दाज्यू बोले तो, भाईजी या बड़ा भाई. बचपन में मुंशी प्रेमचन्द की कहानी बड़े भाई साहब पढ़ी थी. उनके दाज्यू को बाद में कई हिन्दी फिल्मों में देखता रहा. जैमिनी से ए व्ही एम के बैनरों में, बलराज साहनी से अभिताभ बच्चन के किरदारों में उनकी छवि मिलती रही. अलबत्ता फिल्मी दाज्यू फेल होने के बजाय सदा फर्स्ट क्लास फर्स्ट आते रहे. छोटे को पिलाई गई लम्बी लैक्चरबाजी की भरपाई करते कहानी के क्लाइमैक्स में, बड़े भाई की तथाकथित गरिमा को किनारे रख, छोटे की मदद को कटा कनकौवा लेकर दौड़ नहीं पड़े. शेखर जोशी की कहानी के दाज्यू पहाड़ के परिवेश से निकल कर देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप चलने के चक्कर में अपने भुला को आहत कर गये.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
दरअसल दाज्यू संबोधन से नवाजा गया व्यक्ति उत्तराखंडी संदर्भों में एक किसम से बाप जैसा हो जाता है. कहने का ये भी मतबल कि किसी खांटी पहाड़ी का भावनात्मक शोषण करना हो तो उसे ‘दाज्यू’ बना लो. इसके लिए खून का रिश्ता या कोई भी रिश्ता होना आवश्यक नहीं है. फिर देखो वह अपने बदन का कपड़ा भी खोलकर दे सकता है. ये समझ लीजिए कि सिपाही को दारोगा जी, दीवान जी या छुटभइये को मंत्री जी कहने पर उनके व्यक्तित्व में उद्धात्तता का जो प्रकोप होता है, वैसे ही दाज्यू संबोधन पाकर बड़े से बड़े दंभी पिघलते देखे गये हैं.
इसका एक उदाहरण दूं आपको, रामलीला हो रही थी, रावण का दरबार सजा हुआ था. शूर्पनखा नाक कटा आई थी. रावण सैनिकों पर बिगड़े हुए थे. जैसी कि परम्परा है एक-आधा राक्षस सैनिक जरूर मसखरा होता है, उसने आव देखा न ताव, रावण को दाज्यू कह दिया. फिर क्या था, रावण का भाव विभोर जैसा हो गया और मंचीय सीमाओं के भीतर उसका टैम्पो अनायास ही डाउन हो गया. उस्ताद परेशान कि बहरतबिल वाला सुर मालकोंष पर क्यों आ गया? यहां ऐसी महिमा है दाज्यू की.
वो अगर साथ हों तो आपको जेब में हाथ डालने को कतई ज़रूरत नहीं. खाओ-पिओ और दांत दिखाते हुए पिछवाड़े में हाथ पौंछो. वो अपने आप पेमेंट करेंगे. हो सके तो बांए हाथ से सिर खुजाओ और दांया किसी त्वरित आदेश के पालन हेतु फ्री रखो. अगर दाज्यू पूछें ‘और खाएगा कुछ?’ तो कहो, ‘नहीं दाज्यू, अब्भी तो खाया फिर कब्भी खा लूंगा.’ अगर वो सिगरेट-बीड़ी पीते हों या पान खाते हों तो जरूर पूछो, ‘लाऊं क्या?’ ऐसा पूछते वक्त अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों की कैंची सी बना लें जिससे नोट पकडने में आसानी हो और जाहिर हो कि आपका छुट्टे से लगाव आदि भी नहीं है.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
ध्यान रहे यहाँ आपका अपना व्यसन आड़े नहीं आना चाहिए. चाहे कुछ हो जाए आप इस मादक कोर्स में भूल कर भी शामिल न हों. वरना सारा खाया-पिया और भविष्य की संभावनाएं चौपट हो सकती हैं. साथ ही ब्रांड के बारे में ठोक कर पूछ लें. जैसे, बीड़ी के केस में, शेर मार्का, राम.श्याम या सिगरेट के केस में फिल्टर, नान फिल्टर और पान के तम्बाकू का नम्बर आदि. आदेश को खुद दोहराएं और ऐसा जताएं जैसे आप उवाचित ब्रांडों के नाम जीवन में पहली बार सुन रहे हों. इसका यह मतलब नहीं है कि दाज्यू आपकी निरामिष आदतों के कायल हो जायेंगे, बस उन्हें यह तसल्ली रहेगी कि लौंडा उनके सामने औकात में चल रहा है. बाद में उक्त मादक पदार्थ वह आपको भी आफर कर सकते हैं. लेकिन खबरदार आपको दृढ इच्छाशक्ति के साथ टिके रहना है. चाहें तो कह सकते हैं ‘नहीं-नहीं दाज्यू कत्तई नहीं !’ आपको सुनने मिल सकता है; ‘शाबाश-यार हमको तो कोई समझाने वाला ही नहीं था. खेल-खेल में भेल हो पड़े.’ ध्यान रहे इस कथन के बाबत पश्चाताप या अपनी स्ट्रोंग विल पावर इत्यादि का संकेत देने की भूल न कर बैठें. मतलब ये कि आप निम्न जैसा कोई संवाद न बोलें
ओ हो… आपको तो भौती नुकशान हो गया होगा?
नहीं-नहीं, मैंने तो भाबर की बरयात में तक शिगरट-सराब को हात नहीं लगाया जबकि वहाँ भौती दैल-फैल (इफ़रायत) हो रही थी.
ज्यादा से ज्यादा आप कह सकते हैं, ‘कोई बात नहीं दाज्यू, कम-कम इस्तेमाल से ज्याधा नुकशान नहीं होता, बल!’ तत्पश्चात यदि दाज्यू दार्शनिक अंदाज में कुछ कहें, जैसे- ‘अरे यार अब क्या नफा-नुकसान, अकल और उमर को भेट हुई कभी…क्याप्प ठैरा!’ पुनः ध्यान रहे आपको केवल खीसें निपोरनी होंगी. चाहें तो इस पड़ाव पर आप सटक (जा) सकते हैं. कह सकते हैं, ‘ऐल हिट्नू पै.(अभी चलता हूँ).’
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है दाज्यू होने के लिए सगा भाई होने की कोई शर्त नहीं है बल्कि असली दाज्यू के दर्शन पड़़ौस इत्यादि में ज्यादा होते हैं. सगे दाज्यू कई बार इतने ‘पजैसिव’ और ‘माडल कोड आफ कन्डक्ट’ वाले होते हैं कि छोटा भाई उनके हृदय तक पहुँच नहीं पाता. वो छोटे को आदर्श अनुज के रूप में देखने की चाहत रखते हैं, अगर छोटा लक्ष्मण जैसा बने तो वो राम बन सकते हैं. दूसरी ओर मुहल्ले के दाज्यू थोड़ी कास्मोपोलेटिन छवि रखते हैं. वह फौजी जरनल-कर्नल जैसे कड़क नहीं, रोडवेज की बस कन्डक्टर जैसे नरम-गरम होते हैं. वह छोटों से थोड़ी बहुत मजाक भी कर लेते हैं. जैसे इण्टर के विद्यार्थी से कह सकते हैं, ‘क्यों लल्ला आजकल कम दिख रहे हो, अभी से ग्यस (guess) पेपर खरीद लिया क्या?’ उनके परिहास में धौनी को बाल न कटवाने की सलाह देते मुशर्रफ की छवि देखी जा सकती है. अपनी टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में दाज्यू नहले पै दहला पसंद नहीं करते. आपको यह दिखाना होता है कि उनकी बात का मज़ा इधर भी आ रहा है. जिन दिनों भैजी की शब्दावली में दिल, मुहब्बत, टशन इत्यादि जैसे शब्दों का समावेश हो रहा हो तो निश्चित जानिए कि वह अच्छे मूड में हैं. आप चाहें तो इस मूड का फायदा उठा कर अपना चिप्पी लगा नोट उनके नये नोट से बदल सकते हैं या उनके पुराने धूप के चश्मे को अपने लिए मांग सकते हैं, आदि-आदि.
दिल मुहब्बत इत्यादि की बात चली है तो आपको दाज्यूओं के व्यक्तित्व के उस पहलू के दर्शन करवाता चलूं जो ’60-70 की हिन्दी फिल्मों के नायकों के प्रेम/प्यार के प्रति दृष्टिकोण से काफी प्रभावित दिखता है, बल्कि कभी-कभार तो उससे भी ज्यादा प्लूटोनिक मिलता है . भैजी कई बार सोचते हैं, ‘आग उधर भी है लगी हुई !’ वो धुएं की प्रतीक्षा करते हैं. जब धुआं निकलता न दिखे तो दाज्यू अपने घनघोर आशावादी स्वभाव के अनुरूप तीतर सी चपल पर प्यार के प्रति गाय सी उदासीन दिखने वाली कन्या के कानों तक अपना स्वर पहुंचाने की कोशिश करते हैं-
‘जीत ही लेंगे बाज़ी हम तुम, खेल अधूरा छूटे ना, प्यार का बंधन, जनम का बंधन, जनम का बंधन टूटे ना…’
इसे टुटका कहा जाता है. इतिहास में इसे सफल होते देखा गया है… आजमाते हैं, धैं !
