बचपन के उन दिनों गांव से आने वाला कोई परिजन या अन्य ग्रामीण जब घर से आई समौण (सौगात) के तौर पर एक-दो पोटलियां मां के हाथ में सौंपता था तो हमारी निगाह उसके अंदर अखरोट, च्यूड़े, नारंगी और माल्टा को तलाशती रहती. उस पोटली में हमारे मनोवांछित अखरोट, च्यूड़े, नारंगी आदि तो होते ही, पर उसके साथ और भी बहुत कुछ हुआ करता था. गहत की दाल, भट्ट, छिमले ( छोटे आकार की राजमा), मोठ, रैंस, मंडुवे का आटा, घर के लाल चावल आदि-आदि. मां अखरोट, नारंगी, च्यूड़े आदि हम बच्चों में बांट कर बाकी चीजें सहेज कर रसोई में रख लेती. ये समौण गांव से ताई हमें उस जमीन के एवज में भेजा करती थी, जो पिताजी के हिस्से में थी और ताऊ जी लोग उस पर खेती किया करते थे. कितनी ईमानदारी और कैसा निश्छल भ्रातृभाव था उस दौर के उत्तराखंड में. देश के दूसरे हिस्सों में भले ही जर, जोरू और जमीन को झगड़ों व रंजिश की वजह माना जाता हो, लेकिन इस देवभूमि में चार-छह नाली जमीन से नाममात्र की पैदावार में से मुट्ठी-दो मुट्ठी जो भी हो सके भ्रातृ स्नेह के वश पूरी ईमानदारी से हर वर्ष भेजना भूला नहीं जाता.
पहाड़ी मूले का थेचुवा खाइए जनाब, पेटसफा चूरन नहीं
हमारे लिए उस पोटली में अखरोट, च्यूड़े वगैरह मतलब की चीजें होते थे, मगर मां के लिए सबसे काम की चीज गहत की दाल हुआ करती थी. इस गहत से मां की रसोई में कई दिन तक सुबह नाश्ते में बेडू रोटी बन जाती. अनेक बार दोपहर में दाल बन जाती और कई दिन फाणा भी. हालांकि गांव से आई इस दाल की मात्रा कोई बहुत अधिक नहीं होती, फिर भी इससे मां के दोहरे उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती. पहला तो कुछ समय के लिए रसोई में दाल का बजट थोड़ा कम हो जाता और दूसरे शहर में रहते हुए अधिकतर अरहर, चने की दाल के सेवन से उब चुके मन को कुछ समय के लिए चेंज मिल जाता. जीभ पर गांव का स्वाद ताजा हो जाता और थोड़े वक्त के लिए ही सही गांव की माटी से ढाई सौ किलोमीटर शहर में रहने की कसक भी दूर हो जाती.
मां ही उन दिनों सुनाया करती थी कि गहत की दाल बड़ी गुणकारी होती है और इसका पानी पीने से पथरी रोग खत्म हो जाया करता है. मां किस्सागोई के फन में माहिर थी तो इसके साथ ही नानी के हाथ के बने फाणा से लेकर गहत की दाल से जुड़े एक-दो किस्से और सुनाया करती थी. आगे चलकर मुझे यह भी सुनने को मिला कि गहत इस कदर पाषाणभेदी है कि पुराने वक्त में जब रासायनिक विस्फोटक नहीं हुआ करते थे तो पत्थरों व चट्टानों को तोड़ने में गहत की दाल का पानी प्रयोग में लाया जाता था और चट्टान मोम की तरह पिघलते हुए दरक जाया करती थी. हालांकि यह बात कितनी प्रामाणिक और पुष्ट है, इस बात का मुझे कोई साक्ष्य नहीं मिल सका. फिर भी सोचता हूं कि जब पुराने वक्त में मकानों को चिनने में उड़द की दाल का इस्तेमाल होता रहा है तो हो सकता है कि चट्टानों को तोड़ने में गहत भी प्रयोग में लाई जाती रही हो. हां, गहत का पानी पीने से पथरी रोग में आराम मिलने की बात कहते मुझे सैकड़ों लोग जरूर मिले हैं. न केवल उत्तराखंड में, अपितु पंजाब, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर प्रांतों में भी. गहत में पथरी को गला कर शरीर से बाहर निकालने का यह गुण उसमें मौजूद तत्वों के कारण पाया जाता है.
