राई को लाल खुस्याणी, पहाड़ी हल्द-धनिये के बीजों के साथ सिलबट्टे में खूब पीस लेते हैं. फिर कोर कर निचोड़ी हुई ककड़ी में मिला ठेकी में जमा हुआ दही मिला खूब फैंट कर बनता है गरमपानी का ब्रांडेड रायता. जो फैलता नहीं- इस बात की तो गारंटी ले लो. (Garampani Market)
अब दही भी ठेकी में जमता है ऐसा, कि पलट दो तो भी न गिरे. दूसरी चटपट वैरायटी है लोहे की कढ़ाई में बने आलु के गुटुक. धीमी आंच में बनने वाले हुए. इनको छौंकने में जरा जखिया डालना हुआ. गीली पिसी लाल मार्च भी. ऊप्पर से सरसों के तेल में तली लाल साबुत खुस्याणी. पहाड़ी निम्बू या चूक की धनिया पुदीना वाली हरी चटनी अलग से पड़ी. (Garampani Market)
ये आइटम तो ऐसे ठहरे महराज कि, गरमपानी को फेमस कर दिया ठहरा खैरना रुट पे. तिवारी लोगों के होटलों का रुतबा हुआ. मेहमान की तरह भेटा कर खिलाने वाले हुए. अब घट हुए यहाँ, उसके पिसे आटे की पूरी और दड़बड़ आलू टमाटर की सब्जी. खाने में परम संतोष मिल जाने वाला ठहरा फिर. अब मिले भी क्यों नहीं सब चीज-बस्त यहीं उगाई, यहीं काटी ठहरीं. गोबर की खाद हुई. नहर सिंचाई भी हुई.
नैनीताल और अल्मोड़ा से बराबर तीस किलोमीटर की दूरी पे हुआ गरमपानी. जो कोसी और शिप्रा सरिताओं के संगम खैरना पुल तक पसरा है. सैन्य छावनी से जोड़ने के लिए अंग्रेजों ने रानीखेत जाने को ये पुल बनाया. अब खैरना वाला इलाका सब खिचिरबिचिर दुकानों से भर गया है. ज्यादातर वाहन खूब चें -चें पें पें के बीच यहीं रुकते हैं.
यही रौनक बहुत कुछ कम भीड़-भाड़ के साथ गरमपानी बाजार में नजर आती है जहाँ रातीघाट से आती सड़क पर आधे कोस पहले गाड़ में पसरा पत्थर की शकल वाला विशालकाय मेंढक आप देख सकते हैं. पहाड़ का हर गाड़ गधेरा पिकनिक स्पॉट हुआ फिर. सो यहाँ जड़बिल-सिलटुना के शास्त्रियों ने टूरिस्ट हट बना दिए हैं और भेकाने की आँख सफ़ेद पेंट से पेंट कर मेंढक शिला का नाम दे दिया है.
बरसों से गरमपानी की चौल साग पात, पहाड़ी मस्याव, हरी पीली लाल खुस्यानी और अनगिनत दालों के हाट बाजार की बनी हुए है. यह सब माल-ताल बारगल पंचायत और बेतालघाट ब्लॉक की सरहद वाले सीम, सिलटुना, हाली, लोहाली, बारगल, मझेड़ा, धनियाकोट से लद कर सड़क के अगल-बगल पसरी छोटी दुकानों के आगे पसर जाता है. तो देखते ही देखते ट्रकों में लद हल्द्वानी की मंडी की तरफ सरक भी जाता है.
ज्यादा आमद वाले कास्तकारों से हल्द्वानी के लालाओं ने बोरी, कट्टे, छापरी, डाली में ठुंसे पैक्ड माल की आवक को छोटे हाथी की सुविधा भी प्रदान की है. यह माल मंडी से फिर कई गुना ज्यादा कीमत का बिल्ला लगा वापस पहाड़ के बाज़ारों में बिकने वापस लौट आता है. रानीखेत अल्मोड़ा के गाँवों से भी सागपात से भरे ट्रक अपनी ऑर्गेनिक बहार बहाते चलते हैं.
