पहाड़ में पेड़ पौंधों के प्रति आदर का भाव रहा है इसीलिए उन्हें वनदेवता-वनदेवी के रूप में धार्मिक आधार मिला. वृक्ष एवं वनों को सक्रिय तत्व के रूप में सम्मान दिया गया. इनसे प्राप्त कच्चा माल दैनिक उपयोग में रोजमर्रा की जरुरत बना. घर में लगने वाली बहुत सारी वस्तुएं और चीज़ें जंगल से ही मिलीं तो खेती पाती के काम में आने वाले औज़ारों में भी वन से प्राप्त सम्पदा का बहुत अधिक योगदान रहा. वन में हुए पेड़ पौंधे, घासपात और असंख्य प्रकार की वनस्पति तो इनका नामकरण भी प्रचलित हुआ.
(Farming in Uttarakhand)
पूरे विकसित पेड़ को रुख कहा गया तो इसकी पौंध ‘बोट’. वह छोटे नन्हे पौंधे जो बीज से उभरकर बढ़ने के क्रम में हैं जैसे खुमानिक बोट, पैय्याँक बोट, पेड़ -पौंधे ‘रुख-डाव ‘कहे गए. पेड़ की छोटी पतली शाखा या टहनी कही गई ‘हाङ्ग’ तो बहुत सारी अनगिनत शाखाएं ‘हाङ्ग -फाङ्ग’, अर्थात पेड़ की खूब मोटी शाखा. पेड़ की पतली टहनी ‘स्यट’या ‘सिकड़’ भी कहलाती है. सिकड़ से ही ‘सिकड़यूंन’ बना जिसका मतलब है पतली टहनी से मारना. खूब बड़ी भरी भरकम शाखा हो तो कहलाती है ‘लाङ्ग’.
लकड़ी की सूखी हुई टहनी, कांटे वाली झाड़ी या सूखी झाड़ी का ढेर ‘क्यड़’ या ‘केड़ि’ है, यदि यह खूब सारी हों तो ‘क्याड़’ कहलातीं हैं. झाड़-झंकाड़ या झाड़ियों के साथ पत्ते हों तो इसे ‘केड़ पात’ कहते हैं. ऐसी झाड़ियां जिनमें कांटे न हों तथा पेड़ों की पतली पत्ते वाली पतली टहनियां हों तो यह ‘स्योंव’ या सोंव कही जाती हैं.
कई वनस्पतियों और पेड़ों में लम्बे चुभने वाले कांटे होते हैं जिन्हें ‘भुत’ या ‘भुत्यि’ कहते हैं जैसे निम्बुक भुत, बेलक भुत, रामबांसक भुत. ऐसा पौंधा जिसमें बहुत ही ज्यादा कांटे हों उसे ‘कणेल्लू’ कहा जाता है. इससे दुधारू पशुओं की नज़र भी उतारी जाती है. कांटे को ‘काण’ या ‘कॉन’ कहते हैं तो खेतों में उगने वाली खरपतवार को भी ‘काँन’ कहते हैं. जो पशुओं के चारे में भी डाला जाता है. ऐसा कांटा जो घास में उगा हो उसे ‘कुमर’ कहते हैं. सूखी और कांटेदार झाड़ियों का समूह ‘केड़’ कहलाता है.
बहुत घनी झाड़ियों का समूह ‘घाड़ि’ कहलाता है. पतली सूखी टहनियों या लकड़ी के छोटे बारीक टुकड़े ‘झेड़ी’ या ‘झयड़’ कहलाते हैं. पतली लचकदार टहनी ‘त्वर’कहलाती है ये गोलाई में भी आसानी से मुड़ जातीं हैं. सूखी पतली टहनियों से बना झाड़ू हो तो इसे ‘करयठ’ या ‘करेठो’ कहते हैं. इनसे खेत खलिहान, घर का आँगन साफ किया जाता है और इससे अनाज के दानों से भूसा भी अलग करते हैं.