गहत को कुल्थ भी कहा जाता है, इसका मुझे पंजाब में रहते हुए पता तब चला जब किसी ने मुझसे पूछा कि भई आपके यहां तो कुल्थ खूब होती है. मैंने ऐसी किसी दाल की जानकारी होने से अनभिज्ञता जताई तो उन सज्जन ने स्पष्ट करते हुए इसके पथरी रोग के उपचार में उपयोगी होने का संदर्भ दिया. अब मुझे समझ में आ गया कि ये गहत की बात कर रहे हैं. मैंने उन्हें बताया कि इसे उत्तराखंड में गहत कहा जाता है. इस तरह बातचीत के इस सिलसिले से उन्हें यह मालूम पड़ गया कि उनकी कुल्थ ही उत्तराखंड में गहत कहलाती है और मेरे ज्ञान में भी गहत के कुल्थ नाम भी होने की वृद्धि हो गई. साथ ही यह भी मुझे मालूम पड़ गया कि पंजाबी भी गहत के जानकार और उपभोगी हैं. हालांकि पंजाब में कुल्थ उगाई नहीं जाती है और पंजाबी इसके किसी व्यंजन का सेवन भी नहीं करते हैं. उनके लिए इसका उपयोग सिर्फ पथरी के उपचार तक ही सीमित है और पंजाब में गहत की आमद हिमाचल प्रदेश के निचले हिस्सों के जिलों ऊना, कांगड़ा, हमीरपुर आदि से होती है. हिमाचल की ये गहत लाल-गेरुवे से रंग की अपेक्षाकृत छोटे आकार की होती है, जबकि उत्तराखंड में गहरे भूरे-काले रंग की गहत ज्यादा चलन में है.
इसके बाद गहत को लेकर मेरी जिज्ञासा और बढ़ी तो ज्ञात हुआ कि गहत गुजराती में कुल्थी और हिंदी में कुलथ है, जबकि संस्कृत में ये कुलत्थिका है. दिलचस्प तो ये है कि मैंने कभी घोड़े को गहत खाते नहीं देखा, पर अंग्रेजी में इसका नाम हॉर्स ग्राम (Horse Gram) है. हो सकता है गहत के उद्गमस्थल अफ्रीका में ये घोड़ों का प्रिय आहार रहा हो और इस कारण इसका ये नाम पड़ गया हो. अगर ऐसा है तो ये दाल उन लोगों के लिए काफी मुफीद है, जो अश्वशक्ति हासिल करने की कामना करते रहते हैं और इसके लिए काफी महंगे चिकित्सा उपाय भी करते हैं. मजे की एक बात और है कि गहत की दाल के सर्वाधिक लोकप्रिय उपयोग उत्तराखंड में है, लेकिन इसका सर्वाधिक उत्पादन कर्नाटक में होता है. देश की 28 प्रतिशत गहत वहीं पैदा होती है, जबकि तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा भी 10-10 प्रतिशत पैदावार के हिस्सेदार हैं. दक्षिण में इस दाल का क्या उपयोग है, इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है. कभी दक्षिण यात्रा हुई तो इसका पता जरूर लगाऊंगा.
दक्षिण वाले कितनी ही गहत पैदा कर लें, पर इसे खाना और जीना उत्तराखंड वाले ही जानते हैं. हल्द्वानी, देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, रामनगर में रहने वाले तो सीजन में आखिर तक आस लगाए बैठे रहते हैं कि पहाड़ से कोई मुफ्त की दो-चार किलो लेता आए. हुआ तो ठीक, नहीं तो आखिर में बाजार की शरण लेते हैं. दिल्ली, लखनऊ, बरेली, चंडीगढ़ वगैरह में रह रहे पहाड़ी भी सीजन में फोन कर-करके याद दिलाते रहते हैं कि अगर हो सके तो दो-तीन किलो गहत का जुगाड़ करके रखना. उत्तराखंडियों की गहत के प्रति इस अतिशय आसक्ति के कारण ही पिछले साल गहत 140 रुपये किलो तक बिक गई और खरीददारों की कमी नहीं पड़ी. सीजन का अंत आते-आते बाजार में एक दाना भी नहीं बचा. जब तक गांव में थे तो गहत से बिगलाण (विरक्ति) आती थी, लेकिन मैदानों में बसते ही यही दाल पहाड़ से याद जोड़े रखने का सेतु बन गई. मी भी उत्तराखंडी छूं का प्रतीक हो गई. गहत की मांग किस कदर बढ़ती जा रही है, उसे इसी बात से समझा जा सकता है कि सीजन शुरू होते ही इसका अधिक से अधिक भंडारण करने के लिए हल्द्वानी के व्यापारी देवीधुरा, पाटी, लोहाघाट, शहरफाटक, लमगड़ा की तरफ दौड़ पड़ते हैं और देहरादून के व्यापारी टिहरी जिले के अंदरूनी इलाकों व जौनसार भाभर का रुख करते हैं.
अद्वितीय होता है कुमाऊं-गढ़वाल का झोई भात
आखिर ऐसा क्या है गहत की दाल में, जो दिन ब दिन इसकी मांग बढ़ती जा रही है. क्या अपनी चिकित्सकीय उपयोगिता के कारण ही यह इतनी लोकप्रिय है या कुछ और भी. चिकित्सकीय गुणों से परे गहत एक नोस्टाल्जिया भी है और स्वाद का अप्रतिम स्रोत भी. इसे आप दाल के रूप में बनाएं या फाणा के रूप में, इसकी बेड़ू रोटी बनाएं या बड़ियां. हर रूप में एक बेजोड़ और बेहतरीन स्वाद मौजूद है, जो आंतों को तो तृप्त करता ही है दिल को भी लबालब कर देता है. कुशल गृहणियों को तो अपने पति के दिल पर राज करने के लिए गहत की दाल के व्यंजन जरूर खिलाने चाहिए क्योंकि एक पुरानी अंग्रेजी कहावत के अनुसार पति के दिल में घुसने का रास्ता उसकी आंतों से होकर गुजरता है. वैसे चाहें तो पुरुष भी इस कहावत पर अमल करके फायदा उठा सकते हैं. मैं तो उठा चुका हूं.
अब प्रश्न यह है कि गृहस्थी में खुशियों की मुस्कान बिखेरने के लिए गहत के किस व्यंजन से शुरुआत की जाए. दाल बनाना बड़ा ही आसान है. बाकी दूसरी दालों की तरह ही उबाली, मसाले मिलाए और तड़का लगाया. फर्क इतना ही है कि मसालों व तड़के का फ्लेवर पहाड़ी हो तो इस दाल की असली रंगत आ जाएगी. बेड़ू रोटी बनाना भी कोई मुश्किल नहीं. रात को गहत भिगाए, सुबह नमक मिलाकर उबाले और इन्हें जरूरी मसालों के साथ सिलबट्टे या ग्राइंडर में पीसकर आटे की लोइयों में भरकर रोटियां पका ली. अब पसंद आपकी है कि आप इन रोटियों पर ऊपर से मक्खन रखकर खाते हैं या फिर तवे पर ही देसी घी लपेट कर परांठे की शक्ल दे देते हैं. गहत की बड़ियों पर हम फिर किसी और लेख में चर्चा करेंगे, फिलहाल तो हम गहत के विशिष्ट व्यंजन फाणा पर बात कर लेते हैं. कुमाऊं मंडल में प्रचलित भट्ट के डुबकों से मिलता-जुलता यह गहत का फाणा गढ़वाल मंडल में काफी प्रचलित है और पूरी सर्दी भर गढ़वाल की रसोइयों में कड़ाही भर-भर पकता है और इसके शौकीन इस पर भूखे शेर के मानिंद टूट पड़ते हैं. तो लीजिए इस बार गहत के फाणे पर हाथ आजमाइए. यद्यपि इसकी विधि भट्ट के डुबके बनाने की विधि से मिलती-जुलती है. सिर्फ इतना अंतर है कि डुबकों में हम थोड़े से चावल भी भिगाकर मिलाते हैं, जबकि फाणे में इसकी जरूरत नहीं. दूसरे डुबके में नमक सबसे आखिर में डाला जाता है, लेकिन फाणा में आप पहले ही मिला सकते हैं.
आवश्यक सामग्री (चार-पांच लोगों के लिए)
गहत- 200 ग्राम
खाद्य तेल- 50 ग्राम
नमक- स्वादानुसार
धनिया पाउडर- एक चम्मच
लहसुन-चार कली
साबुत लाल मिर्च- दो से तीन
गंधरायण- चने के दाने बराबर
देसी घी- दो चम्मच
हींग- एक चुटकी
जम्बू- एक ग्राम
हरा धनिया- गार्निशिंग के लिए
बनाने की विधि
रात को गहत को पानी में भिगो लीजिए. अगली सुबह इन्हें सिलबट्टे पर या ग्राइंडर में पीस लें. गंधरायण, लहसुन के टुकड़े और साबुत लाल मिर्च को भी साथ में ही पीस लें. गहत के इस पेस्ट में थोड़ा पानी मिलाकर इसे थोड़ा सा पतला कर लें. एक जग भर कर पानी चूल्हे के बगल में रख लें.
भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है
अब चूल्हे पर गहरी कड़ाही चढ़ाकर उसमें खाद्य तेल को गर्म कर लें. तेल गर्म होने पर गहत के घोल को हल्के-हल्के उसमें डालिए. इस घोल को तेजी से करछी से घुमाते हुए भूनते रहिए ताकि इसके थक्के न जमने पाएं. जब यह घोल कड़ाही में मौजूद तेल को पूरा अपने में जज्ब कर ले तो जग से इसमें धीरे-धीरे पानी डालना शुरू कीजिए और साथ ही करछी से चलाते रहिए. करछी से चलाते रहने का कारण ये है कि घोल की गांठें नहीं बननी चाहिए और पेस्ट कड़ाही के तले में नहीं लगना चाहिए. कड़ाही को पानी से लबालब भर लें. इसमें धनिया पाउडर व नमक भी डाल दीजिए. पहले तेज आंच में और एक-दो उबाल आने के बाद इसे मद्धम आंच में काफी देर तक पकने दीजिए. पकाते-पकाते जब फाणे का पानी कड़ाही में आधे से भी कम हो जाए और इसके ऊपर से मलाईदार परत जमने लगे तो समझ लीजिए फाणा बनकर तैयार हैं. अब चूल्हे को बंद कर दें. एक करछी में देसी घी गर्म कर उसमें हींग व जम्बू का तड़का बनाकर उसे फाणे के ऊपर मारें. अंत में हरे धनिया से गार्निश करें.
कुछ लोग फाणे को पतला रखते हुए उसमें गहत की ही पकोड़ियां भी डालते हैं तो कुछ लोग बारीक-बारीक काटकर पालक के पत्ते भी मिलाते हैं, पर मुझे यह ऊपर बताई गई विधि के अनुसार अपने ठेठ रूप में गाढ़ा-गाढ़ा सा ही पसंद है. हां, इसके साथ कोई हरी सब्जी, भांग या धनिये की चटनी और लाल तली हुई मिर्च मेरी भूख को थोड़ा और बढ़ा देती है.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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2 Comments
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बहुत सुंदर चंद्रशेखर जी अबकी बार जरूर ट्राई करेंगे इसे और यूं ही अगले लेख का इंतजार रहेगा धन्यवाद
Paripuran
वाह चंद्रशेखर जी! आप जुगराज रयां!
आपने बहुत गहरे उतार दिया सर!