वर्तमान समय ऐसा है कि किसी विश्वविद्यालय की असल स्थिति का जायजा लेना हो तो उठा कर उसकी वर्ड या नेशनल रैंकिंग देख लीजिए आपको एक आइडिया मिल जाएगा कि विश्वविद्यालय के हालात क्या हैं. टाइम्स हायर एजुकेशन की हालिया वर्ड यूनिवर्सिटी की रैंकिंग पर नजर डाले तो पाएँगे कि पहले 300 स्थानों में भारत की एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है. हालाँकि भारत ने कुल 56 यूनिवर्सिटीज के नाम टाइम्स हायर एजुकेशन को भेजे थे लेकिन 2012 के बाद यह पहला मौका है जब भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी टॉप 300 में जगह नहीं बना पाई है. अगर टॉप 500 में नजर डाली जाए तो उसमें भारत की सिर्फ 6 यूनिवर्सिटीज अपना स्थान बना पाई हैं. इंग्लैंड की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी पिछले चार सालों से लगातार पहले स्थान पर काबिज है. अमेरिका की 60 यूनिवर्सिटीज पहले 200 स्थानों में सम्मिलित हैं. चीन की दो यूनिवर्सिटीज 23वें व 24वें स्थान पर हैं. भारत से कई गुना बेहतर प्रदर्शन कर ईरान व ब्राजील की यूनिवर्सिटीज ने कई विकसित देशों को पीछे छोड़ दिया है.
इस तरह की रैंकिंग बहुत से पैमानों को ध्यान में रखकर की जाती है. उसमें कुछ महत्वपूर्ण पैमाने हैं- शोध कार्य, अकादमिक गतिविधियॉं, यूनिवर्सिटी एक्सचेंज प्रोग्राम, अन्तराष्ट्रीय स्तर पर यूनिवर्सिटी की पहचान व छात्रों का झुकाव आदि. भारत में अगर आईआईटी, आईआईएससी व कुछ केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ दें तो बाकी के हालात बहुत ज्यादा अच्छे नहीं हैं. आए दिन छात्र अपनी माँगों को लेकर सड़कों व प्रशासनिक भवनों में धरना देते देखे जा सकते हैं.
देश के समस्त विश्वविद्यालयों का अध्ययन यहॉं पर संभव नही है लेकिन केस स्टडी के तौर पर हम उत्तराखंड के हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय को ले सकते हैं. श्रीनगर, गढ़वाल की घाटी में बसा एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय पहले राज्य यूनिवर्सिटी के तौर पर स्थापित हुआ और सन 2009 में इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया. श्रीनगर में बिरला व चौरास कैंपस के साथ विश्वविद्यालय के दो अन्य कैंपस एसआरटी, टिहरी व बीजीआर, पौड़ी में संचालित किये जाते हैं. हिमालयी क्षेत्र में इस तरह के कैंपसों का होना छात्रों के लिए एक उम्मीद की किरण जगाता है लेकिन विश्वविद्यालय में दाख़िला लेने के बाद अधिकतर छात्रों को मायूसी ही हाथ लगती है. प्रकृति की गोद में, शहरी भागदौड़ व प्रदूषण से दूर इन कैंपसों में देश के विभिन्न कोनों से छात्र-छात्राएँ पढ़ने के लिए आते हैं लेकिन विश्वविद्यालय की आंतरिक कलह व पठन-पाठन की दयनीय स्थिति को देखकर कई बार उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा भी होता है.
कैंपस में बड़े-बड़े भवन, लैब, लाइब्रेरी, सभागार सब कुछ मौजूद है लेकिन उनके रख-रखाव को लेकर कोई सजगता नही है. स्थाई कर्मचारियों को देखकर कई बार ऐसा महसूस होता है जैसे जिम्मेदारियों का निर्वहन उनके लिए बोझ है. बीटेक के छात्रों से पूछो तो बताते हैं दो या तीन से ज्यादा कक्षाएँ नहीं लगती और प्रेक्टिकल लैब तो पूरे सेमेस्टर में यदा-कदा और परीक्षा के समय ही देखने को मिलती है. छात्रों की उपस्थिति को लेकर किसी तरह की न तो कोई सख्ताई है और न ही 75% उपस्थिति के नियम का पालन. पूरे सेमेस्टर कक्षा में आने वाला छात्र भी परीक्षा देता है तो कुछ नए चेहरे भी पहली बार परीक्षा हॉल में ही नजर आते हैं.
