काले गाउन और सिर पर काली टोपी चढ़ाए भोलेनाथ उर्फ भोला जब मंच पर पहुंचा तो तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूँजने लगा. चीफ गेस्ट ने बधाई देते हुए वकालत की डिग्री उसके हाथों में रखी तो वह भाव-विभोर हो उठा. उसने उन्हें श्रद्धा से अभिवादन किया और डिग्री को प्यार से हाथों में संभालते हुए वह अपनी सीट पर लौट आया. उसे अपने हाथों में डिग्री की गर्माहट महसूस हो रही थी. ऐसा लग रहा था मानो सुनहरा भविष्य बांहे फैलाए हुए उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा है. घर-परिवार के तानों के बावजूद उसने वकालत के पेशे में ही ज़िंदगी बसर करने का मन बना लिया था. थोड़े से ही तो सपने थे उसके! गरीब-असहायों की मदद के साथ-साथ ईमानदारी से अपनी वकालत चल जाए.
(Dudh Ka Karz Story)
लेकिन उसे अपने हसीन सपने बिखरते महसूस हुए जब तहसील कोर्ट की बार ऐसोसिएशन में अपना रजिस्ट्रेशन करवाने के बाद पुराने घाघ वकीलों ने उसे निशुल्क सलाह दी, “भोलेनाथजी! इस बात का हमेशा ध्यान रखना कि हमारे पेशे में बड़ी ईमानदारी से बेईमानी की जाती है. कोर्ट आते समय अपने सेंटिमेंट्स की पोटली घर पर रख आनी पड़ती है. समाज, घर-परिवार में अशांति बनी रहेगी तो हमारा धंधा भी फलता-फूलता रहेगा.” बार का कमरा ठहाकों से गूंज उठा.
महीने भर तक भोला ने उसूलों की पटरी पर वकालत की ट्रेन चलाने की कोशिश की. फीस भी जायज रखी लेकिन वर्षों से कचहरी के चक्कर काट रहे मुवक्किलों को उस पर भरोसा नहीं जग पा रहा था. उनका मानना था कि जिनता महंगा वकील होगा, केस जीतने की संभावना भी उतनी ही बढ़ जाएगी. इस ईमानदार और नौसिखिया वकील पर कैसे भरोसा किया जा सकता है!
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लड़का वकालत करने लगा तो घरवालों ने भी शादी करने में देर नहीं लगाई. भोला बस खामोश ही रहा. दिन गुजरते गए और एक दिन परिवार में बंटवारा हो गया. आगे अपने बूते गृहस्थी चलाने की ज़िम्मेदारी भोला के कंधों पर आ गई. उसने कस्बानुमा बेढप से पहाड़ी बाजार, जिसे अब शहर कहा जाने लगा था, में किराये का कमरा ले लिया. बंटवारे में मिले रुपयों से आधी मुट्ठी जमीन और कस्बे में एक दुकान किराये में ले ली. कस्बे के हिसाब से दुकान में रोजमर्रा की जरूरत का सामान रखा. नाम के अनुरूप वह भोला भी था तो दुकान अच्छी चल निकली. दुकान के अलावा वह घर में भी हर काम में अपनी पत्नी की मदद करता था. वक्त गुजरा तो उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. बच्चे के साथ भोला भी अपना बचपन फिर से जीने लगा. बच्चे के साथ खेलना, उसे दूध पिलाता और बच्चा भी उसके साथ खुश रहता था. दुकान का काम ठीक चलने पर धीरे-धीरे तीन साल में भोला ने दो कमरों का मकान भी खड़ा कर लिया. नए मकान में प्रवेश करने के बाद उन्हें दूसरे पुत्र की प्राप्ति हुई तो दोनों पति-पत्नी फूले नही समाए.
वक्त तेजी से गुजरते गया और भोला के बच्चे भी जवान होकर घरोंदे से निकलकर बाहर की दुनिया की ओर उड़ चले. घर में भोला और उसकी जीवनसंगनी ही अकेले रहकर बच्चों के भविष्य का तानाबुना बुनने लगे. भोला की पत्नी मीठी बातें भी जब कड़वे ढंग में कहती तो भोला उन बातों को हल्के में लेकर माहौल को ठंडा कर लेता था. वहीं बच्चों ने भी अपने पिता की तरह मेहनत करने में कोई कसर नही छोड़ी. दोनों बच्चे नौकरी पा कर जब अपने पैरों में खड़े हो गए तो भोला ने उनके मनमुताबिक धूमधाम से उनकी शादियां भी करवा दीं.
