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पुन्यों सी उजली देबुली और नरिया के जीवन की एक झलक

छिलुके की रोशनी में चौथर का कोना कोना खिल उठा था. कई महीनों बाद दो दिन पहले ही चौथर लिपा घिसा गया था. छिलुके की रोशनी में धान कूटते देबुली की चूड़ियों की खनक किसी साज पर सजी अंगुलियों की करतब सी लग रही थी.
(Debuli & Nariya Story)

”मैंने खातड़ बिछा रखा है ईजा, तू जा, सोने की तैयारी कर.”धान के बिखरते दानों को बटोर रही मां से उसने कहा.

“अब रहने दे, देबू. किसी के हाथ चक्की फिंकवा दूंगी ….” उसकी मां ने तीन तिड़ी की ओर निहारते कहा.

“एक घाण और कूट लेती हूं. दो तीन नाली हो जायेंगे. कल ये भी आने वाले हैं. सुबह जल्दी जाना होगा.”

देबुली का ससुराल मायके से लगभग पैंतीस किमी. दूर है. मां से मिलने के लिए कई महीनों तक उसकी आंखे तरस जातीं. फिर, जब कभी आना भी हुआ, किल-ज्यौड़ सा तोड़कर.

“बज्जर पड़ौ य पहाड़ा काम पर लै, कभै थाम नि हय, इजा.” एक लम्बी सांस लेते हुए उसने फिर कहना शुरू किया, “पिछली बार ये भैंस खरीद लाये थे. अब भैंस के साथ तो भैंस ही बनना हुआ. पर भैंस बनकर भी कोई फायदा नहीं. कितना ही हरा-भरा, खवाड़ि-मवाडिं खिलाओ, पांच-छह पाव से ज्यादा दूध नहीं होने वाला ठैरा….”

छिलुकों की रोशनी मद्धिम पड़ने लगी थी. तीन तिड़ी आसमान में और ऊपर चढ़ आये थे. दीवाल में कुछ छिलुकों के टुकड़े रखे हुए थे. वह उन टुकड़ों को जलाना चाहती थी पर उसके हाथ खुद ही रूक गये. बिना छिलुकों के मां कैसे रहेगी, इस अकेले सुनसान जगह के घर में. लम्फू, लालटेन के उजाले से इतना बड़ा घर कैसे उजियारा होगा! वह यह भी जानती है कि लम्फू, लालटेन से बचने के लिए मां छिलुके बचा-बचाकर काम चलाती है. सारी जिंदगी ऐसे ही काटी ठैरी, अभाव, चिंता, विपन्नताओं से सनी.

जब वह पिछली बार मायके आयी थी उसी समय थोड़ी बहुत छिलुके जंगल से इकट्ठा कर लायी थी. चीड़ के मुनों से छिलुके के फयाँट निकालने में उसे महारत हासिल थी. शादी से पहले भी जंगल से कुछ दिनों में साल भर के लिए छिलुके इकट्ठा कर लिये थे. दीवाली के दिनों में शाम ढलते ही छत, कानस, दीवाल, ओखली, दरवाजों पर छिलुके जलाकर रोशनी करने में उसे बड़ा आनन्द आता. सारे गांव में उसके घर की रोशनी देर रात तक फैली रहती. ऐसा देखकर वह आंगन में इधर-उधर देर तक फुदकती, अपार खुशियों से सरोबार.
(Debuli & Nariya Story)

उसने जल्दी-जल्दी सूपे में चावल भरते हुए पूछा, “ईजा और क्या काम है?”

“कुछ नहीं है दबड़ी. सो जा अब.” उसकी मां ने नाराजगी के साथ कहा. फिर अपने आप ही बुदबदाने लगी. दोपहर जब से आयी है तब से घड़ी भर भी बैठी नहीं है. इस दबड़ी के भाग में भी जहाँ तहाँ काम, काम ही रहा.

देबुली यह भी जानती है कि माँ से जब कोई उसके बारे में पूछता है तो उसकी आंखें आँसूओं से छलक उठती है, “मेरी देबुली के भाग में तो रोज काम ही रहा. घर बण एक जैसा ही रहा.”

देबुली बिस्तर में बिल्ली सी दुबक गयी पर उसे नींद नहीं आयी.

