बात स्वराज आश्रम से चल कर आजादी के दीवानों की हो रही थी. इसी क्रम में वर्तमान राजनीति पर चर्चा कर लेना भी गलत न होगा. हल्द्वानी शहर आजादी की लड़ाई के समय से ही कुमाऊॅ मंडल की रानजीति का अखाड़ा रहा है. किन्तु आजादी के दौर की राजनीति और अब में बहुत अन्तर आ गया है. यों राजनीति का सीधा-सीधा मतलब तो यही निकलता है कि कुछ शक्तिशाली लोग किस प्रकार आम लोगों पर राज करें, इसकी कला जानना. राजनीति की इस लाग लपेट में कमोवेश वे सभी समा जाते हैं जिन पर राज करना होता है और जिन्होंने राज करना होता है. मुझे तो लगता है कि राजनीति का धूर्त चेहरा हमेशा एक सा रहा है भले ही अर्थ और संदर्भ बदल गये हों. Forgotten Pages from the History of Haldwani-19
अक्सर कहा जाता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान मैदान में उतरे नेतागण निस्वार्थ भाव से इस लड़ाई में कूद पड़े थे उनका लक्ष्य कोई पद पा जाना नहीं था. लेकिन सुभाष चन्द्र बोस का कांग्रेस से अलग हो जाना गॉंधी जी को तक, अपने लिए न सही, इस लागलपेट का हिस्सा बना देता है और हिन्दुस्तान के दो टुकड़े हो जाना भी इस बदकार राजनीति का ही परिणाम है. प्रजातंत्र के नाम पर अराजकता की लाठी से चूटा जाना भी आम जन की मजबूरी बन गया है. Forgotten Pages from the History of Haldwani-19
जब हम हल्द्वानी में इस राजनीति के दखल की बात करते हैं तो वह अकेले हल्द्वानी की न रह कर कुमाऊॅं में विस्तार पा जाती है और लगता है आजादी के कुछ वर्षों तक यहां की राजनीति बेदाग सी रही और बड़े सूझबूझ और दूरदृष्टि वाले नेतागण हम पर राज कर गए? उनकी दूर दृष्टि किसके लिए और कितनी दूर तक जा सकती थी इस पर भी विवाद होता रहा है. आखिर क्यों न हो यह राजनीति है ही ऐसी चीज कि सब को खुश नहीं कर सकती. हां यह जरूर कह सकते हैं कि आज के जैसे शातिर अपराधी तब राजनीति में नहीं थे. लेकिन ठाकुर – पंडित और छोटेधोती – बड़ीधोती की राजनीति भी कम शातिराना नहीं आंकी जा सकती है.
मंदिर-मस्जिद मुद्दे की तरह जातियों के चोले में, एक दूसरे के सुख-दुख बांट कर रह रह लोगों को, बांट देना आम आदमी की भावनाओं का शोषण नहीं तो क्या है? गोविन्द्र बल्लभ पन्त और सोबन सिंह जीना जैसे लोगों के राजनीति के इस खेल का ‘रभ्भड’ अभी भी खींचा जाता रहा है. गोवर्द्धन तिवारी जैसे सीधे-साधे पार्टी के लिए निष्ठावान व्यक्ति को तक इस तरह की राजनीति से कई बार निराश होना पड़ा. मालदार साहब के घराने का लाभ भी नरेन्द्र सिंह बिष्ट को इस राजनीति ने दिया.
अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय सीट आरक्षण की श्रेणी में आने तक जातिवाद की राजनीति न करने का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी हमेशा केवल ठाकुर को ही प्रत्याशी घोषित करती रही तथा नैनीताल – बेहड़ी सीट पर बड़ी धोती के प्रत्याशी को ही तलाशा जाता रहा.
पं नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में असंगठित समाज के नाम पर छोटी और बड़ी धोती का खेल आज भी जिन्दा है और श्यामलाल वर्मा इस खेल का बहुत होशियारी से चुनावों के दौरान उपयोग करते देखे जाते थे. अब इस तरह के खेल का अर्थ रह गया हो या न रह गया हो किन्तु इस रंग की हवा आज भी बहती है.
