Featured

आज है कैप्टन धूम सिंह चौहान की 135वीं जयंती

गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 5 मई 1887 को अल्मोड़ा में हुई थी. इसी दिन पहली बटालियन रेज़ की गयी. प्रथम विश्वयुद्ध शुरु होने के समय अर्थात् 1914 में गढ़वाल राइफल्स की दो बटालियन थी. दोनों ने इस महायुद्ध में भाग लिया. दोनों बटालियन्स के शौर्य और बलिदान की कहानी जगत्प्रसिद्ध है. बाद में तीसरी और चैथी बटालियन का गठन भी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही हुआ पर इन बटालियन्स को इस महायुद्ध में भाग लेने का अवसर नहीं मिल पाया.
(Captain Dhoom Singh Chauhan Uttarakhand)

ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सर्वाधिक मानवीय क्षति, गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन की ही हुई. बहुत कम सैनिकों का ऐसा भाग्य रहा कि जो प्रथम बटालियन में रहे हों और सकुशल स्वदेश लौट सके हों. धूम सिंह चैहान, ऐसे ही गिनती के सौभाग्यशालियों में से एक थे. न सिर्फ़ प्रथम विश्वयुद्ध के, फ्रांस-मोर्चे से बल्कि 1919 के थर्ड एंग्लो-अफ़ग़ान वार के मोर्चे से भी अपनी सेना को विजय दिला कर लौटे. दोनों युद्धों में लड़ते हुए वो घायल भी हुआ पर अपने काम को अंज़ाम देता रहा.

1920 में ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया और बहादुर खिताब प्राप्ति के बाद धूम सिंह चौहान

ब्रिटिश इण्डियन आर्मी में 31 साल का सितारों-तगमों से अलंकृत, शानदार सफर रहा धूम सिंह चैहान का. अपर गढ़वाल का साहसी-चतुर-प्रतिभाशाली युवा धूम सिंह, एक दिन उबले हुए भुट्टों को साथ लेकर, पैदल घर से भाग निकला सीधे लैंसडाउन, सेना में भर्ती होने. और फिर अपने शानदार सैन्य करियर में कभी रुक कर पीछे नहीं देखा. बमुश्किल हिन्दी लिखने-पढ़ने वाला यही युवा एक दिन अपनी लगन, शौर्य और कर्मठता से ब्रिटिश-साम्राज्य के सम्राट, जॉर्ज पंचम के शाही आवास, बकिंघम पैलेस तक पहुँचा. भारतीय सैन्य इतिहास में किसी सैनिक के उत्कृष्ट योगदान को गर्व से सलाम करने के लिए इतना ही काफी है. पर धूम सिंह चैहान के करियर के बारे में बताने को और भी बहुत कुछ है.
(Captain Dhoom Singh Chauhan Uttarakhand)

साल 1903 में गढ़वाल राइफल्स में भर्ती होकर, 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध में सीनियर इंस्ट्रक्टर ऑफ़ सिग्नलिंग के रूप में भाग लिया. न सिर्फ़ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया बल्कि सीनियर ऑफिसर की मृत्यु हो जाने पर सिग्नलिंग यूनिट का सफलतापूर्वक निर्देशन भी किया. गौरतलब है कि सेना में सिग्नलिंग यूनिट का काम, कॉम्बेट यूनिट से भी खतरनाक होता है क्योंकि उन्हें मोर्चे पर आगे-आगे जाकर सिग्नल्स के जरिए स्थिति की जानकारी देनी होती है. साथ ही खतरनाक नो मैन्स लैंड में जाकर भी टेलीफोन लाइन बिछाने-मरम्मत करने का काम करना पड़ता था.

प्रथम विश्वयुद्ध में 13 अक्टूबर 1914 से 13 जुलाई 1915 की वार सर्विस के योगदान के लिए 1914 स्टार मेडल, वार मेडल और विक्ट्री मेडल प्राप्त किया. 1919 में तृतीय अफगान युद्ध में ऐतिहासिक और रणनीतिक महत्व के खैबर दर्रे के प्रवेशद्वार, पेशावर के पास जमरूद नगर में लाम पर गए, वार ड्यूटी करते हुए घायल हुए. ऑर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इण्डिया सेकेण्ड क्लास का तगमा और बहादुर का खि़ताब व इण्डियन जनरल सर्विस मेडल हासिल किया. 1929 में सम्राट जॉर्ज पंचम के ऑर्डली ऑफिसर के लिए चयनित हुए और लंदन स्थित बकिंघम पैलेस में एक साल योगदान दिया, रॉयल विक्टोरियन मेडल हासिल किया.