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झाड़ी या पेड़ की जड़ सूखी हुई हो या कटे पेड़ का ठूंठ हो तो यह ‘खुंड़’ कहलाता है. जब खेतों में फसल कट जाती है तो इसके जड़ वाले कटे भाग को ‘खुम’ कहते है. नंगे पैर खेत में चलने से ये पैरों में चुभते हैं. ऐसे पौंधे जो छोटे हों उन्हें ‘डाव’ कहते हैं जब ये बहुत सारे कुछ बड़े हो जाएं और कई सारे तरह तरह के हों तब इन्हें ‘डाव-बोट’ कहा जाता है. पेड़ की टहनी ‘फांग’ कही जाती है.
पहाड़ों में वो इलाके जहां देवदार और बांज फल्यांट के घने जंगल हों उसे ‘घुर’ कहते हैं. घुर इलाके में रहने वाले निवासी ‘घुरयाव’और ‘घुरयाल’ कहे जाते हैं. बांज के पेड़ों में तनों में उगी हुई सूखी घास ‘झुल’ कहलाती है. ऐसे ही बकौल की सूखी पत्तियों की सफाई कर प्राप्त रेशा बकौलक झुल कहलाता है. पेड़ों की टहनियों में उगे परजीवी पौंधे को ‘बान’ कहते हैं.
पहाड़ में रोजमर्रा की कई जरूरतों की पूर्ति वन और वनोपजों से होती रही है. पेड़ पौंधों की अनगिनत किस्मों का प्रयोग कर एक ओर भोजन सम्बन्धी जरूरतों को पूरा किया जाता रहा तो साथ ही खेती पाती में विभिन्न काष्ट प्रजातियों का उपयोग भी खूब होता रहा. वनों से मिले कच्चे माल से ही पहाड़ की खेती के औजार और यन्त्र समय के साथ धीरे धीरे विकसित हुए.
खेतों में फसल उगाने के लिए उनको जोतना जरुरी था और फिर भूमि को समतल करना. जमीन की नमी बनाये रखने के लिए मिट्टी से खेत के किनारों या पोरों को छोपना या ढकना होता. खेत जोतने के बाद मिट्टी के ढेले निकलते जिन्हें सपाट किया जाता. जुताई करने के बाद पुरानी फसल और खरपतवार की जड़ें, क्यड और क्यड पात, खुम और खूंण, सूखी जड़ और और तिनकों की सफाई कर खेत को एकसार करने का काम होता.
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मिट्टी को एकसार करने के लिए ‘जिटक’ का प्रयोग होता जो कटी हुई झाड़ियों को एक रस्सी से बांध कर खेत की ऊपरी सतह पर चलाया जाता. जहां कहीं पानी बह रहा हो और उसे रोकना हो तब भी जिटक काम में आता. इसे जिटक हालण कहते. रोपाई के खेतों में मिट्टी के ढेले तोड़ने, खेत के ऊँचे नीचे स्थानों को बराबर करने, पानी से सनी मिट्टी को बराबर समतल करने में ‘दन्याली’ सबसे जरुरी औज़ार होता. दन्याली को दनयाव, दनेली या मै भी कहते. सबसे अच्छी मै सानन की लकड़ी से बनती. इसके अलावा कीमू, अखरोट और मेहल की लकड़ी का भी प्रयोग होता. इसका मुख्य भाग लकड़ी का वह मजबूत गिल्टा रहता जिसे ‘गेलो’ या ‘ग्मेलो’ भी कहा जाता है.
पहाड़ में दन्याली के गिल्टों की नाप अलग अलग रहीं. यह ग्यारह दानों वाली, नौ दानों वाली व छः दानों वाली होतीं. दन्याली के गिल्टों में जरुरत के हिसाब से ग्यारह, नौ या छः डेढ़ अंगुल के चौकोर सुराख़ आरपार किए जाते. इन सुराख़ या छेदों में डेढ़ अंगुल वर्गाकार और सवा हाथ से सवा बालिस्त लम्बी डंडी या संटियाँ डाली जातीं. इन संटियों को ‘दाना’या ‘डाना’ कहा जाता. दन्याली के गिल्टे के बीच के भाग में हाथ भर की दूरी पर दो दो अंगुल के चौकोर सुराख़ करे जाते. ये डंडे लाठा, पाला या मै स्याण कहे जाते और इनकी ही मदद से दन्याली या मै को बैलों के कंधे के जुए में डाल दिया जाता. इसमें बांज, खिर्सू, घिंघारू मेहल की आठ-नौ हाथ लम्बी लकड़ी का प्रयोग करते. मै के दाने बांज की लकड़ी से ही बनते. इसके अलावा खर्सू और फल्यांट भी काम में लाऐ जाते.