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खुद को अब जिम्मेदारी से मुक्त समझ भोले ने पत्नी संग ईश्वर के ध्यान में कुछ वक्त बिताना शुरू किया. उसने सोचा कि इससे पत्नी का मन शांत रहेगा तो बाकी जिंदगी सुकून से गुजर जाएगी. लेकिन नई पीढ़ी की बहू और नए-पुराने के जमाने में झूलती सास में विचारों का ताल-मेल नही बन पा रहा था. पोता हो जाने के बाद भी न बहू बेटी बन सकी और न ही सास माँ. इस माहौल से परेशान होकर बेटे के कदम नशे की ओर कब बढ़ चले किसी को पता ही नहीं चल सका.
“पापा इन्होंने मेरा जीना हराम कर दिया है. कभी होश में रहते नहीं हैं. हर वक्त पीते ही रहते हैं. मैं परेशान हो गई हूँ इनसे.” सुबह-सुबह बहू का फोन आया तो भोला के दिमाग में सन्नाटा सा छा गया. भोले को कुछ सूझा ही नहीं कि वह क्या जवाब दे. पति के चेहरे में सिकन देख पत्नी ने कारण पूछा तो भोले ने बेटे की बीमारी का हवाला देकर उसे घर लाने की बात कही. “कुछ दिन घर रहेगा तो ठीक हो जाएगा,” कह कर वह तेजी से बाहर निकल गया.
बहू-बेटे के पास पहुंचने तक अंधेरा घिर आया था. बेसुध बेटे ने बाप को चुपचाप सामने देखा तो, “पापा सॉरी… सॉरी… ’ बोलकर फिर से लुढ़क गया. उधर बहू ने बिलखते हुए शिकायतों का पिटारा खोल दिया. किसी तरह बहू को समझाबुझा कर भोला ने माहौल को शांत किया. रात खामोश और ठंड से भरी हुई थी, जिसका अहसास भोले को अपने गालों में लुढ़क आए आंसुओं से महसूस हुआ. नींद कोसों दूर चली गई थी और भोले के दिमाग में चल रहा तूफ़ान थमने का नाम नहीं ले रहा था. जिंदगी का फलसफा क्या यही है! इतनी मेहनत के बाद ये सिला मिल रहा है! क्या करूं! सब छोड़कर कहीं चला ही जाता हूं! जिसने जो करना हो करे!!
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“पापा चाय पी लीजिये.” बहू की आवाज से भोले अपने में लौट आया. सुबह के सात बज चुके थे. सुबह चार बजे तक वह अपने ख्यालों में डूबता-उतराता रहा, उसके बाद न जाने कब आँख लग गई. भोला ने देखा कि बेटा शर्मिंदगी से उसके पास आकर बैठ गया है. मन में घुमड़ रहे सवालों को झटक भोले ने उसके कंधे में हाथ रखकर प्रेम से उसे देखा तो बेटा उसके गोद में अपना सिर रखकर सुबकने लगा. बहू भी यह देखकर हैरान हो गई . उसे उम्मीद थी कि पापा गुस्से में कुछ तो कहेंगे, लेकिन ये दोनों तो बिछड़े मित्रों की तरह गले मिल सुबकने में लगे हैं!
बेटे को ले जाते वक्त भोला ने बहू को भरोसा दिया , “जल्दी सब कुछ ठीक हो जाएगा. इसकी गलती तो है लेकिन परवरिश में कुछ गलतियां मेरी भी जरूर रही होंगी. बहू तुम विश्वास करना सब ठीक हो जाएगा.”
एकपल के लिए बहू खामोश हो गई. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. भोला एक बार फिर अपने नये मिशन में जुट गया. बेटे की मनोस्थिति के चलते वह फिर से उसे उसके बचपन में ले जाकर अपनी गलतियों को सुधारने में लग गया. कई बार भोला की पत्नी कुछ कहना चाहती भी है तो बाप-बेटे का प्यार देख सोच में पड़ जाती कि उम्र बीतने के साथ ही अंतर बस इतना आया है कि जिस बच्चे को वह प्यार से दूध पिलाया करते थे आज उसे नशे के दलदल से उबारने के लिए सीमित मात्रा में खुद ही नशा दे रहे हैं. लेकिन यह कोई नही जानता है कि हालात के चलते भोला के अदृश्य आँसू खुद भोला को भी अब महसूस नही होते हैं. अब हर पल मुस्कुराते हुए भोला गुनगुनाता रहता है, “जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या.. सब सच है.”
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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