बैसी उत्तराखण्ड में सावन के महीने में 22 दिनों तक मनाया जाने वाला लोकपर्व है. यह त्यौहार खरीफ की फसल में जुटकर थक चुके किसानों में नयी उमंग पैदा करता है. इस त्यौहार में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान में सुख समृद्धि की कामना से इष्ट देवताओं की पूजा की जाती है. इसे सैम, एड़ी, गोलू, गंगनाथ आदि लोकदेवताओं के पूजास्थलों के प्रांगण में मनाये जाने की परंपरा है.
इसमें विधिवत पूजा-अर्चना करा सकने वाले डंगरिये (जिनके आंग में देवता आता हो) को अनुष्ठान पूर्ण करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है. पूजा विधान की सम्पूर्ण जानकारी रखने वाले इन व्यक्तियों को 22 दिनों तक मंदिर में ही रहना होता है. इन्हें तपसी डंगरिये कहा जाता है. तपसी डंगरिये दिन में दो बार स्नान करते है. इस दौरान इन्हें ब्रहमचर्य का पालन करते हुए सात्विक भोजन करना होता है. अगर तपसी डंगरिया अपने संकल्पों से डिगता है तो उसे अघोरी कहा जाता है. ऐसा होने की स्थिति में मंदिर में सांप दिखाई देता है. ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मंदिर में पुरोहित द्वारा शांति पाठ कराया जाता है.
पूरा गाँव बैसी के इस त्यौहार में हिस्सेदारी करता है. लेकिन बैसी के सभी कार्यों में भागीदारी करने वाले और इसका खर्च वहन करने वाले हिस्सेदारों को स्यौक कहा जाता है. स्यौक ही डंगरिये भी तय करते हैं.
इस दौरान दिन में तीन बार देव आराधना कर मंदिर की परिक्रमा की जाती है. रात को जगर लगाकर देवताओं का आह्वान किया जाता है. प्रसाद के रूप में दूध, गुड़ और गेहूं के आते से बनी बैसी रोटी प्रसाद के रूप में बांटी जाती है. इस मौके पर लगने वाले मेले में सामूहिक झोड़े से शुरुआत की जाती है और उसके बाद फाग गाया जाता है. इस फाग में देवताओं की गाथाओं का स्तुतिगान होते है. ये फाग वीर रस से परिपूर्ण होते हैं. इनके वीर रस से उत्तेजित होकर दंगरिये हांक लगते हुए नाचते हैं. पूजा-अर्चना कर उन्हें पुनः शांत किया जाता है. बीसवें दिन भिच्ची का आयोजन किया जाता है. इसमें देव हथियारों को लेकर सारे गाँव में भिक्षाटन किया जाता है. लौकी से बने तुमड़े की प्रदर्शनी भी इस त्यौहार का प्रमुख आकर्षण होती है. उत्सव के अंत में बाइसवें दिन भंडारे का आयोजन भी किया जाता है.
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