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अल्मोड़ा में सार्वजनिक ब्लैक-बोर्ड की गाथा

अल्मोड़ा शहर में दो-तीन सार्वजनिक जगहों पर ब्लैक-बोर्ड बने हैं. एक है बस स्टेशन पर, कचहरी को जाने वाली सीढ़ियों के नीचे. दूसरा लाला बाजार में किशन गुरुरानी की दुकान के आगे. तीसरा बावन सीढ़ी वाले चौराहे में सार्वजनिक मूत्रालय की दीवार पर. इस तीसरे ब्लैक-बोर्ड की एक कहानी है. जिसे थोड़ा रुक कर कहूँगा. Public Black Boards in Almora

कचहरी की सीढ़ियों वाला ब्लैक-बोर्ड अब वीरान रहता है. उस की ओर ध्यान भी नहीं जाता. दूसरा चालू हालत में है. उस पर अक्सर इस तरह की चीजें लिखी रहती हैं- एक चाबी का छल्ला मिला है. जिस किसी का हो सामने की दुकान से प्राप्त कर ले. कान का एक झुमका कहीं गिर गया है. जिस किसी सज्जन को मिले कृपया सामने की दुकान पर दे दें अथवा इस नम्बर पर फोन करने की कृपा करें. ऐसी चीजें सज्जनों को जरा कम ही मिलती हैं. मुझे आज तक नहीं मिली. शायद इसीलिए कम से कम अपनी नज़र में सज्जन हूँ.

एक समय था जब ये ब्लैक-बोर्ड यूँ वीरान नहीं रहते थे. इन पर खोया-पाया के अलावा भी काफी-कुछ लिखा रहता था.

अल्मोड़ा में एक नायक ललित हुआ करते थे. उनकी वेश-भूषा और डील-डौल से जान पड़ता था कि वो कभी फौज में रहे होंगे. कमर में तामलेट, फौजी जर्सी या पैंट, कंधे में पिट्ठू, मजबूत छरहरा निकला हुआ कद और हाथ में दो-ढाई फीट लम्बी लोहे की चपटी छड़. ये धज थी उनकी. बोलते ना के बराबर थे. उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. कौन थे, कहाँ रहते थे, नहीं जानता. कई साल गुजर गए, न जाने कहाँ लापता हो गए. शायद मर-खप गए हों. उम्र 50-60 के करीब लगती थी.

नायक ललित में दो ऐसी आदतें थीं जो उन्हें शहर के दूसरे पागलों से अलग पहचान दिलाती थीं. एक तो उन्हें कुत्तों से सख्त नफरत थी. गलती से कोई कुत्ता उनके सामने आ जाता तो वे पूरी ताकत से लोहे की छड़ उस पर दे मारते. कुत्ते के बदन में गहरा घाव हो जाता, हड्डी बाहर झाँकने लगती, खून के फव्वारे फूट पड़ते. कुत्ता 10-15 मिनट तक इतनी दर्द भरी आवाज में रोता कि सुनने वालों के कलेजे में दर्द होने लगता. नायक ललित अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ते थे, कुत्ते ही बेहया थे कि मरते नहीं थे. ऐसा जरा कम ही होता था कि कुत्ता उनके सामने पड़ जाए. वर्ना कुत्ते काफी दूर से ही उनकी गंध पाकर दुम टाँगों के बीच दबा कर जहाँ राह मिलती वहीं भाग जाते.

नायक ललित का एक और शगल था. इसी कारण उन्हें यहाँ जिक्र के काबिल समझा गया. उन्हें ब्लैक-बोर्डों पर चॉक से लिखने की आदत थी. हमेशा रामायण से सम्बन्धित बातें ही लिखते थे. कुछ नमूने याद रह गये हैं- कुंभकरण, इतना सोने का कोई कारण नहीं भ्राता. उठो, सीता ने स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई है. हे मंदोदरी, सीता के प्रति तुम्हारी जलन उचित नहीं. वह स्वयं नहीं आई, हरण करके लाई गई है. सुनो दशानन, परस्त्री का हरण तुम्हारी मृत्यु और विनाश का कारण बनेगा. अपनी बहन किसे प्रिय नहीं होती, रावण को भी थी. दोष लक्ष्मण का है. फिर अंत में अपना नाम लिखते- नायक ललित.

एक बार उन्होंने बड़ी जोर की बात लिखी थी-

अंजनी पुत्र, तुमने अहिरावण को क्यों मारा? उसकी और तुम्हारी माँ की राशि एक ही थी- मेष. तुम्हें स्मरण नहीं रहा ?