सेवा के शानदार रिकॉर्ड, बहादुरी और कर्मठता को देखते हुए अगस्त 1932 में ऑर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इण्डिया, फस्र्ट क्लास का तगमा और सरदार बहादुर का खि़ताब प्राप्त किया. यह तगमा तत्कालीन वायसराय, लॉर्ड विलिंग्डन ने शिमला में सम्राट के जन्मदिन की परेड पर खुद अपने हाथों से पहनाया. धूम सिंह चैहान गढ़वाल राइफल्स के पहले भारतीय ऑफिसर हैं जो गढ़वाल राइफल्स में राइफलमैन के रूप में भर्ती हुए और किंग्स कमीशन प्राप्त कर, सरदार बहादुर के खिताब और जागीर प्राप्त कर 31 साल की पूरी अनुमन्य सेवा के बाद सेवानिवृत्त हुए थे.
(Captain Dhoom Singh Chauhan Uttarakhand)

चमोली जिले में बिचला नागपुर पट्टी के सरमोला गाँव में नागवंशीय चैहान परिवार में 20 फरवरी 1886 को, गढ़वाल राइफल्स के इस नायक का जन्म हुआ. सरमोला गाँव चमोली जनपद के पोखरी-कर्णप्रयाग मार्ग पर खाल गाँव के समीप स्थित है. हवाई पट्टी और विस्तृत खेल-मैदान के लिए विख्यात नगर गौचर का यहाँ से विहंगम दृश्य दिखता है. सरमोला गाँव अब गौचर से भी मोटरमार्ग से जुड़ गया है. इसी गौचर नगर (बदरीनाथ मार्ग स्थित) में धूम सिंह चैहान ने, जागीर में मिली जमीन में, यूरोपीय शैली का आवासीय भवन बनवाया.

गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर लैंसडाउन ने 1987 में प्रकाशित शताब्दी स्मारिका में पूरे पृष्ट पर धूम सिंह चैहान जी का चित्र प्रकाशित किया है. इस स्मारिका में ये गौरव प्राप्त करने वाले वे एकमात्र भारतीय ऑफिसर हैं.

सेवानिवृत्ति के पश्चात बीस साल के जीवन में भी वे निरंतर सक्रिय बने रहे. शिक्षा और गौचर मेले के लिए उनकी सक्रियता खास तौर पर देखी गयी. पैतृक गाँव सरमोला के प्राथमिक विद्यालय के लिए उनके द्वारा दो नाली ज़मीन दान दी गयी. गौचर में बसने के बाद उन्हांेने देखा कि यहाँ भी प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा के लिए कोई स्कूल नहीं है. उनके प्रयासों से ही 1947 में यहाँ जनता जूनियर हाईस्कूल की स्थापना हो सकी. इसके उच्चीकरण के लिए भी वे अपने जीवनकाल में निरंतर प्रयासरत रहे. तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर गढ़वाल से इस सम्बंध में किया गया पत्रव्यवहार इसका प्रमाण है. पृथक बालिका विद्यालय की स्थापना में भी सक्रिय सहयोग दिया और स्थानीय नागरिकों को बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए भी प्रेरित किया.
(Captain Dhoom Singh Chauhan Uttarakhand)

पौत्र द्वारा बनाया गया पोर्टेट

1944 में गौचर मेले को राजकीय संरक्षण प्रदान करने में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही. इससे पूर्व सीमांत के भोटिया व्यापारियों के द्वारा को गौचर मैदान को पड़ाव के रूप में इस्तेमाल करते हुए ही ऊनी वस्त्रों व अन्य सामग्री का व्यापार किया जाता था. लेडी विलिंग्डन और जवाहर लाल नेहरू के गौचर आगमन के अवसर पर अपर गढ़वाल के गणमान्य व्यक्तियों के साथ उनके द्वारा गौचर मेले को राजकीय संरक्षण प्रदान किए जाने की मांग प्रमुखता से उठायी गयी थी. ततकालीन सरकार द्वारा उनकी इस तार्किक और जरूरी मांग को 1944 में मान लिया. तब से गौचर मेला पूरी शानो-शौक़त से प्रति वर्ष राजकीय औद्योगिक एवं विकास मेले के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है. सात दिवसीय इस मेले का आयोजन जवाहर लाल नेहरूजी के जन्मदिवस 14 नवम्बर से 20 नवम्बर तक किया जाता है. गौचर के वयोवृद्ध गणमान्य नागरिक, पूर्व मालगुजार (पदान), 98 वर्षीय आदरणीय दीवान सिंह बिष्ट जी (हाल ही में निधन हो गया है) कप्तान साहब को अत्यंत आत्मीयता से याद करते हुए बताते हैं कि गौचर मेले के शुरुआती सालों में उद्घाटन समारोह के प्रमुख स्थानीय संरक्षक कैप्टेन धूम सिंह जी ही हुआ करते थे. 

