बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि जैसे प्रख्यात तीर्थों की भूमि गढ़वाल में स्थान स्थान पर अनेकों प्राचीन मंदिर विद्यमान हैं जो न केवल धार्मिक अपितु पुरातात्विक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं. इसके दुर्गम आंतरिक प्रदेशों तक भी छोटे-छोटे गांव में प्राचीन मंदिर कहीं एकाकी और कहीं समूहों में अपने गौरवमयी इतिहास के साक्षी हैं. विभिन्न कालों और विभिन्न विशेषताओं वाले ये देवालय गढ़वाल में मंदिर निर्माण के विकास क्रम को उजागर करते हैं.
प्रारंभिक वृक्ष-वेदिका वाले पूजा-स्थल जिनका आज भी प्रचलन है, यमुना तट पर बड़ाहाट से प्राप्त यज्ञ-वेदियों, कोटद्वार के पास मोरध्वज से और ऋषिकेश के पास वीरभद्र आदि से खुदाई में मिली ईटों से निर्मित मंदिरों के अवशेष प्रमाण हैं कि गढ़वाल कभी भी शेष भारत से किसी भी क्षेत्र में अलग नहीं रहा.
वैष्णव के अभ्युत्थान के फल-स्वरुप सातवीं-आठवीं शताब्दी में गढ़वाल में भी मंदिर निर्माण कार्य में अत्यधिक प्रगति हुई. पावन नदियों के संगम, पर्वत शिखरों और गर्म जल स्त्रोतों के पास अनेक मंदिर बनाये गए. एक विशाल परिसर के केंद्र में मुख्य मंदिर बनाकर देवकुल के अन्य देवी-देवताओं के देवालय बनाने की प्रथा प्रारंभ की गई.इसके अतिरिक्त एक ही मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश द्वार के सामने वाली भित्ति के आगे सिहासन पीठिका पर मुख्य आराध्य देव प्रतिमाओं की प्रति स्थापना के साथ-साथ अन्य देवी देवताओं के लिए कई आले, गवाक्ष, राथिकाएं. शय्या कक्ष, वेदी आदि बनाने का प्रचलन हुआ. गढ़वाल में 12वीं- 13वीं शताब्दी तक मंदिर निर्माण-कार्य होता रहा. जिसके लिए ईट, काष्ठ और प्रस्तर का प्रयोग किया गया. गढ़वाल के उल्लेखनीय काष्ठ मंदिर और मंदिर समूहों में रवाई क्षेत्र के पैगोडाकार छत्र वाले काष्ठ मंदिर जैसे हनोल का महासु, चींवा का शिव मंदिर और नैटवाड़ का पोखूदेवता मंदिर मुख्य हैं. इनके काष्ठ पट्टों पर पौराणिक कथाओं का उकेरन है. प्रवेश द्वार पर लतापर्ण, पुष्पावली, नाग आदि का अलंकरण है.
काष्ठछत्र वाले विद्यमान प्रस्तर मंदिरों में प्रख्यात मंदिर लाखामंडल का लाखेश्वर मंदिर, गोपेश्वर मंदिर, बद्रीनाथ, केदारनाथ, तुंगनाथ, नागेश्वर शिवमंदिर आदि हैं. इनके अतिरिक्त देवप्रयाग, ऊखीमठ, बिनसर, मद्मेश्वरआदि के मंदिर भी काष्ठ छत्र के हैं. ये सभी गर्भगृह के साथ मंडपयुक्त हैं. भित्तियों पर कहीं-कहीं तोरण अलंकरण युक्त रथिकाओं में गणपति, कार्तिकेय, महिषासुर-मर्दिनी, गंगा-यमुना आदि के विम्ब दर्शाए गए हैं.