कई चतुर भारी भरकम जमीं वाले माफीदारों ने अपनी साग-सब्जी, दाल-मस्याले वाली जमीं चाय बागान को ठेके पे सौप दी है. अब साग सब्जी के भाव अख़बारों के जरिये रोज ही बढ़ते खूब दिखाई दें. शुभ लाभ तो होलसेलर और रिटेलर फड़ों के बक्सों बटुओं की ही तरफ खिंचने वाला हुआ. अब पहले सारे बीज भी लोकल होते थे. एक सेर में बस चार टमाटर तुलते थे.अब की मत पूछो सब बीज बरैली दिल्ली की फर्मों का है. पंतनगर और पूसा वाला है. उसका गणित यहाँ की मिटटी आबोहवा से उलट हुआ. अब बिकने के लिए जो माल लाला को भाये वही उगाना ठहरा फिर.अब गाहक को चमसुर -हालंग पसंद है पर औरों को तो यह नाम ही नहीं मालूम ठहरा फीर.
ऐसा भी नहीं की कद्रदान नहीं रहे झंगरा,उगव, जिरग, तरुआ, कीमो, कंचाटू, सिरालु, तिगुणा, लिंगुण, चुआ उगल, क्योल शिगरु रड़वा कुच्यां, ग्रूंश ठुमरिया, कौणी चीना, दैण तिमुर, रेंस ठुमरिया सब होने वाला हुआ. अब खाने वालों के मुख चटर-पटर, चाओ-माओ मांगने वाले हुऐ. अब ये गाड़ गधेरे सेरों में जो सागपात पैदा हुआ उसका सुवाद ही अलग हुआ महराज. खट्ट दो उबाल में सिमी राजमां गल जाने वाली हुई. अब आप लोग तो मॉल हॉल के पैकेटों में टाटा अम्बानी की सीटी बजाने वाले हुए. सर्विस चार्ज भी दो और जी एस टी भी. पैर रानीखेत अल्मोड़ा आते जाते गरमपानी में जरा रुक जाना. शुरुवात में ही सार्वजानिक शौचालय है सड़क से उप्पर. वहां के हाल देख लेना. अब साफ़ सफाई की खूब विज्ञापन बाजी है. खैर अब आराम से खुली हवा में साँस लेते सौ कदम आगे बढ़ना. सामने राम मंदिर है. हनुमान जी भी विराजे हैं. वहां शेर के मुंह से निकलते पानी का अविरल प्रवाह है. हाथ मुंह धो लें. शुद्ध पानी का स्वाद लें. हनुमान जी को प्रणाम करें. बस आपकी नज़र के आगे गरमपानी की बाजार है.
अब एक खासियत और ठेरी कि जब भाबर की मंडी में साग पात पट्ट होने लगे तो यहाँ लौकी, कद्दू, करेला, काजी करेला, भिंडी तोरई, चिचिंडा, बेंगन की बहार होने लगती है. तराई भाबर देश परदेस तक पहुँच जाता है यहाँ का सागपात. जाड़ों में पालक, मेथी, लाई, मूली तो और टेम में सरसों, हरी प्याज, उगल, झुरमुरिआ लाई, लौकी, तुमड़ा, कद्दू बैगन, तरुड़ गेठी,गांठ गोभी, बंद गोभी, छोटी छोटी फूल गोभी, मोटा लाषण,सिंगल जैसा घूमा लिन्गुणा, गुलाबी लाल गंडेरी, सफ़ेद पिनालू, आद -अदरख, हरा कद्दू -पीला कद्दू खूब हो जाने वाला हुआ. आलू तो गोल-लम्बा लाल सब वैरायटी का हुआ. वो अंगूर के दाने जैसा भी, गजब का थेचुवा बनता है उसका.
अभी पहाड़ का रस-भात फेमस हुआ, चुड़कानी भी. सो सारी दालें मिल जाती हैं यहाँ. नौरंगी भी. उड़द मांश, चना, गहत, भट्ट, रेंस मसूर, हरी मटर, पिली मटर के साथ साथ सब पहाड़ी मसाले, देंण, लाल पीली मिरच, हल्दी, अदरख, बड़ी इलायची, दूँन, आबा हल्द, काला हल्द, धनिया मेथी के साथ मड़ुआ, मँदिरा,कौणी, चीना, चुवा. दाड़िम, बड़े निम्बू,जामिर के रस को लुए की कढ़ाई में पका फिर कांच की बोतल में भर रखे गए चूक के तो कहने ही क्या.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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