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देशभर के लोगों ने कालाढुंगी के हरिकृष्ण चड्ढा से पपीते की खेती के नुस्खे सीखे हैं

हल्द्वानी के काश्तकार जमीनों को बेचने के बजाय यदि उस जमीन का पोषण कर रहे होते तो स्थितियां कुछ और ही होती. यहां के काश्तकारों के सामने हल्द्वानी के निकटवर्ती गांव चकलुआ में 50 एकड़ भूमि पर फैला चड्ढा फार्म एक उदाहरण है. यह फ़ार्म कृषि विविधता, आधुनिक और पारंपरिक खेती का सम्मिश्रण, व्यावसायिक सोच, ऑर्गेनिक फार्मिंग, हानिकारक दवाओं के प्रयोग रहित उन्नत खेती का उत्कृष्ट नमूना है. Harikrishnans Chadda Haldwani

इस फार्म के स्वामी हरिकृष्ण चड्ढा व इसी व्यवसाय में रह गए उनके पुत्र सुधीर चड्ढा कहते हैं, उत्तराखंडी देश का एक ऐसा राज्य है जहां बागवानी, फलोत्पादन जड़ी-बूटी उत्पादन, फूल उत्पादन, सब्जी उत्पादन की अपार और विविध संभावनाएं हैं. वे बताते हैं कि यहां की जलवायु भूमि और परिस्थितियां भौगोलिक रूप में इतनी भिन्नता लिए हुए हैं कि यहां कई प्रकार के कृषि उत्पादों से भरपूर लाभ लिया जा सकता है. लेकिन इसके लिए व्यापक सोच लगन और मेहनत की जरूरत है

अपने प्रयोगों से उगाये गए पपीता और गाय के शुद्ध मट्ठे से प्रत्येक आगंतुक का स्वागत करते हुए वे बताते हैं कि हालांकि उन्होंने प्रारंभ में अपने खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशक दवाओं का सबसे पहले प्रयोग किया, अब इनकी हानियों से परिचित हो चुके हैं और इनका प्रयोग वर्जित कर दिया है.

उन्नत कृषि के लिए अन्य खादों का प्रयोग करते हैं और कीटनाशक दवाओं के स्थान पर गोमूत्र, तुलसी, आडू, नीम के सम्मिश्रण को प्रमुखता देते हैं. वे बताते हैं कि एक एकड़ भूमि को उपजाऊ रखने के लिए एक गाय का गोबर कंपोस्ट खाद बनाने के लिए पर्याप्त है.

ऑर्गेनिक खाद के बारे में वे कहते हैं, इसे तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है पहली है प्राकृतिक रूप से बनने वाली खाद, इसमें स्वतः पौधे से गिरे पत्तों के नीचे माइक्रो बैक्टीरिया खाद का निर्माण करते हैं. यह देखा जाना जरूरी है कि कंपोस्ट में सारे तत्व होने चाहिए. कम से कम 12 से 13 टन खाद एक एकड़ के लिए जरूरी है.

खाद को अच्छा बनाने के लिए केंचुओं कि मदद ली जा सकती है. तीसरा, ऑर्गेनिक खाद के शोर के चलते बाजार में जो बायोफर्टिलाइजर आया है उस पर वह कहते हैं कि अभी अनुसंधान की जरूरत है. कट्टो में उपलब्ध यह खाद गमलों के लिए उपयुक्त हो सकती है लेकिन किसान के लिए लाभकारी नहीं है. किसानों को तो स्वयं ही खाद बनानी होगी.

चड्ढा 1952 में रावलपिंडी से यहां आए थे, तब यहां घनघोर जंगल था और वह किसानी भी नहीं जानते थे. लेकिन उन्होंने अथक प्रयास किया. कृषि को व्यवसायिक रूप देने का उन्होंने विचार किया, जिसमें पढ़ाई के बाद उनके पुत्र ने भी भरपूर सहयोग दिया.

सबसे पहले उन्होंने 900 पेड़ पपीते के लगाए जिनमें से 700 पेड़ नष्ट हो गए लेकिन हौसला नहीं छोड़ा और वे नए प्रयोग करते रहे. पहले वर्ष 3000 का पपीता बिका दूसरे वर्ष 28000 का और तीसरे वर्ष 38000 का, इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा.

कई प्रजातियां बाहर से भी मंगाई और उनके गुण-धर्म, देशी नस्ल से मिलाकर नई वैरायटी बनाई. वर्तमान में वे 5 से 6 टन पपीता उत्पादन करते हैं और विदेशों की मांग के अनुरूप पपीते का पाउडर बनाने की मशीन लगाने पर विचार कर रहे हैं. पपीते के बीज पेठा, टमाटर, अदरक, मटर, सब्जियां तथा बहुमूल्य फूलों की भरपूर फसल भी यहां देखी जा सकती है. Harikrishnans Chadda Haldwani

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर

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