इतने बड़े घर में दिये की लौ की तरह थरथराती अकेली बूढ़ी औरत. एक कमरे के उजाले से सारे घर को जीवन्त बनाये है. कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं. आस-पड़ोस भी नहीं. बाखली वाले भी एक-एक कर इधर-उधर चले गये. एक समय था जब इतने बड़े घर में सोने के लिए भी जगह नहीं होती थी. कका, काकी, ठुल ईजा, ठुल बौज्यू, आमा, बूबू, ईजा, बौज्यू और हम आठ नानतिन. फिर रोज कोई न कोई आने-जाने वाले लगे ही ठैरे. कितना ही कमाओ, पकाओ, कम ही पड़ने वाला ठैरा.

आमा, बूबू के जाने के साथ ही सारा घर खटपटी गया. जो जहाँ नौकरी करता था वहीं अपने बच्चों को साथ ले गया. घर गांव को हमेशा हमेशा के लिए छोड़कर. उसके ठुल बौज्यू की बेटी सुशीला का अपने माता-पिता के साथ शहर जाने के साथ ही उसकी पढ़ाई भी छूट गयी. उसने तो जिद की थी आगे पढ़ने की, पर ईजा-बौ ज्यू नहीं माने. किसके साथ आयेगी-जायेगी. छ:-सात किमी, रोज, जंगल का रास्ता हुआ.

सुशीला शहर क्या गयी, शहर की ही होकर रह गयी. उसकी माँ चाहती थी कि उसके लिए कोई लड़का पहाड़ का ही मिल जाये पर काफी दौड़-धूप के बावजूद भी जब कहीं कोई बात नहीं बनी तो घर वालों के चेहरे पर चिंता की रेत फैलने लगी.

उसके बौज्यू जब देबुली की शादी में आये थे तो तभी सुशीला के रिश्ते की बात चली थी. लड़का पास के ही गांव में अध्यापक था पर सुशीला ने गांव में शादी करने से मना कर दिया. बाद में उसने शहर में ही किसी का हाथ पकड़ लिया था. जब यह खबर घर गांव में पहुँची तो बड़ी थू-थू हुयी. कई दिनों तक गांव के लोगों ने अबोल रखा. उनकी बाखली में भी लोगों ने आना जाना बंद कर दिया.

‘नान अन्यो हयौ उनहीं’ गाँव की बचुली ने एक दिन देबुली की माँ से कहा था.

माँ को न जाने उस दिन क्या हुआ. ऐसा सुनकर उसे लगा जैसे गर्म तवे पर उसे रख दिया गया हो पर वह भट की तरह तिड़तिड़ायी ही नहीं बल्कि पकी फूली रोटी की तरह कहने लगी, “शहरों में तो ऐसा होता ही है. शहर में रहकर शहर की जिंदगी जीने में क्या बुरा है. फिर उसकी भी तो अपनी इच्छायें, अरमान हैं. अगर वह अपनी इच्छाओं, भावनाओं के साथ कोई काम कर रही है तो उसका तो स्वागत होना चाहिए…..’

बचूली बिना कुछ बोले वहां से चली गयी. फिर धीरे-धीरे सब कुछ ठीक होता गया. शादी के सालभर बाद जब वह गांव आयी थी तो सब लोग उससे भेंट करने आये थे. उस दिन सारे शिकवे शिकायत रेत की मानिंद उड़ गये थे.

देबुली ज्यादा पढ़-लिख नहीं पायी. आठवीं के बाद पढ़ाई छूट गयी. खेती-पाती करना, जंगल जाना उसकी दिनचर्या बन गया. सुबह मां के उठने से पहले नौले से पानी भर लाना, जानवरों को चारा देना, गोबर निकालना, चौथर में घाम आने से पहले रात की बासी रोटियाँ खाते-खाते जंगल में घास लाने के लिए जाना या किसी के साथ पड़िम से लौटना. फिर खेत में जाना, दोपहर तक लौटकर भानकुन करना, फिर जंगल या खेत जाकर शाम तक लौटना. इस बीच जो थोड़ा बहुत समय मिलता उसमें वह घर-चौथर की साफ सफाई, सजावट में लगाती.