कप्तान धूम सिंह चैहान की 85 वर्षीय पुत्री श्रीमती गोदावरी चैहान कंडारी पिता को याद करते हुए बताती हैं कि वे प्रातःकाल संध्यावंदन में हमेशा गीतापाठ किया करते थे. आधुनिक समय के महाभारत (प्रथम विश्वयुद्ध) में दो बार घायल होने और कबाइली अफगानों को परास्त कर (तृतीय अफगान युद्ध में), सकुशल घर जो लौटे थे. सात समोदर पार अनजाने इलाके में भीषण युद्ध में गीता ने ही उनका मनोबल बनाए रखा था. आज के बच्चे शायद ही विश्वास करें कि कैप्टेन की पेंशन पाने वाला कोई व्यक्ति खेती-किसानी भी पूरी तल्लीनता से करता रहा होगा. पर पिताजी ऐसे ही थे. अपने हाथों खेतों और क्यारियों में निराई-गुड़ाई करते थे. गौचर में खरीद की ज़मीन थी. पिताजी ने घर के सामने के खेतों को अपनी मेहनत से समतल किया था.

84 वर्षीय पुत्री श्रीमती गोदावरी चौहान कंडारी

अपने खेतों के लिए अपना ही पैसा लगा कर नहर बनवायी, जो अभी भी खेतों को सींचती है. बड़े बैलों का शौक़ भी था. सफेद रंग के भाभरी बैल रखते थे. उनको भी बच्चों की तरह प्यार करते थे. उनके सींगों में तेल लगा कर रखते थे. थोळी से उन्हें घी पिलाते थे. सावन के महीने में बैलों को अंधेरी दी जाती थी. हल लगाने के लिए हळ्या रखा हुआ था. पिताजी का निधन 1953 में बैसाख के महीने हुआ था.
(Captain Dhoom Singh Chauhan Uttarakhand)

20 फरवरी 2021 को गढ़वाल राइफल्स के गौरव, कैप्टेन धूम सिंह चैहान की 135वीं जयंती है. इस अवसर पर परिजनों द्वारा उनकी शानदार जीवनकथा को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है. उत्तराखण्ड की शानदार सैन्य परम्परा और इतिहास में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए ये पुस्तक बहुत ही महत्व की है. गढ़वाल राइफल्स के किसी अधिकारी या सैनिक पर जीवनी के रूप में लिखी गयी है. ऐतिहासिक महत्व के फोटोग्रैफ्स इस पुस्तक की अतिरिक्त विशेषता है. कैप्टेन धूम सिंह चैहान की उपलब्धियों भरी कहानी पर गर्व भी होता है और प्रेरणा भी मिलती है.

गढ़वाल रेज़ीमेंट सेंटर लैंसडाउन ने स्वर्ण जयंती समारोह स्मारिका में उन्हें पायनियर्स के रूप में सम्मान दिया है. कैप्टेन धूम सिंह चैहान, सिग्नलिंग पायनियर थे, सरदार बहादुर, सम्राट के ऑर्डली ऑफिसर, गर्वनर के अंगरक्षक. अपने गृह-क्षेत्र में शिक्षा की अलख जगाने वाले समाजसेवी भी थे. दो महाद्वीपों के महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्धों में विजयी प्रतिभागिता करने वाले कैप्टेन धूम सिंह चैहान को उनकी 135वीं जयंती पर ग्रैंड सैल्यूट, विनम्र श्रद्धांजलि.
(Captain Dhoom Singh Chauhan Uttarakhand)

देवेश जोशी

इसे भी पढ़ें: काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि : एक कर्मयोगी शिक्षक की जीवनकथा

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

3 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

5 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago