[पिछली क़िस्त: 24 अप्रैल 1884 को सबसे पहले रेल पहुंची थी काठगोदाम में]
काठगोदाम में गौला नदी पर सन 1913-14 में लार्ड हार्डिंग ने 350 फीट लंबा बहुत आकर्षक धनुषाकार पुल बनवाया. जिसमें नीचे से गौलापार को नहर भी जाती थी. और ऊपर लोग आते-जाते थे. इस पुल का नाम भी हार्डिंग के नाम पर ही रखा गया था. 24 मई 1961 में आई आंधी में यह पुल टूट गया. उस दिन इस पुल की मरम्मत के लिए इंजीनियरों ने पुल के दोनों सिरों के आधार रस्सी के नट बोल्टों को खोल रखा था कि अचानक आंधी आ गई और यह ध्वस्त हो गया. इतने वर्षों तक यह पुल दर्शनीय बना रहा. इस बेजोड़ पुल के मुकाबले दोबार यहां पुल नहीं बन सका. अलबत्ता एक पुल बाद में यहां बनाया गया. हल्द्वानी नगर में बढ़ते यातायात व नगर के विस्तार के साथ यह महसूस किया गया कि गौला में एक पुल बनाकर बायपास रोड बनाई जाए. गौजाजाली के निकट से एक पुल कई वर्षों के शोरशराबे के बाद वर्ष 2003 में 4.46 करोड़ की लगात का बन तो गया किंतु जुलाई 2008 में ही ध्वस्त होकर गौला में समा गया. (Forgotten Pages from the History of Haldwani-7)
हरेभरे जंगलों से कंकरीट के जंगल में बदल चुका कस्बा हल्द्वानी अपने शुरू के दिनों में लकड़ी व्यापार का बड़ा केंद्र था. नेपाल से लेकर देश के अन्य राज्यों से व्यापारी यहां आया करते थे. पहाड़ और मैदान को जोड़ने के लिए आढ़त का जोर यहां था और पड़ाव लगते थे. उस दौर में सॉ मिल (आरा मशीन) के नाम पर “हरिदत्त सॉ मिल” खुली. जो बाद में अंग्रेजों के समय फर्नीचर के कारोबार को भी संचालित करती थी और वर्तमान में यह फर्म “हल्द्वानी फर्नीचर मार्ट ” के नाम से कालाढूंगी रोड में स्थित है. (Forgotten Pages from the History of Haldwani-7)
ससवनी, रामगढ़ के नीचे भदेलिया (नैनीताल) के रहने वाले जयदेव अपने कारोबार के सिलसिले में हल्द्वानी आकर रहने लगे. गांव में खेतीबाड़ी के अलावा भीमताल तक उनकी ठेकेदारी चलती थी. उन्होंने हल्द्वानी आकर नया बाजार में आढ़त शुरू की.
घने जंगल वाले क्षेत्र कालाढूंगी रोड पर 1910 में सॉ मिल (आरामशीन) लगाई गई. 1930 लंकासायर का बना बॉयलर (भाप का इंजन) यहां लगाया गया, जिससे आरा मशीन, धान मिल, शुगर मिल चलाई जाती थी. बायलर के निरीक्षण के लिए तब कानपुर से अधिकारी आया करते थे. कारखाना संचालन की पुख्ता व्यवस्था थी और समय से सायरन बजता था. उस दौर में लकड़ी का कारोबार तो जरूर होता था लेकिन फर्नीचर का कारोबार अंग्रेजों के आने के बाद प्रचलित हुआ. अंग्रेज नैनीताल में किराये का फर्नीचर मंगवाया करते थे. फर्नीचर की मांग बढ़ने पर 1940 फर्नीचर मार्ट की एक शाखा नैनीताल में भी खोली. टिंबर, फर्नीचर, पैकिंग का कार्य गति पकड़ने लगा. (Forgotten Pages from the History of Haldwani-7)
(जारी है)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
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