आजादी के बाद कई वर्षों तक यहां की आम जनता गॉंधी, नेहरू और पन्त जी के जैकारे लगाती रही और वह यही समझती रही कि आजादी दिलाने वाले चन्द नेताओं में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही और ये नेतागण कांग्रेस के पर्याय भी माने जाते रहे. यानी दूसरे अर्थों में आजादी लाने वाली पार्टी कांग्रेस ही रही.
जनसंघ या अन्य दलों को आम जनता तब स्वीकार ही नहीं सकी. अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले जंग बहादुर सिंह बिष्ट अपने चुनावी भाषण में कहा करते थे कि ‘मुझे वोट दो या न दो कोई फर्क नहीं पड़ता है, हारेगी तो कांग्रेस हारेगी, जीतेगा तो जंग जीतेगा.’ डंके की चोट पर ऐसा भाषण देने के बावजूद भी कांग्रेस का प्रत्याशी यानी जंग बहादुर सिंह बिष्ट ही चुनाव जीतते थे. तब लोगों में इस प्रजातंत्र के प्रति कितनी जागरूकता यानी समझ पैदा हो सकी थी इससे साफ जाहिर होता है. सवाल शासन करने के तरीकों पर नहीं हो रहा है.
आम जनता इन्हीं स्थापित नेताओं और इनके प्रतिनिधियों को ही शासन के काबिल समझती थी. नारायण दत्त तिवारी को पी.एस.पी में रहते हुए जरूर अहमियत मिली और उन्होंने श्यामलाल वर्मा जैसे किंग मेकर कहे जाने वाले व्यक्ति को 1952 व 1957 में हरा दिया. तब पं. गोविन्द बल्लभ पंत ने उन्हें कांग्रेस में लाने के बहुत प्रयास किये. किन्तु बाद के चुनाव में वे गोविन्द सिंह मेहरा से हार गए. तब पीएसपी और एसएसपी दो खेमों में समाजवादी बंटे हुए थे. समाजवादियों के बीच यह मंत्रणा हुई कि कांग्रेस से जीत पाना आसान नहीं है इसलिए कांग्रेस में घुसकर वहां तोड़-फोड़ की जाए और नारायण दत्ता तिवारी कांग्रेस में शामिल हो गये. आजीवन कांग्रेस के ही होकर रह गये.
नन्दन सिंह बिष्ट, रामदत्ता जोशी, भूमित्र आर्य और प्रताप भैया जैसे लोग समाजवादी पार्टी में ही रह गए. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नन्दन सिंह बिष्ट और उनकी पत्नी बसंती बिष्ट कट्टर समाजवादी थे. नन्दन सिंह बिष्ट उन दिनों नया बाजार में रहते थे. बाद में वे और भूमित्र आर्य झोपड़ी बना कर हीरानगर में रहने लगे. नन्दसिंह बिष्ट एसएसपी खेमे और बसन्ती बिष्ट पीएसपी खेमे में थे. उनकी झोपड़ी में दो झंडे लगा करते थे और दोनों खेमों में बैठकें हुआ करती थीं. बाद में उनके पुत्र कुन्दन सिंह बिष्ट का एक तीसरा झंडा उतराखण्ड क्रांति दल का भी लगने लगा. उम्र के अन्तिम पडाव में एक सच्चे समाजवादी के परिवार को हताशा और निराशा में कांग्रेस पार्टी में जाना पड़ा.
नारायण दत्त तिवारी ओर के.सी. पन्त के बीच राजनीति में साथ रहते हुए भी दूरी बनी रही और अन्त में जब श्री पन्त को क्षेत्र की राजनीति से बाहर कर दिया गया तो इसकी खुन्नस उनकी पत्नी इला पन्त ने तिवारी जी को एक बार हराकर ही निकाली. फिर पूछने भी नहीं आयीं कि मेरी खुन्नस पूरी करने वालो जिन्दा भी हो या नहीं. जो तराई गोविन्द बल्लभ पन्त व नारायण दत्त तिवारी के गीत गाते अघाती नहीं थी, वर्तमान में पहाड़ और मैदान की राजनीति का खेल बन कर दुश्मनों की तरह व्यवहार करने लगी है. वह भूल गई है उनकी सदाशयता. आज भी उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के प्रबल विरोधी विकास की दौड़ में आगे हैं और दबंग राजनीति का मुख्य हिस्सा हैं.
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