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
‘मिलता है जहां धरती से गगन आओ वहीं हम जाएं, तू मेरे लिए मैं तेरे लिए इस दुनिया को ठुकराएं….’ एवज् में उन्हें सुनने मिल सकता है, ‘दै’ (पाठक क्षमा करेंगे ‘’दै” के आगे कौन सा चिन्ह लगेगा, इसका ज्ञान मुझे आज तक नहीं हो पाया है.) खैर, इस दौर में दाज्यू जूते-कपड़ों के प्रति काफी लापरवाह हो जाते हैं. कई-कई तो हफ्ता दस दिन तक स्नान भी नहीं करते. कुछ कविताएं आदि लिखते पाए जाते हैं. कुछ लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार जाते हैं. उनका दिल कहता है, मैं रात इसके सपने में जाऊं और दिल की बात कह दूं. सुबह वो आए और सीने से लग कर कहे, ‘तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, न आगे कभी होगा, पर जो होगा देखा जाएगा. मैं तुमसे प्यार करती हूं. तुम्हारे अलावा मन से किसी की नहीं हो सकती…. विद्या कसम’ आदि, पर ऐसा होता नहीं. दाज्यू शायद उसके सपने में जा नहीं पाते. जाते भी होंगे तो जाने किस रूप में ! सपनों के साथ यह बड़ी खराबी है, देखने वाला तो देख लेता है पर उसके अन्य पात्रों को पता भी नहीं चलता. दाज्यू इस बात को भी समझते हैं. अब वह थोड़े कातर भाव लगाते हैं-
चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर,
वो बेचारा दूर से देखे, करे न कोई शोर…
कन्या की भाभियां आदि इस अवस्था को ‘सैंटीना’(चाहिए ही चाहिए वाली ज़िद) बताती हैं. इस बीच वह सामाजिक उपन्यास आदि पढ़ते हैं और दुखान्त कहानियों के नायक सरीखे दिखने लगते हैं. हाँ, कुछ दाज्यू अवश्य भाग्यशाली होते हैं जिनकी कोहनी कभी अखण्ड रामायण या भागवत की गैदरिंग में मादा को छू जाती है. वह चाहते हैं कि कन्यां ‘कांटा लगा…’ गाये पर वह रामायण का टेक पद ‘मंगल भवन अमंगल हारी…’ गाती है. सच तो यह है कि दाज्यू को इंतजार रहता है दिल के टूटने का. वह टूटता है, पर यहां-वहां जाकर नहीं गिरता. फ्रेम में जकड़े कांच की तरह वहीं टिका रहता है. बचपन में जिस लड़की के साथ आइस-पाइस, डैन-डैन या छुपम-छुपाई खेली हो उसके अन्दर ईश्वर भक्ति के सागर को हिलोरे मारता देख दाज्यू कलतरीे (अचंभित रह) जाते हैं . ‘बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना…’ लिखने वाले शायर के प्रति अगाध श्रद्धा भरे दिल से ब्रांच-आउट हुई भुजाओं में थामी भंडारे की बाल्टी से आलू की सब्जी उसके पत्तल में परोसते आंखों में आंखे डालने का प्रयास करते हैं पर नज़र फिसल कर कुर्ती के गले की छांट तक बहक जाती है. यहां उन्हें लौंडों के भंडारे में भौलंटियर बनने की प्रेरणा का सोर्स पता चलता है. तभी उनकी सुन्न पड़ गई पाँचों कर्मेन्द्रियों को जगाता स्वर उभरता है, ‘छौंके की मिर्चा है तो डाल दो दाज्यू.’ किरकिरी का डाउट तो उन्हें रहा होगा ही पर भण्डारे जैसे धार्मिक प्रीतिभोज पर वो इकरार का इशारा कर बैठे ऐसी संभावना से भी उनका दिल इन्कार नहीं कर रहा होगा.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
इस चौथाई प्रेम कहानी की नायिका की सहेलियां जो इत्तेफाक से या सोची समझी रणनीति के तहत दाज्यू के इश्क और रुसवाई की गवाह हैं, उन्हें देखकर अजब ढंग से मुस्काती हैं –‘शिबौ-शिब!’ एक अन्य सिचुएशन में इन सहेलियों में से एक-आध विकासशील कन्या उन पर तरस खा, मेहरबान होने के लक्षण दिखाती है.. पर दाज्यू अपने ‘चांद’ को छोड़ किसी तारे के साथ कैसे…! अब उन्हें वैराग्य सा आता है. फिर चला भी जाता है. ऐसे मरहलों से गुजर कर कई दाज्यू दिन के डेढ़ दर्जन तक इश्क करते हैं. जिसको देखा उससे इश्क. इस दौरान यदि बारिश हो जाय तो वह कुछ मौलिक कविताएं लिखते या कुछ विशेष फिल्मी गीत गाते हैं; इसके उदाहरण देंखे- मौलिक कविता (छायावादी) –
उदास हैं दिल के पहाड़, गवाह हैं पेड़, चांदनी और सूने मकान के किवाड़…आदि.
