पश्चिम के अनेक लेखकों ने कुमाऊं में रहने वाले लोगों के लिये जिस एक शब्द का खूब प्रयोग किया है वह है – अन्धविश्वासी. हाड़तोड़ मेहनत कर गुजरबसर कर जीने वाले पहाड़ियों के विषय में इस बात को खूब लिखा गया है कि वह अन्धविश्वासी होते हैं. पश्चिमी लेखकों द्वारा पहाड़ियों को अन्धविश्वासी कहने का आधार उनकी परम्पराएँ थी. पश्चिम से आये लेखकों ने कुमाऊं के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की परम्पराओं के आधार पर उन्हें अन्धविश्वासी घोषित किया.
(Environment and Festivals of Himalaya)
अपनी बात की पुष्टि के लिये लेखकों ने इस क्षेत्र में होने वाली नरबलि जैसी घटनाओं का उदाहरण दिया. हर रोग या समस्या का निदान पूजा-पाठ में खोजने वाली घटनाओं से लेकर अनेक मान्यताओं का उदाहरण देकर यह बात एक तथ्य के रूप में स्थापित कर दी गयी कि कुमाऊं क्षेत्र में रहने वाले लोग अन्धविश्वासी होते हैं. अंधविश्वास कुमाऊं के समाज का एक पक्ष था लेकिन इस क्षेत्र के लोगों की अन्य परम्पराओं का क्या? मसलन पूरे कुमाऊं में ईश्वर को चढ़ाये जाने वाले मंदिर, फुलदेई और हरेला जैसे लोकपर्व.
आज के समय में शायद ही विश्व की ऐसी कोई भी सरकार हो जिसके राजनितिक एजेंडे में पर्यावरण शामिल है. वैश्विक स्तर पर ही देखा जाये तो कहीं सत्तर के दशक से पर्यावरण जैसे मुद्दे उभरते दिखते हैं. ऐसे में कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ में रहने वाले कुछ ऐसे कथित अंधविश्वासी लोग भी हैं जिनके समाज का एक जरुरी हिस्सा पर्यावरण है. उदारहण के तौर पर हरेला को ही लीजिए.
(Environment and Festivals of Himalaya)
एक तरफ प्रोग्रेसिव कही जाने वाले देश हैं जिन्होंने सस्टेनेबल डेवलपमेंट को परिभाषित करने के लिये होने वाली चर्चाओं पर करोड़ों रूपये खर्च किये हैं दूसरी ओर एक समाज है जो सदियों से पर्यावरण के साथ जीता आ रहा है. हिमालयी क्षेत्र की रुढ़िवादी परम्पराओं पर तो खूब बातें लिखी गयी हैं लेकिन इस क्षेत्र की असल विरासत हमेशा से छूटी ही रही है.
(Environment and Festivals of Himalaya)
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आपकी बात से पूर्णतः सहमत हैं। अक्सर एक ही पहलू को लोग देखना चाहते हैं। दूसरे पहलू पर भी नजर डालें तो कुछ बात हो। फिर जहाँ तक अंधविश्वास की बात है तो पश्चिम में अंधविश्वास की कमी नहीं है। उनके अपने अंधविश्वास हैं। ऐसे में एक समाज को चिन्हित करने का कोई औचित्य नहीं है।