स्थाई शिक्षकों का विश्वविद्यालय में अकाल है जिसके एवज में कुछ अतिथि शिक्षकों के साथ शोध छात्र पढ़ाने को मजबूर हैं. शोध की गुणवत्ता पर तो लम्बे-लम्बे व्याख्यान दिये जाते हैं लेकिन जिन छात्रों को असल में शोध करना हैं उन्हें पढ़ाने से लेकर पेपर बनाने व कॉपी चैक करने तक के तमाम कामों में उलझा कर रखा जाता है. पिछले 5-6 सालों से विश्वविद्यालय में स्थाई शिक्षकों का चयन नहीं हुआ है. दो बार विज्ञप्ति आई भी तो विभिन्न कारणों व कोर्ट स्टे की वजह से रद्द करनी पड़ी. एक बार पुन: इस सत्र में विज्ञप्ति आई है लेकिन भर्ती प्रक्रिया पूरी होगी या नहीं इस पर सभी की नजर बनी हुई है. विश्वविद्यालय में शिक्षकों की जवाबदेही भी काफी हद तक तय नहीं लगती. बायोमेट्रिक न होने के कारण शिक्षक अपनी सुविधानुसार आवागमन करते रहते हैं.
कई विभागों के हाल तो यह हैं कि उनके यहॉं किताबों व लैब के लिए पैसा आता है लेकिन उसका उपयोग न होने की वजह से वह पैसा वापस चला जाता है. स्टूडेंट एक्सचेंज प्रोग्राम के नाम पर विश्वविद्यालय का कोई सकारात्मक रवैया नही है. नए सत्र में बाहर से आए छात्रों को हॉस्टल के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं. छात्रों को हर बार यह कहकर प्रसाशनिक भवन के चक्कर लगवाए जाते हैं कि लिस्ट कल या परसों आएगी. इस वजह से ग़रीब छात्रों के सिर पर बाहर किराये में रहने का अतिरिक्त बोझ पड़ता है. विश्वविद्यालय छात्रों या छात्र संघ की अनेक मांगों को हर बार यह कहकर ठुकरा दिया जाता है कि विश्वविद्यालय के पास बजट नहीं है. कॉस्ट कटिंग के नाम पर कई अस्थाई कर्मचारियों व अतिथि शिक्षकों की छुट्टी कर दी गई जिसे लेकर छात्र संघ के नेताओं ने कई दिनों तक आंदोलन भी किया. विश्वविद्यालय की आंतरिक राजनीति का खामियाजा हर बार छात्रों को भुगतना पड़ता है.
पिछले लगभग दो साल से विश्वविद्यालय स्थाई कुलपति की बाट जोह रहा है. जिस विश्वविद्यालय में मुखिया ही स्थाई न हो वहां कैसी अव्यवस्था फैल सकती है इसका आँकलन आसानी से किया जा सकता है. एक स्थाई कुलपति की नियुक्ति कोई बहुत बड़ा मसअला नहीं है लेकिन आप जानते हैं कि उस कुर्सी तक पहुँचने के लिए कितने दॉंव-पेंच लगाए जाते होंगे. इसी दॉंव-पेंच का नतीजा है कि न तो स्थाई कुलपति की नियुक्ति हो पा रही है और ना ही विश्वविद्यालय के उन कामों को अंजाम दिया जा रहा है जिसकी शक्ति स्थाई कुलपति के हाथ में होती है.
विश्वविद्यालय छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों व कुलपति के आपसी सहयोग व दायित्वों के निर्वहन से आगे बढ़ता है लेकिन गढ़वाल विश्वविद्यालय में इन दायित्वों का निर्वहन करने वाले लोग विरले ही हैं. नई शिक्षा नीति के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में समस्त कर्मचारियों, शिक्षकों व छात्रों की जवाबदेही तय करने की नितान्त आवश्यकता है. आंतरिक राजनीति व दुराभाव किसी भी विश्वविद्यालय के लिए घातक सिद्ध होते हैं. इन सबसे बचते हुए विश्वविद्यालय को अपने पठन-पाठन, शोध कार्यों, शैक्षणिक क्रियाकलापों, पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं आदि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये. यही सब मापदण्ड हैं जिन पर खरा उतरकर हम अपने विश्वविद्यालय की रैंकिंग में सुधार ला सकते हैं व हिमालय की गोद में बसे इस विश्वविद्यालय की ओर अधिकाधिक छात्रों का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं.
नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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2 Comments
Dheeraj Bhatt
अत्यंत सटीक टिप्पणीयॉं जोशी जी। आपकी व्यथा समझ सकना कठिन नहीं है।
Dheeraj Bhatt
विश्वविद्यालय की तस्वीर भी बेहतरीन है। ऐसे दृश्य को देख जोशी जी द्वारा बताए गए हालातों पर विश्वास करने की रुचि नहीं होती:)