विशेष गीत (मूल गायक मुकेश) –
तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी…… अंततः अधिकांश दाज्यू बरसों बाद गोठ की शादी में, पंडित के कहने पर, पहली बार अपनी पत्नी के रूप में किसी कन्या का हाथ पकड़ते हैं. दोस्त और शागिर्द जब उपस्थित कन्या समाज के नब्बे प्रतिशत बेमतलब गीतों और ठिठोली में से ‘मोस्ट रैलिभैंट’ सन्दर्भ को चुनकर रहस्यमय अंदाज में दाज्यू के कान में डालते हैं तो दाज्यू हाल ही में पुती छत पर अर्थपूर्ण निगाह मारते हैं. मानो वहां उन्ने खुफिया कैमरा लगवा रखा हो, जिससे बाद में पुष्टि कर ली जाएगी कि मुद्दा कितना जिनुइन था.
उदाहरण के लिए यदि कन्या समाज गाए, ‘पान खाए सैंया हमारो..’ और शागिर्द उनके कान में फुसफुसाए, ‘दाज्यू इनको जरूर ‘छिपड़ी’ ने बताया होगा कि आप भी जड़ी लेने पान सिंह के पास देवीधूरा गये थे…. और कौन बता सकता है ?’ तब दाज्यू छत की ओर देखते हुए उसकी बात हजम करते हैं और वहीं निगाह टिकाए कान में फूंकते हैं, ‘….इट्स ऐलीमेंट्री माई डियर वाटसन, तू जरा पत्त लगा, किम नाम्ने फादरस्य कन्या हमर ब्रदर दगड़ लसर-पसर करोति- देयर, ऑन दैट राइट कार्नर.’ (ये सामान्य बात है प्यारे, तू ये पता लगा कि वो कोने में हमारे भाई से लसर-पसर कर रही कन्या किन महानुभाव की बेटी है?)
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हो सकता है आपको लग रहा होगा कि हर छोटा भाई कभी न कभी दाज्यू बनता ही होगा. पर ये ‘सास भी कभी बहू थी’ वाला फार्मूला यहां फिट नहीं बैठता. हर एक भइयू, भुली या कुतानू ‘दाज्यू’ नहीं बनता. निरे प्रतिभाशाली ही, दाज्यू के रूप में स्थापित होते देखे गये हैं. उनकी एक पृष्ठभूमि होती है. समाजशास्त्री इसे ‘वैल्यू ओरिएंटेशन इन ए सोसियल सिस्टम’ बताते हैं. जैसे पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं वैसे ही दाज्यू बनने के आरम्भिक लक्षण किशोरों में परिलक्षित होने लगते हैं.
