जब स्वराज पार्टी 1923 के चुनाव में वर्तमान उत्तराखण्ड की तीनों प्रांतीय सीटें जीती तो कौंसिल में गोविन्द वल्लभ पन्त को नया सदस्य होने के कारण पीछे की पंक्ति में सीट दी गयी. थोड़े समय बाद जब पन्त जी ने पर्वतीय महिलाओं से संबंधित विधेयक पर एक भाषण दिया तो सभी पन्तजी को स्वराज दल का एक उच्चतम नेता समझने लगे. कुमाऊं के लिए यह गौरव की बात थी कि विधना परिषद में स्वराज दल के 30 सदस्यों में तीन कुमाऊं के थे. गोविन्द वल्लभ पन्त को इस परिषद में पहले विरोधी नेता का पद भी प्राप्त हुआ.
विधान परिषद् के प्रथम अधिवेशन में ही पन्त जी ने कुमाऊं के बागेश्वर ( तब का अल्मोड़ा ) के मेले में धारा 144 लगाए जाने तथा सड़कों इत्यादि के प्रश्न पूछकर सरकार का ध्यान कुमाऊं प्रदेश की समस्याओं की ओर आकर्षित किया. पन्त ने कुमाऊं प्रदेश की वन समस्या की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने जंगलों में आग लगने के आरोप में सजा पा रहे कैदियों को छोड़ने की सिफारिश की गयी.
पन्त ने अपने भाषण में प्रतिवाद किया कि – “ यह आग जानबूझकर नहीं लगायी गयी. लेकिन सरकार ने यह मान लिया कि लोगों ने जबरदस्ती आग लगायी है. सरकार रहे या जाये, पर हमारे जंगल सदैव रहेंगे. यह बात हमारी बेहतरी के लिए है कि जंगल सुरक्षित रहें. सबसे गलत बात यह की गयी कि बिना न्यायिक जांच किए तमाम लोगों को यह फैसला पढ़कर सुना दिया गया कि आग उन्होंने लगाई है… एक वकीन की हैसियत से मैंने कुछ मुकदमों के कागज देखें हैं. मैं दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि यदि ये मुकदमे गैर-सरकारी होते तो मुश्किल से 5 प्रतिशत लोगों को सजा मिलती. हालांकि मुक़दमे एक ही ढंग के थे, लेकिन सजाएं सबको अलग-अलग हुई. कुछ को तो काफी लम्बी सजाएं दी गयीं. सरकारी रिपोर्ट में भी यह स्वीकार कर लिया गया है कि कुमाऊं में लोगों को जंगलात संबंधी भीषण कष्ट हैं. वे जंगलों में अपने मवेशी नहीं चरा सकते और उन्हें ऊँची-ऊँची चोटियों से घास व् लकड़ी लानी पड़ती है… जब काफी लोग इस अपराध में थोड़ी सजाएं देकर छोड़ दिये गये, तो मैं चाहता हूँ कि ये लोग भी जो दो साल से अधिक की सजा भुगत चुके हैं, छोड़ दिये जाएं, भले ही वे अपराधी क्यों न हों.”
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