गिरीश लोहनी

गधेरे में गुरकती उत्तराखण्ड की शिक्षा व्यवस्था

वैसे तो किसी भी मौसम में दिल्ली से पिथौरागढ जाने वाली बस में सफर के दौरान एक चीज जो कभी नहीं बदलती वो है सुबह 6 बजे के आस-पास बस सूखीढांक पहुँचते ही हवाओं का दिमाग में घुसकर हुस्न पहाड़ों का गाने की धुन बजाना. उस सुकून को शब्दों में बयां करना मुश्किल है.

पहले अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में जाना होता था तो बस के चल्थी को बढ़ने के साथ ही सूरज की तेज होती रोशनी में सुनहरे और गहरे हरे पहाड़ों की सुंदरता भी बढ़ती जाती. चम्पावत पहुँचने पर छोटे-छोटे झुंड में हरे या आसमानी रंग की सलवार या आसमानी रंग की कमीज संग खाकी या नीले रंग की पेंट में स्कूल जाने वाले बच्चों के झुण्ड पहाड़ों की सुंदरता में चार चांद लगा देते थे. गर्मियों में पहाड़ों में सुबह के स्कूल लगते हैं, सुबह सवा सात बजे इतनी शक्ति हमें देना दाता चालू. अपने बचपन की यादों के समुंदर में ये मेरा पहला गोता होता था.

इस गर्मी के सफर में चौड़ी सड़के तो थीं पर पहाड़ लगभग नंगे थे. बूढ़े और बेबस से दिखने वाले इन पहाड़ों का शरीर इतना जर्जर था कि अपनी बेबसी के गुस्से में किसी भी पल ये किसी को भी खून से लतपथ करने को तैयार थे. हमेशा की तरह बस का समय वही था तो हुस्न पहाड़ों की धुन बजना लाजमी था. बूढ़े पहाड़ की लाचारी को नजरअंदाज कर नजरों को अब इंतजार था पहाड़ के भविष्य को स्कूल जाते देखने का. अपने बचपन की यादों के समुँदर में पहला गोता लगाने को मैं तैयार था.

सूखीढांक से चल्थी के बीच गांव लगभग खाली से थे. चल्थी पहुँचने पर जब चाय के लिये बस रुकी तो हाथ में दराती पीठ में डॊका लगाये एक मां अपने बच्चे की स्कूल वैन को हाथ हिलाती नज़र आयी. बस स्टार्ट होने से पहले दो लड़कियाँ भी उसी हरे रंग के कपड़ों में स्कूल जाती नजर आयी जिस हरे रंग की तलाश मेरी आंखो को थी.

चम्पावत लोहाघाट और फिर पिथौरागढ़ पहुँच गया पर यादों का गोता लगाने लायक वो पहले वाली बात जैसे गुम थी. सड़कों के किनारे वैन और बसों के इंतजार में सफेद कमीज, स्लेटी या भूरी पैन्ट पहने खड़े बच्चों के नये चित्र ने एक अजीब सी उलझन में डाल दिया. उलझन ये थी कि मुझे इस नये चित्र पर खुश होना चाहिये या परेशान होना चाहिये?

खुशी इस बात की थी कि विदा करने वाली मां और अधिकतर बच्चों की आँखों में भविष्य को लेकर अलग चमक देखने को मिली. परेशानी से ज्यादा मुझे डर अधिक था क्योंकि गले में टाई पहनाकर होने वाले नई शिक्षा-प्रणाली के व्यापार की अंदररूनी हकीकत से मैं वाकिफ हूँ. 

पिछले एक दशक में अंग्रेजी भाषा के डर का एक ऐसा मायाजाल हमारे चारों ओर बुना गया है कि हम 26000 हजार प्रतिमाह तनख्वाह पाने वाले प्राथमिक विद्यालय के एक प्रशिक्षित शिक्षक के बजाय 2500 रुपये की तनख्वाह पाने वाले एक अप्रशिक्षित शिक्षक पर अधिक भरोसा करते हैं. सरकार की मुर्खतापूर्ण नीतियों के कारण आज सरकारी स्कूलों के शिक्षक अन्नागार के संरक्षक से अधिक कुछ नहीं रहे. कम से कम प्राथमिक विद्यालयों में तो यही हाल है.

एक प्राथमिक स्कूल पर सरकार द्वारा प्रतिमाह लाखों रुपया बहाया जाता है (कम से कम कागजों पर तो बहता ही है) इसके बावजूद अभिभावक केवल मजबूरी के चलते ही अपने बच्चों का दाखिला किसी सरकारी स्कूल में कराते हैं. जबकि प्राइवेट स्कूल बिना पैसा खर्च के बेतहाशा मुनाफा कमा रहे हैं. मैकाले ने अपनी शिक्षा नीति संबंधित भाषण में कहा था कि हमें ऐसे खोखले भारतीय बनाने हैं जो शारीरिक रूप से तो भारतीय दिखते हों पर मानसिक रूप से अंग्रेज हों.

ऐसा नहीं है कि सभी सरकारी स्कूलों के शिक्षक निक्कमे हैं. उदाहरण के तौर पर आप पिथौरागढ़ का एक सीमांत गाँव मायालेख ले सकते हैं कभी जिस स्कूल से 2 प्रतिशत बच्चे उत्तीर्ण होते थे वहां अब परीक्षाफल 60 प्रतिशत है. इस वर्ष इस स्कूल से दो बच्चे मेधावी छात्रों की सूची में भी शामिल हुये हैं. यह किसी सरकारी नीति के क्रियान्वयन के कारण नहीं बल्कि स्कूल के शिक्षकों की लगन का परिणाम है. अल्मोड़ा, नैनीताल, उत्तरकाशी के कई राजकीय विद्यालय इसके उदाहरण हैं. आज महानगरों में लाखों का पैकेज कमाने वाले 90% पहाड़ी इन्हीं सरकारी स्कूलों से निकले हैं.

राज्य में बिना आधारभूत सुविधाओं के स्कूल चल रहे हैं. 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार  27.7 % स्कूल बिना पेयजल सुविधा के चल रहे हैं, 22.4%  ऐसे स्कूल हैं जहाँ शौचालय तो हैं लेकिन प्रयोग योग्य नहीं हैं 2.8% स्कूल में तो शौचालय तक नहीं हैं. 17.4 % स्कूल में लड़कियों के लिये अलग शौचालय नहीं हैं 10% ऐसे हैं जहां सुविधा तो है पर ताला लगा है 11.4% स्कूल में सुविधा है पर जाने योग्य नहीं हैं.  बिना आधारभूत सुविधाओं के स्कूल चल रहे हैं.

आज तक सरकार की अधिकांश नीतियां स्कूल में संख्या बढ़ाने की रही हैं गुणवत्ता बढ़ाने हेतु शायद ही सत्तर साल में कोई नीति बनी हो. फिलहाल गुणवत्ता बढ़ाने के लिये सरकार आपके पैसों से अध्यापकों के लिये ड्रेस बनवा रही है, खाली पड़े स्कूल रामलीला कमेटी को दे रही है, स्कूलों के शिक्षकों से हर रोज अंगूठा लगवा रही है. कुल मिलाकर उत्तराखण्ड में शिक्षा व्यवस्था गधेरे में गुरकती जा रही है.

-गिरीश लोहनी

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