इन ब्लैक-बोर्डों पर लिखने वाले एक और साहब रानीखेत से आते थे. उनका नाम रोज़ी अली खान था. चार-छः महीनों में एक बार अल्मोड़ा आते थे. और कहाँ-कहाँ जाते थे, पता नहीं. अब नहीं आते. वे कुछ इस तरह की बातें लिखते थे- पैसे वालों की है सरकार, आम आदमी है बेहाल. जात-मज़हब का बंधन तोड़ो, इंसानियत का रिश्ता जोड़ो. लॉटरी लानत है. नीचे लिखते थे- एक प्रचारक-रोजी अली खान. हिज्जों की गलतियाँ करते थे.

तीसरे ब्लैक-बोर्ड की कहानी रह गई थी. 52 सीढ़ी चौराहे वाले की कहानी. यह तब की बात है जब देश में भयंकर साम्प्रदायिक तनाव था. अयोध्या में मस्जिद टूट चुकी थी या टूटने वाली थी. आडवानी अपने मुस्लिम सारथी को लेकर रथयात्रा पर निकलने वाले थे या गिरफ्तार किए जा चुके थे. उसी दरमियान की बात है.

एक दिन शहर में एक पेंटर आया. उसे ठेका मिला था कि जहाँ जगह मिले वहाँ चूना पोत कर नील या गेरू मिट्टी से ‘रामलला हम आएँगे, मंदिर वहीं बनाएँगे’, ‘जिस हिन्दू का खून न खौले….’, ‘अयोध्या चलो…’ वगै़रा लिख दे.

उस पेंटर ने पेशाबघर की दीवार पर चूना पोता और आगे चल दिया कहीं और चूना पोतने. उसके वापस आने तक यह पुताई सूख जाती तब वह इस पर लिखता. उसके जाते ही हम दो-तीन लोगों को एक खुराफ़ात सूझी. हमने लकड़ी के एक सिरे पर रुई लपेटी और स्याही से उस दीवार पर दो शेर लिख दिए-

परिन्दों में फ़िरकापस्ती नहीं होती,
कभी मंदिर में जा बैठे, कभी मस्जिद में.

और

आपस में ही लड़-लड़कर जब ये कौमें मिट जाएँगी,
तब मंदिर-मस्ज़िद में पूजा करने क्या लाशें जाएँगी.

हम अपने मोहल्ले में थे, सुरक्षित थे. लेकिन फिर भी भीतर से डरे हुए थे कि न जाने पेंटर आकर क्या कहे, क्या करे! हमारा ख़याल था कि कम से कम गाली तो देगा ही, क्योंकि उसे फिर से दीवार पोतनी पडे़गी.

अनजान से बनकर आसपास बने रहे, जायजा लेते रहे. आधा घंटे बाद पेंटर लौट आया. वह सामने की दीवार पर बीड़ी सुलगा कर बैठ गया और चूना पुती दीवार पर लिखी इबारत को देखता रहा. हम उसका चेहरा देखते रहे. वहाँ नाराजगी जैसा कुछ नहीं था. हिम्मत करके हमने पूछा, उस्ताद ये कौन कर गया? आपको फिर से मेहनत करनी पड़ेगी. उसने कहा, नहीं ठीक है. बात तो ठीक ही लिखी है लिखने वाले ने. इसको यूँ ही रहने देते हैं. उसने बीड़ी फैंकी और झोला उठा कर चल दिया.

उस दिन मुझे पक्का विश्वास हो गया कि इस देश का आम आदमी मूल रूप से साम्प्रदायिक नहीं है. उसे अपनी रोजी-रोटी कमाने से फुर्सत नहीं, कहाँ इन झगड़ो में पड़े. चतुर राजनीतिज्ञ कुछ ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देते हैं कि यह आम जन साम्प्रदायिक बलवे में मर जाने को विवश है और दाँव लग गया तो सामने वाले की गर्दन भी उतार लेता है.

रामलीला शुरू होने वाली थी. रामलीला कमेटी वालों ने देखादेखी उस दीवार पर बाकायदा सीमेंट का पक्का ब्लैक-बोर्ड बनवा दिया. उस पर रामलीला के आज शाम के कार्यक्रम लिखे जाने लगे. फिर रामलीला खत्म हुई. हम दो-एक लोगों ने एक डिब्बा ब्लैक-जापान लाकर उस बोर्ड पर पोत दिया. एक चॉक का पैकेट बगल में नवीन की दुकान में रख दिया. बोर्ड में हर रोज एक शेर लिखा जाने लगा:-

अब के बरस भी देखेंगे हम सावन भीगी आँखों का,
अब के बरस भी तन्हाई के बादल अपने सर पर हैं.

