दूनागिरी अल्मोड़ा जिले की एक पहाड़ी है. अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से इसकी दूरी लगभग 60 किमी है. यह रानीखेत कर्णप्रयाग मार्ग पर द्वाराहाट से 15 किमी की दूरी पर स्थित है.
दूनागिरी की पहाड़ी को ही पुराणों में द्रोणागिरी, द्रोण पर्वत आदि माना गया है. द्रोणागिरी को ही कालांतर में आम कुमाऊनी भाषा में दूनागिरी कहा जाने लगा. स्कन्द पुराण, विष्णु पुराण समेत अन्य पुराणों में द्रोणागिरी का वर्णन मिलता है. पुराणों में द्रोणागिरी को कौशिकी (कोसी) तथा रथवाहिनी (पश्चिमी रामगंगा) के बीच में स्थित बताया गया है.
द्रोणागिरी को पौराणिक महत्त्व के सात महत्वपूर्ण पर्वत शिखरों में से एक माना जाता है. कहा यह भी जाता है कि कभी यहाँ पर द्रोण ऋषि का आश्रम हुआ करता था इसीलिए इसे द्रोणागिरी कहा गया.
दूनागिरी को नैसर्गिक सौन्दर्य के अतिरिक्त प्राकृतिक वन सम्पदा व बहुमूल्य जड़ी-बूटियों के लिए भी पहचाना जाता है. यह भी मन जाता है कि दूनागिरी पर्वत विलक्षण वन्य जीवों का भी आवास है.
किवदंती है कि लंका में जब लक्ष्मण मेघनाद की शक्ति से मूर्छित हो गए थे तो हनुमान संजीवनी बूटी समेत समूचे द्रोणाचाल को उठाकर ले गए थे, तब उसका एक हिस्सा यहाँ पर गिर गया था. इसी वजह से यह द्रोणागिरी पर्वत दिव्य जड़ीबूटियों से आच्छादित है.
दूनागिरी के शिखर पर वैष्णोदेवी का एक पौराणिक शक्तिपीठ भी है, इसे 1181 ई. का बताया जाता है. इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासकों द्वारा कराया गया बताया जाता है. इसे देवी के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है. यह भी मान्यता है कि यह भारत में मौजूद वैष्णों देवी के 2 शक्तिपीठों में से एक है.इनमें से एक जम्मू में है और दूनागिरी में गुप्तपीठ प्रतिष्ठित है. 365 सीढ़ियां आपको इस मंदिर तक ले जाती हैं. मंदिर के सामने हिमालय का विहंगम दृश्य मौजूद है.
इस मंदिर में अश्विन मास की नवरात्र में सप्तमी के दिन कालरात्रि जागरण होता है. मान्यता है कि इस दिन देवी अपने उग्र काली रूप में प्रकट हुआ करती है और लोगों की साधना के बाद अगले दिन गौरी का सौम्य रूप धारण कर लेती हैं.
मंदिर में 1029 ई. का एक शिलालेख भी मौजूद है. इसके विषय में माना जाता है कि इसे द्वाराहाट के बद्रीनाथ मंदिर से लाकर यहाँ रखा गया है.
दूनागिरी के आसपास नागार्जुन, भटकोट, पांडुखोली और शुकदेव आदि कई जगहें हैं जिनसे महाभारतकालीन मिथक जुड़े हुए हैं.
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