उदाहरण के लिए अपने मुहल्ले की लड़की को छेड़ने के पुरस्कार स्वरूप वह पिछाड़ी बज़ार के जीवन पहलवान का दाँत तोड़ चुके होते हैं. फर्स्ट डे-फर्स्ट शो के पहले टिकट निकाल चुके होते हैं. क्योंकि वह कड़ा पहनते हैं, इसलिए विंडो के दिये घावों के निशान आज भी उनकी कलाई पर देखे जा सकते हैं. हाकी, फुटबाल, कैरम, शतरंज, डिब्बू और मग्घू चोर में वह एक सी निपुणता रखते हैं. अपने दाज्युओं के लिए वह जान पर खेल जाने का जज्बा रखते हैं. इण्टर गणित के पर्चे को सौल्भ करवा के, परीक्षा कक्ष की खिड़की पर तुरई की तरह लटक कर, पर्ची को ठीक अपने दाज्यू की डैस्क तक पहुंचा चुके होते हैं. जरूरत समझें तो मास्साब को आंख दिखा या मार भी सकते हैं. आदि-आदि. (Satire by Umesh Tewari Vishwas)
इस अवस्था को पार कर सामान्यतः उन्हें ‘धाकड़’ की पदवी मिलती है. बिना मैडल या प्रशस्ति पत्र, यह एक ऐसी मान्यता है, जो पूरी तरह गैर सिफारिशी और स्वतःस्फूर्त है. इसे हासिल कर वह उन सोपानों के अधिकारी होते हैं जिनमें रामलीला, मुहर्रम आदि अवसरों पर सौहार्द सुनिश्चित करना या अति सौहार्द दिखा रहे कलाकारों पर नियंत्रण की व्यवस्था निहित है. उनका कद अब जिला परिषद के स्कूलों के बीच जी. आई. सी. जैसा हो जाता है. यहां लड़कियां उनको रिझाने का प्रयास करती हैं किन्तु जैसा कि उनके भाग में बदा है, वह अपनी छवि में मगन सेलिब्रेटी जैसा व्यवहार करते हैं. महिला प्रशंसकों से एक दूरी बनाए रखते हैं- हुड़भ्यास ! आटोग्राफ का प्रचलन न होने से वह छुआ-छुई और फाईनली कामदेव के प्रभाव से बचे रह जाते हैं. मात्र निद्रा के आगोश में जाने से पूर्व रजाई में मुंह ढक कर सुन्दरता को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.
यहां आपको एक सुखद परिणिति भी बताता चलूं, कुछ धाकड़ों की सौभाग्य से नौकरी लग जाती है और इस स्थिति में समाज एक दाज्यू से महरूम रह जाता है. हां, अगर वह मिलट्री वगैरहा में चला जाए तो साल में एक बार रम की धुरमन्न जरूर कर देता है. पर यह तो ऐसा हुआ जैसे सानियां मिर्जा एक ग्रैंडस्लैम में तीसरी रैकिंग वाली को हरा दे और फिर सालों इंतजार करवाए. खैर, दाज्यू फिर भी बनते हैं, क्योंकि सबको नौकरी कहां मिलती है ! अब, यह ‘धाकड़’ परिस्थितियों से जूझते हैं. घर से टोकाई खाते, पढ़ाई में सेकिण्ड-थर्ड डिवीजन पाते, बीड़ी-सिगरेट सुलगाते, नौकरी की आस और प्यार की प्यास लिए धीरे-धीरे दाज्यू के रूप में विकसित होते हैं, जैसे बंगाल का कम्यूनिस्ट पोलित ब्यूरो का सदस्य बने.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
जब पैरा राजनीति पर खतम जैसा हुआ है तो आपको दाज्यू और उनकी राजनीति के बारे में भी बताता चलूं. अधिकांश दाज्यू डेमोक्रेट के चोले में पाये जाते हैं और इतने बड़े कि अपनी पार्टी जीत जाए तो अगले दिन उन्हें विरोधियों में पाएंगे. दाज्यू पैलाग ! वह दाज्यू हैं, हर मुहल्ले में कम से कम एक हैं. उनके सामाजिक प्रभाव या कहिए पकड़ के चलते परदेशी पहाड़ से पांच हजार की लीड ले गया जो नीचे जाकर पचास हजार होनी ही थी. उनको फिर भी कोई घमंड नहीं है. उनसे अमर उजाला-जागरण वालों ने पूछा, ‘ये कैसे हो गया दाज्यू’ ? दाज्यू ने जबाब दिया, ‘ठंड की वजह से’ !