प्रस्तर निर्मित प्राचीन मंदिर समूहों में चमोली जनपद का आदि बदरी मंदिर समूह सबसे प्रसिद्ध है. इसके विशाल परिसर में 16 मंदिर थे अब 14ही शेष हैं. ऊंची जगती पर निर्मित विष्णु मंदिर इस समूह का सबसे प्राचीन मंदिर है. यह गर्भगृह, अंतराल, सभा मंडप और अर्द्धमंडप-युक्त है. अर्द्धमंडप में दोनों ओर कक्षासन हैं. ऊंची जगती से अर्द्धमंडप तक प्रवेश के लिए सीढियां बनी हैं. शिखर आमलक और कलशयुक्त है. मंदिर के समक्ष निचले स्तर पर विष्णु के वाहन गरुड़ का मंदिर भी जिसमें गरुड़ की हाथ जोड़े प्रतिमा प्रतिष्ठित है. समूह के बांकी मंदिर केवल गर्भगृह और गर्भगृह के आगे दो स्तंभों पर आधारित अर्द्धमंडपों वाले हैं.
पौड़ी की सितौन्स्यू पट्टी में देवल का लक्ष्मण मंदिर समूह और श्रीनगर के पास सुमाड़ी गांव में वैष्णव मंदिर समूह भी ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इनके परिसरों में क्रमशः 13 और 10 मंदिर शेष हैं. दोनों ही स्थानीय विशेषतायुक्त मंदिर हैं. देवल समूह के प्रधान लक्ष्मण मंदिर और अन्य दो समूह मंदिरों में वितान की संरचना न होकर प्रस्तर पटेलों को क्रम से रखकर ढालू छत्तों का आच्छादन है जिनके ऊपर आमलक और कलश के शिखर बनाए गए हैं.
जैसा की मंदिर स्थापत्यकला में तीन प्रकार के शिखरों का वर्णन है – नागर, द्राविड़ और वेसर. नागर शिखर स्थापत्य उत्तर में और द्राविड़ का प्रचलन दक्षिण में रहा है. वेसर एक प्रकार मिश्रित रूप है गढ़वाल में केवल योगबदरी मंदिर ही वेसर शैली में बना बना है. अन्य मंदिरों की स्थापत्य कला नागर शैली में विकसित हुई है.
नगर शैली के मंदिरों में भूमि पर मंदिर निर्माण के विभिन्न कक्षों जैसे गर्भगृह, अंतराल, सभामंडप आदि की योजना वर्गाकार या आयताकार होती है. गर्भगृह में सिंहासन पीठिका पर आराध्य इष्ट की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की जाती है. कुछ मंदिरों में आवश्यकतानुसार गर्भगृह के आगे अंतराल, सभामंडप, अर्द्धमंडप आदि का विधान भी होता है.
शिव मंदिरों में शिवलिंग की स्थापना गर्भगृह के केंद्र में और शिव के वाहन नंदी की प्रतिमा कहीं शिवलिंग के आगे और कहीं कहीं सभा मंडप या प्रांगण के प्रवेश द्वार के आगे बनी रहती है.
मध्यम और छोटे मंदिरों में गर्भगृह और लघु अन्तराल के आगे अर्द्धमंडप और कहीं-कहीं गर्भगृह के आगे केवल लघु मंडप ही है. मंदिरों के प्रांगण में वीर स्तंभ और दाएं बाएं लघु मंदिरों का निर्माण भी किया जाता था जैसे देवलगढ के गौरा मंदिर में हैं.
मंदिरों के प्रवेशद्वार, भित्तियों, वितानों और स्तंभों पर घट-पल्लव, लतापर्ण, पशु-पक्षी, भांति=भांति के किर्तिमुखों, स्वस्तिक मिथुन, ज्यामितीय एवं स्थापत्य (जैसे मंदिर, तोरण, धरण शीर्ष) अभिप्रायों का अलंकरण उकेरित है पर काल और जलवायु की विषमता से अब अस्पष्ट सा है.
मनोरमा भटनागर का लिखा यह लेख पुरवासी के 2011 के अंक से साभार लिया गया है.
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