उसे ऐपण डालने की कला भी खूब आती थी. उसके डाले ऐपणों की महक कई दिनों तक बहती रहती. घर गाँव में शादी-ब्याह, उत्सव त्यौहारों या अन्य धार्मिक कार्यों के अवसरों पर ऐपण डालने के लिए उसे जरूर बुलाते. घर-गांव के लोग तब कहा करते थे देबुली की शादी हो जाने दो, तब देबुली की याद आयेगी – और हुआ भी ऐसा ही. उसकी शादी के साथ ही गांव से ऐपण की महक भी जाती रही.

गांव के लोग उस साल कमली की शादी की घटना को अब भी याद करते हुए बताते हैं, जब बारात के घर पहुंचने से ठीक पहले एकाएक मूसलाधार बारिस से गाड़ गध्यर एकबटी गये थे और चौथर में डाले गये सारे ऐपण बारिस से धुल गये थे. पर बारिस जैसे ही थमी देबुली ने चंद मिनटों में सारे चौथर को ऐपण से महका दिया था.

सुबह उसकी नींद मां के रसोई में खटर-पटर से खुली. शाम से उसने सूजी, दूध, दी, घी तैयार कर लिया था. वह सिंगल, खजूर तैयार करने में जुटी थी. शादी से ही हर बार वह उसी तरह पकवान बनाकर उसे ससुराल के लिए विदा करती है. वह हर बार मना करती है पर माँ यही जवाब देती, “च्येली, ससुराल को बेटी खाली हाथ नहीं जाती. पकवान से घरबार में बरकत बनी रहती है.”
(Debuli & Nariya Story)

उस दिन वह ससुराल के लिए तैयार हुई तो उसकी आंखें भरे नौले की तरह डब-डबा आयीं. वह जब भी मां को छोड़कर ससुराल के लिए तैयार होती, बच्चों की तरह डाड़ मारने लगती. उसकी मां हर बार यही समझाती, “नानतिन वाली होने के बावजूद भी बच्चों की तरह डाड़ मारती है….” फिर उसकी बूढ़ी आँखें भी छल छलाकर उन दिनों की याद में डूब जाती, जब वह खुद भी इसी तरह अपनी मां से बिछड़ते समय डाड़ मार मारकर बेहोश हो जाती थी.

“मेरी चिंता मत करना बेटा. मुझे अभी काल का च्यल भी नहीं खाता है… उसकी शादी नरिया के साथ हुई थी. नरिया फौज में भर्ती होने से पहले शहर में किसी साब के घर पर नौकरी करता था. वहीं से वह फौज में भर्ती हो गया था.

शादी के कुछ दिनों बाद ही उसकी तैनाती सुदूर बर्फीली लद्दाख की पहाड़ियों में हो गयी. लद्दाख के दक्षिण-पूर्व में चांगला पहाड़ियों में कंपकंपाती सर्द बर्फीली हवाओं में शाम घिरते ही उसे देबुली की याद सताने लगती. वहां जीवन के नाम पर दो-चार माह के लिए छोटी-छोटी दो-तीन पत्ती वाली फूलों वाली वनस्पति के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता था. दूर-दूर तक फैली बर्फीली या सूखी पहाड़ियों में इन्हीं महीनों में शहरों से गिने-चुने लोग वहाँ पहुँचते. वहां कुछ देर रूकने के बाद कुछ लोग वापस या तो लेह लौट जाते या कुछ आगे पोंगसो झील देखने निकल पड़ते. नरिया उनमें अपने इलाके के लोगों को ढूंढने की कोशिश करता पर हमेशा निराश ही होना पड़ता.
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साल में वह एक बार घर छुट्टी आता. जब तक उसकी मां जीवित थी, कई चीजें उसके लिए संभालकर रखती. वह कहती फिरती, फला चीज मैंने अपने नरिया के लिए रखी है या फला चीज मेरे नरिया को बहुत पसंद है. पर मां के एक दिन अचानक चल बसने के बाद इससे पहले कि वह अपने को बेसहरा पाता उसे देबुली का साथ मिल गया, जिसे उसने कभी किसी बात की कमी नहीं खलने दी. वह उसकी पसंद का ध्यान रखती. पून्यों की उजियारी चांद की रोशनी की तरह. नरिया को रसभात, चड़काडी, घस, डुबका, बड़ी भात, जौला खूब पसंद था. वह जितने भी दिन घर में रहता वह उसकी मनपसंद का भोजन कराती. दूध, दही, घी, छांछ पिलाती खिलाती.