मै गेलो जो ग्यारह दानों वाला होता उसमें पंद्रह सुराख़ करने पड़ते यानी दोनों सिरों पर दो-दो सुराख़ अलग से जिससे हलिया खड़े हो कर मै व बैलों को काबू कर सके. ये सुराख़ दानों के सुराखों की उल्टी दिशा से आर पार किए जाते ठीक इसी तरह नौ दाने वाली में तेरह और छः दाने वाली दन्याली में नौ सुराख़ बनाये जाते. मै के दानों के लिए सबसे अच्छी लकड़ी बांज की ही होती.
खेतों में बड़े ढेलों को तोड़ने के लिए ‘डलौटो’ का इस्तेमाल होता. इसमें पय्याँ, घिंघारू, त्वङ्ग की फांग का हथ्था या बीण बांज की लकड़ी के सवा बेत लम्बे टुकड़े से जोड़ा जाता. मिट्टी के ढेलों को पटक पटक कर तोड़ने के लिए इसी डलौटो को काम में लाते. खोदने वाले जितने भी औजार रहे उनके हत्थे ‘जड़ो’ कहलाते जैसे बौसाक जड़ो, कुटलाक जड़ो. इनके हत्थों के लिए बांज, फल्यांट, पइयाँ, खड़िक, खरसू, किमु की दो शाखा वाली लकड़ी की जगह से मुख्य शाखा को काट कर गांठ की तरफ छेद कर उपयोग में लाते. यह जड़ो को खोदने और गुड़ाई वाले उन औज़ारों के हत्थों में प्रयोग किया जाता जिसमें लकड़ी की दो शाखाओं की गांठ वाले भाग का प्रयोग किया जा रहा हो. इसे ‘द्विखामा’ भी कहते.
मोटी टहनियों को काटने वाले ‘बड़याठ’ के हत्थे जिसे ‘बीण’ भी कहते को बनाने के लिए बांज के पेड़ की ऐसी टहनी उपयोग में लाई जाती जो अपनी मुख्य शाखा से निकलते समय गँठीली हो, इसको गांठ सहित काट लिया जाता. यह ‘घोख’ या घोगी वाला दस्ता ही बीण कहलाता.
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फसल को काटने वाले लगभग सभी औजारों जैसे दातुली, आंसी, बड्याट, बणकट्टा, बड़ा कुटला या बौसो, गुड़ाई में काम आने वाला ‘कुट्टो ‘जो चौकोर लोहे की छड़ से बना होता तथा गुड़ाई के लिए बना सिरे पर नुकीला व धारदार कुटला जिसे ‘मिदुरो’ कहते.इन सब में मजबूत लकड़ी के साथ स्थानीय लोहार के द्वारा बना लोहा लगता. कस्सी जैसे खोदने वाले औजारों के लकड़ी के हत्थे दस्ते कहलाते. धान कूटने वाले मूसल जिसे ‘मूसौल’या ‘मुसव’ में खैर की लकड़ी प्रयोग की जाती इसके नीचे वाले भाग में लोहे की छल्ले नुमा परत लगा दी जाती.
अनाज की कटाई के बाद उसे सुखा फिर उसकी चुटाई की जाती.धान की दाने और बाली चूट फटक कर बचे हुए भूसे को ‘पराल ‘, ‘पराव’ या पराल कहते. इनको बिछा कर ऊपर से बोरी या मोटा कपड़ा डाल बैठने -लेटने के काम भी लिया जाता. गेहूं और जौ की मड़ाई के बाद निकलने वाला भूसा ‘चिल’ कहलाता. ऐसी ही धान, मड़ुआ, मादिरा की मड़ाई कर चुकने के बाद भी कुछ दाने रह जाते, यह अधमड़ी बालियाँ ‘छुम’ कहलाती जिन्हें फिर सुखा कर चूटा जाता.ये ‘भुड़’ भी कहे जाते.
