला. संकरू के दोनों कुत्ते तेजी से ऊपर की ओर भागे.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“साथ चल रहे कुत्ते पहले ही उनकी बास चिता जाते हैं. इनका सुत्याव ही निराला हुआ. पहले दूर तक आगे बढ़ जायेंगे, हमें देखते रहेंगे कि आ रहे या नही. आगे आराम से जीभ निकल है है करते दिखेंगे”. कुण्डल बोला 

 नीचे बड़े बोट थे जो अब ऊपर आते आते बौने होते जा रहे हैं. उनकी किस्म बदल गई है. खुशबू बदल गई है.

आगे पाथरों का एक टीला दिखता है. संकरू उसके आगे से गुजरते हाथ जोड़ जमीन तक झुक नतमस्तक हो रहा. उसके साथ सोबन है. उस्से कुछ पूछता फिर वैसा ही करता. हम भी करीब पहुँच गए हैं. सोबन बता रहा ये किसी भूत पिशाच का वास है. संकरू बता रहा इसको न पूजो तो हंकार लगती है. हांट-भांट यानी अंजर-पंजर ढीले पड़ जाते हैं. हातोंहात सभी हाथ जोड़ रहे.

मैं संकरू के साथ चल रहा हूँ उसकी चाल बड़ी तेज है. उस्से पूछता हूँ इस भूत दानव के बारे में. वह कह रहा कि इस तप्पड़ से पार तक का हकू-दलू यानी देखभाल करने वाला यही राक्षस हुआ. इसको भी हंतर भेटणा हुआ. सब ठोरों की तरह मनखी भेस वाले राक्षस भी हूए, पलीत करम वाले. बुड़ बाज्यू कहने वाले हूए कि पहले हुणिया लुटेरे हूए जो हाथ पड़ा ले जाते थे. खम्पा सरदार भी हूए इस हिमाव में हतयूंण वाले शतुर हूए.नण्ड हुड़्ड हूए वो. अकेले दुकेले कोई नहीं चलता था यहां दर्रो में. पूरा हूल -दंगार इकट्ठा कर चलते थे, हत्यार भी रखते . अब देबी दयाप्त की किरपा रहे तो सभी ठीक चले.उसको पूजा दी खुश रखना हुआ. बलि दी भेंट दी. आण बाण सब खुश. सैबो यहां टीले का ढूंग हो या बरफ में खड़ा शिब टेक उसी की हुई. अबी देख ही रहे होगे आप जरा खुट रड़ा तो नीचे कहाँ अटके गोरी बहाए या काली वोई तय करे. अब आपु लोग कह रहे छिपला जा रहे. वो छिपला केदार बुला रहा तब जा रहे.सब उसी की माया सारे डाने काने में. कहीं गड़ देबी हुई कहीं नर सिंह. गोल्ल, गोरिल भैरब भूत मसाण हूए सबकी अपनी ठौर हुई. ऐड़ी देबता हुआ. आंछरी हुई वो दूर बरफ में. वहां ज्यादा हल्ला-गुल्ला नहीं करते. चट्ट लाल लुकुड़े भी नहीं पहनते. परि-आंचरी तो बांध लेती है चिपट जाती है”.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

“वो आगे धार हटते ही ठीक जगह है कुण्डल. टेंट वहीं लगेगा”. रेंजर साब का आदेश हुआ. देखा कि बाकी सब तो धार तक पहुँचने ही वाले हैं. संकरू की बात सुनते मैं और दीप ही पीछे रह गए.

बोलचाल करते इत्ती चढ़ाई चढ़ गए, गुम्म चलते तो बदन का लोथ निकल जाता. अभी इससे पार जो बुग्याल है वहाँ गईं हैं बकरियां. साब ठीक बता रहे अब सूरज भी जा रहा. तब तक टेंट लग जाएगा. खूब छल -छल पाणी भी है वहां. शाम से रात को जंगली जानवर भी आने वाले हूए.

तभी रेंजर साब ने दुनाली तान रखी. दीप ने आगे बढ़ते बनकोटी जी की ओर इशारा किया.

“साबजी तो बड़े शिकारी हूए. मेरी खूब खिसाई लगाते हैं पर दिल के साफ हूए. खाने में कभी रोटी के साथ लूण दे दो तो वो भी खा लें.इधर भालु और सुंगर आते हैं इनका तो कोई भरोसा नहीं .हथियार भी जरुरी हुआ साथ रखना इन जंगली जानवर के लिए नहीं वो इन्हें मारने वाले शिकारियों के लिए. काली पार से चले आते हैं चुपचाप. चुप्प विराने में ठाँय होती है पूरी घाटी गूंजती है. ये शाले तो हमारे लिए भी नेस्ती हैं. रही जानवर वो अपने बाट हम अपने बाट. रात को तो बस आग जगा दो”.संकरू की बात सुनते सुनते चढ़ाई पार हो गई.