नरिया भी घर आते समय कैंटीन से उसके लिए क्रीम, शैम्पू, बढ़िया खुशबूदार साबुन के अलावा जैम, स्कैवश इत्यादि खरीद लाता. उससे जी भर बातें करता. बाजार से खट्टी मीठी चीजें खरीद लाता. ऐसे ही लाड़ प्यार में कब छुट्टियाँ बीत जाती, पता ही नहीं चलता.

पल्टन को वापस लौटने के दिन वह उसे गांव के सामने के आम के पेड़ तक छोड़ने जाती. आठ बजे की बस पकड़ने के लिए घर से जल्दी निकलना होता. सिर में सामान रखकर उसके पीछे पीछे वह चुपचाप चलती. आम के पेड़ तक पहुँचते पहुँचते उसका कलेजा भर उठता. नरिया भी जितना कदम आगे बढ़ाता उसका मन उतना ही पीछे दौड़ता.
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आम के पेड़ से वह वापस लौट आती. धोती के पल्लू से बेकाबू आँसुओं को पोछती. उसको एक भी शब्द निकालना मुश्किल होता. आम के पेड़ से आगे का रास्ता पहाड़ के साथ लगे जंगल के कारण दिखायी नहीं देता था, तब उसका मन होता, इस पहाड़ जंगल को काट-काटकर नष्ट कर भी डालूं फिर अपने आप पर हँसते हुए सोचने लगती, इस पहाड़-जंगल को नष्ट कर भी डालूँ तो क्या हो जायेगा. घंटे डेड़ घंटे के बाद वे आंखों से ओझल हो जायेंगे, पर इस पहाड़-जंगल ने कितना कुछ दिया है. लकड़ी, घास, बिछावन, गाय भैसों को चराना, पानी यही तो वह जंगल है जिसने कई गांवों की जिन्दगी को ऊर्जान्वित किया है.

वह इस जंगल, पहाड़ के एक-एक डाव-बोट, पाथर को जानती है. वह पहचानती है वहां के पशु पंछियों को, उनकी चहचहाहट, कलरव को. इसी जंगल में नरिया के वियोग में उसने घंटों न्यौली गायी हैं –

लुवारै का आफर में, लू पिटनी घन
जथे लायो उथै जाँछ, मनिख को मन.

शादी के बाद जब पहली बार वह अपनी सास के साथ जंगल में आयी थी तब उसकी सास ने समझाते हुए कहा था, “अगर यह जंगल न होता तो भगवान जाने इस गांव के लोगों के जीवन बसर का क्या हाल होता…” पर तब से यह जंगल कितना छीज गया है. बाँज, बुराँस, देवदार के वृक्षों से सूरज की एक-एक किरण को जमीन पर पहुँचने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी. यह इलाका गैल कहलाता था. कई जगहों पर पानी के सीर, धारे फूटे रहते थे.
(Debuli & Nariya Story)

पर पिछले कई वर्षों से लगातार हर साल गर्मियों की शुरूआत के साथ ही जंगल में आग लगने से कई जीव जन्तुओं के साथ कई प्रजातियों के पेड़ पौधे भी सदा के लिए लुप्त हो गये. वृक्षों के अंधाधुध कटान या अवैज्ञानिक तरह से विकास हेतु वनों के दोहन से हालत यहाँ तक पहुँच गयी कि कई जंगली जानवरों ने गाँवों या सड़क की ओर रूख कर लिया. जहाँ लोगों ने मारकर उनकी खाल, शिकार इत्यादि बेचकर पैसा अर्जित करने का नया धंधा अपना लिया.