मड़ाई करने के बाद जौ, मडुआ, मानिरा, और गेहूं की कटी हुई बालियों और निकल रहे भूसे को ‘नऊ’ या ‘नलू ‘कहते. गेहूं और जौ के पौधे भीतर से खोखले होते जिनके भूसे को ‘नलकट’ भी कहते. कौणी, मडुआ और मादिरा की बालियों की मड़ाई के बाद जो छिकले बचते उन्हें ‘प्वर’ कहा जाता है. वहीं मड़ुए की चुटाई मड़ाई के बाद बचा भूसा ‘पोरि’ कहलाता जो जानवरों के गोठ में बिछाने के काम आता. इसे जलाया भी जाता. ऐसी ही ‘बगेट’ भी जलाये जाते जो साल, बांज, बिगुल के पेड़ की मोटी शाखों के छिक्कल होते. इनमें चीड़ के बगैट का प्रयोग सुनार अपनी भट्टी में सोना गलाने तथा ताँबे व लोहे के कारीगर विविध क्रियाओं में ईंधन की तरह काम में लाते.
दलहनों में भट्ट, गहत और मांस या उड़द के पौधों की मड़ाई कर दाने सूपे में छांट जो भूसा व फलियों का चूरा बचता उसे ‘नट’ कहते. खूब सूखी घास का चूरा और पशुओं के खा चुकने के बाद बची घास ‘घून’ कहलाती तो सिरफ सूखी हुई घास के चूरे को ‘घुस’ कहते. इन्हें हरी घास में मिला कर पुनः पशुओं को खिलाया जाता. मक्के का तना और पिनालू की पत्तियों के डंठल ‘नौव’ या ‘नौल’ कहे जाते. गड़ेरी और पिनालू के नौल के छिलके को हटा कर मुलायम और नरम भाग से बड़ी व नाल बड़ी बनाते. तो मक्के या घोगे के तने को पशुओं के चारे के लिए उपयोग में लाते.
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घास के तिनके को ‘तिनड़’ कहते तो घास की पतली टहनियां या तने ‘सिनुक’ या सीणुक कहा जाता.पेड़ पौंधों की सूखी पत्ती ‘पतेल’ कहलाती तो हरी व सूखी पत्तियों को ‘पात पतेल’ कहा जाता. अनाज या घास का गट्ठर जो हाथ से उठा सारा जा सके ‘पुव’ कहलाता. मुट्ठी के अंदर पकड़ में आने वाली घास की मात्रा ‘आंठि’ या ‘हथोव’ तो हथेली में अंगूठे और हथेली के बीच आ जाने अनाज के पौंधे या घास की मात्रा ‘आंठ’ कहलाती वहीं घास के लूटे को ‘घुच्च’कहते.
घास का वह चारागाह जहां घरेलू जानवर घास चरने के लिए दिन भर छोड़े जाते ‘थौड़’ कहा जाता. एक से दूसरे सिरे तक पठार के इलाके में दूर तक फैले घास के मैदान जिनमें पशु चरते हैं ‘बुग्याल’ कहे जाते. उच्च हिमालय के बुग्याल दुर्लभ जड़ी बूटियों और पोषक घास से समृद्ध रहे.
ऐसे पहाड़ी इलाके जहां काफी अधिक सिसूण की झाड़ियां उग गईं हों तो उसे ‘सिनाड़’ कहते. सिसूण को आम तौर पर ‘सिन’ कहा जाता है. ऐसे पहाड़ी नीचे इलाके जहां खूब घना जंगल हो उसे ‘पातव’ व ‘पातल’के नाम से जाना जाता है. जंगल सामान्य रूप से ‘बण’या बन कहा जाता.
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(जारी )
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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