कुछ ही दिनों में लोगों का ध्यान इस तरफ जाने लगा. लोग दो पल रुक कर शेर पढ़ते और मुस्कराकर अपनी राह लेते. कई लोग रास्ता बदल कर इसे पढ़ने आते. हमें भी अच्छा लगा. लाइब्रेरी से शायरों के दीवान लाये गए, ख़रीदे गए. रेडियो पर गज़लें सुनीं कि शायद कोई काम का शेर हाथ लग जाए. कोशिश होती थी कि शेर सस्ता न हो और इतना कठिन भी न हो कि गैर उर्दू भाषी जनता के सर से निकल जाए.

कई बार ऐसे भी शेर मिल जाते कि जिनका ताल्लुक एक दूसरे से होता-

इस जज़्ब-ए-दिल के बारे में इक मशवरा तुमसे करना है,
उस वक़्त मुझे क्या लाज़िम है जब ये दिल तुम पर आ जाए?

फिर दूसरे दिन लिखा जाता-

अबके हम मिले तो बिछड़ जाएँगे कई लोग,
इंतज़ार और करो मिरा अगले जनम तक.

एक दिन किसी को चिट में शेर लिख़ के दिया कि यार ज़रा इसे बोर्ड पर लिख दे. उसने लिखा-

बड़ी दिलचस्प हो गई है तिरे चलने से रहगुजर,
उठ-उठ के गर्दे-राह मिलती है गर्दे-राह से

ज़रा देर में किसी राह चलते आदमी ने पूछा- भाई, ये थर्टी सिक्स-थर्टी सिक्स क्या मतलब ? शेर जिसने लिखा उसकी राइटिंग कुछ ऐसी थी कि ‘उ’ ‘3’ जैसा लगता था और ‘ठ’ ‘6’ जैसा.

लोग शेर पढ़ते थे, सराहते थे, नोट भी कर लेते थे.

इस कदर बस गई है सियासत मिजाज में,
मैं जिस से मिल रहा हूं, उसी के खिलाफ हूँ.
नक्शा उठा कर शहर कोई ढूंढिए नया,
इस शहर में तो सब से मुलाकात हो गई.

दिनों के हिसाब से भी शेर लिखे जाते थे. मजदूर दिवस, 15 अगस्त और 14 फरवरी वगैरा. एक बार यह सिलसिला न जाने किस कारण कुछ समय तक रुका रहा. फिर एक दिन बोर्ड पर ब्लैक जापान पोता गया और दूसरे दिन इस शेर से शुरू किया –

शायद मुझे निकाल कर पछता रहे हों आप
महफिल में इस खयाल से फिर आ गया हूँ मैं.

कई बार शेर के साथ टिप्पणी भी लिख दी जाती अगर सूझी तो –

उनको पाने की तमन्ना बड़ी चीज़ है,
मगर दोस्तों, सिर्फ तमन्ना से क्या होता है.

(सही बात. पास में अच्छी-सी नौकरी भी होनी चाहिये वर्ना खायेगा क्या, घुंय्ये की जड़ ?)

कई साल बीते. यह सिलसिला अब बंद हो गया. यादें बाकी हैं, रहेंगी.

कई साल बाद आज ऐसा हुआ
बड़ी देर तक खुद को हम याद आए.

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शम्भू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.

नैनीताल समाचार से साभार

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  • वाह। रोजी खान को मैंने भी अक्सर रानीखेत में लिखते देखा। दिलचस्प और दूसरे के लिए बड़े फिक्रमंद।
    शरदोत्सव मेले में अंधेर नगरी और एक था गधा के फ्यूज़न से छात्रों और शहर के नामचीन लोगों की संगत से करीब एक
    महीने की रिहर्सल के बाद नाटक हुआ था।पंडित की भूमिका में तब वकालत कर रहे अजय भट्ट थे तो सूत्रधार फौजी कैप्टन दास। वर्मा प्यारे की दुकान से पान बंधवा आगे गाँधी जी की प्रतिमा वाले चौराहे के नीचे नजर पड़ी तो देखा। चौक से रोजी भाई ने लिख डाला था ,अंधेर नगर का गधा।
    वो भूली दास्ताँ ````````

  • वास्तव मेँ अल्मोडा बुध्दिजीवियों का नगर रहा है। बहुत ही सुंदर लेख लिखा लेखक ने। पुरानी यादें ताजा हो गईंं। धन्यवाद।

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