हालांकि जंगल में पहले भी आग लगती थी, पहले भी जानवरों का शिकार होता था परन्तु तब एक ही धात (आवाज) में सारे गांव के लोग इकट्ठा होकर आग बुझाने के लिए जंगल के लिए निकल पड़ते थे. इसके साथ ही उन जानवरों को मारना अपराध माना जाता था जो मादा गर्भवती हो… पर अब तो जैसे सारा कुछ बदल गया है. कोई आग बुझाने के लिए नहीं मनसाता. छोटे-छोटे नवजात पशु पक्षियों को भी लोग मारने से नहीं हिचकिचाते…
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दो-तीन साल पहले जब वह उस बार अपने मायके से ससुराल लौट रही थी, गांव से चार मील दूर सड़क पर दो-तीन गौल (गोह) सड़क पार करते समय गाड़ी के नीचे आकर मर गये थे. जंगल के छीजने के साथ ही गधेरों में घटभर से भी ज्यादा बहने वाला पानी, डबडबाते नौले, छलकते खाव भी सूखने लगे. किल्मोड़ा, व्यर, हिसालू की झाड़ियाँ लुप्तप्राय हो गये. खटाई के लिए भी ब्यर, किल्मोड़ मिलना मुश्किल हो गया. तब देबुली ने गांव की महिलाओं के साथ मिलकर एक मंगलदल का गठन किया और कसम ली कि अब वे अपने जंगल को और अधिक छीजने नहीं देंगे…

गाड़ी आने में अभी देरी थी.

“आज जा रही है देबुली?”

देबुली ने पीछे मुड़कर देखा, खिमुवा बैल लेकर खेत जा रहा था.

“दादी पैलाग.”

“जी रये ले, चाँण-गुड़ ले जाना.” खिमुआ ने उसे दस रुपये थमाते हुए कहा.

“खिमू दय्योरा, तुम्हारे साथ तो रोज ही कल्ला रोयी रही. तुम्हारे बैलों ने रोपाई किया. खेत रौंद दिया है. ” पास के खेत से पारक धार की शांति आवाज लगा रही थी. खिमुआ दौड़कर बैलों को हॉककर अपने खेत की ओर चला गया.
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वह सोचने लगी, खिमुआ के भाग में भी रोज कल्ला-रोयी ही रही. जब वे छोटे थे, दोनों एक साथ स्कूल जाते, साथ-साथ जानवरों का ग्वाला. जाते. वहाँ जामुन, किल्मौड़, हिसालू, काफल, स्योंत, घनघूढ़ टीपकर खाते. ठुलढुंग में घुरगिसी खेलते, घुरड़ी घुराते, तप्पड़ में लुटपुटी खेलते, बारिस में किसी उड्यार के नीचे बैठकर खूब बातें करते.

“सामान थाम चेली. बस आ गयी है.” की घुर्राट सुनकर उसकी माँ ने कहा.

बस खचाखच भरी हुई थी. शहर जाने वालों से गाड़ियाँ कई दिनों से भरकर जा रही थीं. औरतों, बच्चों, बड़े बूढ़ों की हँसी खिलखिलाहट से बस भरी हुई थी.

देबुली कंडक्टर के पास ही बैठ गयी. बस में फैली मस्कित चेहरों से इतर देबुली अपनी ही. उधेड़बुन में उलझ गयी. हलिया अगले तू से हल चलाने के लिए मना कर गया है, कोई नया हलिया ठहराना है. लकड़ी चिरवानी है. बरसात से कानौ की जो दीवाल ढह गयी है, उसे ठीक करवाना है…
(Debuli & Nariya Story)

“लियो, उतरो हो.” कंडक्टर ने देबुली के गांव आने पर गाड़ी रोककर दरवाजा खोलते हुए कहा.

गाड़ी से उतरकर देबुली जल्दी से घर पहुंच जाना चाहती थी. वह गांव की पगडंडी पर चली ही थी कि पीछे से आवाज सुनायी दी, “रूको हो, को छा जाणी! दगडै हिटुल.”

देबुली ने पीछे मुड़कर देखा, नरिया सन्दूक उठाये चले आ रहा था. एक दूसरे को देखते ही उनकी सारी चिंताएं थकना, हरसिंगार के फूल की तरह झड़ने लगी, मानो सारा जंगल बुराँश की लालिमा से नहा उठा हो. पुरवाई और भी सुहावनी लगने लगी थी. जंगल की चढ़ाई वाला रास्ता मोम सा पिघलकर अब तप्पड़ सा लगने लगा था.
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ललित वर्मा

ललित वर्मा की यह कहानी पुरवासी के 2013 के अंक से साभार ली गयी है.

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