घंटे भर में हम टेंट के भीतर पसरे थे. कुण्डल दा की स्पेशल चाय के साथ. वह भगवती बाबू को बता रहे थे कि उनके लिए बोतल में रखा गाय का दूध तो अब निमड़ी गया. अब काली चाय ही पीनी पड़ेगी.

“क्यों हो गुरूजी मैं पगुरण दूंगा आपके लिए बकरी का दूध. वही चाय में खित दूंगा” कुण्डल बोला.

“छिss, मुझे तो उसके थन देख के ही घिँण आती हैं. ना, काली चाय ही देना “

अब थन चूसो कौन कह रहा. कभी थोल लगा के चूसे होते पंडित जी ने तो सुवाद पता चलता “. आप तो मेरे मामले में बोलो ही मत. हर जगह खिचरोली. अss”.

अच्छा हो मैं चुप्प. आपूं संध्या पूजा करो. घांट बजाओ. दयाप्ता बड़े नजदीक हूए यहां. रेंजर साब ने छुर्रा छोड़ा और टेंट से बाहर निकलते दुनाली कंधे पर डाली.

चलो जी दीप भाई, आप भी आओ पांडे जी ये लिखत पढ़त बाद में कर लेना. कैमरा क्या टटोल रहे हो?

रोल बदल रहा था. जो निकाला उसे भी अच्छी तरह लपेट दिया. कमल जोशी ने कहा था बहुत संभाल के रखना इनके कैसेट जरा भी नमी घुसी तो सब चौपट. हौला तो हमने भी खूब खा लिया.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

रेंजर साब के साथ टेंट से बाहर चले. काफी दूर भगवती बाबू भी दिखाई दिए. सोबन के साथ. कुण्डल दा बड़ी परात में आटा गूंथ रहा था. मैं उन्हें देखने लगा तो बोले इत्ता बढ़िया छोटा गेहूं होगा ना ये लाल वाला कि गुंथने में हाथ में बिल्कुल नहीं लस रहा.

रेंजर साब दीप के साथ आगे बढ़ गए थे. मैं भी पीछे पीछे दौड़ा. यहां छोटे छोटे पेड़ थे. एक तरफ खूब घने. कंटीले भी. उनके बीच से एक रास्ता नीचे की ओर जा रहा था और उधर से पानी बहने की आवाज भी आ रही थी. कई किस्म की आवाजें, चिड़ियाओं के अपने बसेरे में दुबकने से उभरती चिंचियाट. संकरू के दोनों कुत्ते यहां वहां सूंघते अपने इलाके की पहचान बना रहे थे. सूरज की बस लाली शेष रह गई थी और सामने के पेड़ पहाड़ उससे सिलौट बना रहे थे अद्भुत आकार प्रकार के छाया चित्र.

ठाँ ssय की आवाज गूंजी बिल्कुल पास. उधर को बढ़ा तो देखा रेंजर साहिब ने साधा था निशाना. झपुवा तुरंत नीचे एक झुरमुट की ओर भागा था. उसने एक सीटी बजाई तो दोनों कुत्ते भी उधर ही उन्हें भी शायद कुछ सूंघ लग गई थी. चनरू, हरिया और बलुआ भी नीचे सटक गए. सार-सारण में मदद करने. देख उधर ही पड़ी होंगी. फड़ फड़ उधर ही आईं. हैं न साब भौत हैं. ला फिर. मैं आऊं क्या? ना हो. मैं ला रहा. दुनाली से निकली बारूद की गंध महसूस हो रही थी. टेंट के भीतर से घंटी टुनटुनाने की ध्वनि आई और अगरबत्ती की सुवास का झोंका भी.साज पड़ गई थी. बाहर जलती आग के पास कुण्डल दा एक बड़ी भदेली निकालते दिखे. बड़ी तेजी से एक झोला खोल उन्होंने कई पुड़िया पूंतुरे निकाल लिए. तेल की बोतल भी.

संकरू एक चौड़े से पत्थर पर बैठ चिलम भरने में लगा था. दीप और में झटपट फ़ारिग हो आए थे. दीप ने कहा कि चाय पीने की इच्छा हो रही मैं बना के लाता हूँ. तू बैठ.

संकरू के पास चला आया. मुझे देख उसने चिलम एक ओर रखी और वहीं पड़े रुख सेक के बाहर बंधी भेड़ की मुड़ी तुड़ी दो खालें सीधी कर पत्थर पर बिछा दीं.

खाल पर बैठ गया. अंधेरा पसर आया था. आँख मूंद बस यूं ही बैठे रहने की मन थी. अभी कई कौतुक बाकी थे. कुत्तों की लरबराट के साथ चनरू और बलुआ ऊपर आते दिखे. चूल्हे के पास संकरू खड़ा था. कित्ती झड़ी? उसने पूछा.

आठ नौ तो सही हैं. एक दो तो भुदड़ी गईं.

संकरू ने जलती आग के कोने से एक लाल क्वेला उंगलियों में थाम तुरंत चिलम के ऊपर रखा. फू फू कर समीप आ खड़ा हो गया.

खूब खुश दिख रहा अभी क्या बात है?

साब जी. कल एकादशी थी ना, आज के दिन मेरा लगन हुआ था. सात बरस पुरी गए.येई मास हुआ.

वाह बधाई हो. ये मुर्गीयां भी खूब मिलीं अपने आप ही पार्टी भी हो गई. ऊपर वाला मेहरबान है तुझ पै. आज तो बड़ी याद आ रही होगी.

हूँ ss.

चिलम की लम्बी फूक लगा उसका धुंवा कई सेकंड तक रोक फिर संकरू का मुख खुला हाँ sss, साब ज्जी. जोड़ हुआ वहां. जोड़ मतलब?

हाथ की दो अंगूलियां दिखाते संकरू कुछ मस्ती से चहका. “तब नीचे दारचूला था तीन एक महने जहाँ से लूँण के बदल मालिक का अनाज ले मालु टनकपुर गए गुड़ लेने. मालिक के लिए भाड़ा कमाया. गुड़ ल्ही बेर मालिक को सौंप फरके अपनी मौ,तो देखा बबा लमलेट हुवां, चल फिर न पाए. घुरी गये तो टांग थेची गई.जिद पाड़ दी. लगन 

कर लगन कर. जहाँ बात जमा रखी वां उसकी दो चेलियां. बोला बबा से. दोनों से लगन करो भले गोठ बैठेंगी. इनका मोल देना हुआ. येइ रीत हुई. हमको भी सिरतानी से भूमिधरी मिली हुई. दुमच्यू में भेड़ बकर हूए खूब. सब छिपला की किरपा हुई”. दावत भी असल हो गई. कड़ू तेल धनिया मर्च लूँण मात्र से भदेली में बनी कुकड़ी का झोल तो अनोखा ही था. मीट चाबना मेरे व दीप के बस में बस में था नहीं. बाकी तो सब खींचे जा रहे थे. हमें तृप्त देख रेंजर साब बोले ये हुई बात मेरा मौका मुआयना भी हो गया और आपकी दावत भी. इधर तक तो कई बार दौरा हुआ पर छिपला केदार तो एक ही बार जा पाया वो भी कई साल पहले जब नैनीताल से हमारे ए सी एफ साब मोहन चंद्र पांडे जी आए थे. साधु स्वभाव कोई अमल पानी नहीं. रास्ते भर इन पेड़ पहाड़ों को बचाने बनाने की बात करते रहे. कहते ये एक प्रजाति का वन लगाना तो सबसे बड़ी बेवकूफी है जो हमारा विभाग कर रहा. पनपता तो धूरा है.
(Chhipla Kedar Travelogue Mrigesh Pande)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कानून के दरवाजे पर : फ़्रेंज़ काफ़्का की कहानी

-अनुवाद : सुकेश साहनी कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है. उस देश का एक…

3 days ago

अमृता प्रीतम की कहानी : जंगली बूटी

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की…

6 days ago

अंतिम प्यार : रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी

आर्ट स्कूल के प्रोफेसर मनमोहन बाबू घर पर बैठे मित्रों के साथ मनोरंजन कर रहे…

6 days ago

माँ का सिलबट्टे से प्रेम

स्त्री अपने घर के वृत्त में ही परिवर्तन के चाक पर घूमती रहती है. वह…

1 week ago

‘राजुला मालूशाही’ ख्वाबों में बनी एक प्रेम कहानी

कोक स्टूडियो में, कमला देवी, नेहा कक्कड़ और नितेश बिष्ट (हुड़का) की बंदगी में कुमाऊं…

1 week ago

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

1 week ago