दाज्यू का प्रभाव ऐसा कि जीत की यह वजह पहाड़ के पन्ने पर छप भी गई. वैसे उन दिनों मैदान में गर्मी भी थी. जहां दाज्यू सक्रिय कार्यकर्ता की तरह दिन-रात एक करके अपने कंडीडेट को जिताते देखे गये हैं वहीं एक-आध बार खुन्दक से खुद भी चुनावी समर में कूदते पाये गये हैं. अधिकांश अवसरों पर उनकी मट्टी पलीद हुई है. क्योंकि इतिहास गवाह है ऊपर की लीड काफी नहीं होती, नीचे की लीड जरूर चाहिए. पर इससे दाज्यू का मनोबल कमज़ोर नहीं पड़ता. वह बैटिंग में भले फेल हो गये हों पर बालिंग, फील्डिंग के लिए तेंदुलकर जैसे उतावले दिखेंगे. वह मानते हैं कि लोग उनके धाकड़पने के कायल हैं. कई लोग उनकी राजनीतिक पारी के बारे में कहते हैं ‘कहीं से पैसे खाए होंगे’ और कई, उनकी सेक्स लाइफ पर स्टिंग आपरेशन में लग जाते हैं. दाज्यू पर दोनों ही हथियार बेअसर ही साबित होंगे, खासतौर पर जब दोनों मुद्दे ही गलत हों. पत्रकार अगर पूछे कि देश की राजनीति का भविष्य क्या है, तो उत्तर में दाज्यू कह सकते हैं, ‘भारत की राजनीति तो ई वी एम ही तय करेगा, उसका प्रयोग बंद करना जरूरी है.’
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आप सोच रहे होंगे आखिर दाज्यू का अपना भविष्य क्या है, क्या सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी वह भटकते रहेंगे? क्या उन्हें कभी कोई मंजिल टाइप नहीं मिलेगी ? सच तो ये है कि इस बात का जवाब मेरे पास भी नहीं है. मैं उनका इतना सम्मान करता हॅू कि उनके प्रति चिंता का कोई भाव मन में उपजता ही नहीं. दाज्यू अद्भुत हैं, चमत्कारी हैं, दूरदर्शी हैं. जब उनको कोई फिकर नहीं तो आपको-हमको पेट पीड़ करने की क्या जरूरत है. उनका जो भी होगा अच्छा ही होगा. दाज्यू भविष्य के महत्व को समझते हैं, बल्कि दूसरों के सन्दर्भ में अधिक. अपने रोमांटिक दौर में उन्होंने जिन सुंदरियों को बी.एच.एम.बी. बताया वह बड़ी होकर मिसवर्ड ही बनी हों, ऐसा तो नहीं है पर अपने समकालीन युवकों पर छोड़ी गयी उनकी छाप अमिट है. आप आज भी एक का नाम लेकर फेस बुक पोल करा लिजिए, इलाके में अगर प्रियंका चोपड़ा से अधिक वोट न पाए तो, मैं दाज्यू का भाई नहीं, सौ जूते मारना अलग. अलग बात यह भी है कि वह भविष्य को अपने इस्टाइल में परिभाषित करते रहे हैं. अब मर्दों का केस लेता हूँ. आपको शायद मालूम न हो, वह विचारक दाज्यू ही थे जिन्होंने, कहने को रकाद में, सार्वजनिक मर्दाना के अन्दर की दीवाल पर ‘आपका भविष्य आपके हाथ में है’ लिखवाया था.
पाठक मुझे क्षमा करेंगे, यदि आपके विचार में उनकी पद्धति में भदेस था. जिस देश में ढाई तीन घन्टे की पिक्चर ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के जरिये लोग महात्मा गांधी को समझने की कोशिश करते हों वहाँ यदि दो मिनट पब्लिक टॉयलेट के माध्यम से भविष्य को समझाने/समझने का मौका मिले तो क्यों छोड़ना. खैर, आप समझ गये होंगे कि भविष्य के प्रति दाज्यू का नजरिया कितना स्वाभाविक, लचीला और उपजाऊ रहा है. उनके विचार में भविष्य स्थितिजन्य है. उत्तरांचल की स्थायी राजधानी के मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने अंग्रेजी चैनल पर कहा था ‘वी कैन डू विदाउट कैपिटल बट नॉट विदाउट लिकर’. पाठको बाकी आप समझदार हैं.
हाँ, यहां आपको बताता चलूं कि हाल तक दाज्यू रोज़ सबेरे साढ़े सात मील दौड़ते थे. हाकी के फारवर्ड और फुटबाल के बैक थे, नाटकों के सूत्रधार और चुटकुलों के भण्डार थे. आज भी (बावजूद किताबें मारने वालों की मेहरबानी के) उनके संकलन में इब्ने सफी, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, एस एन कॅवल, कर्नल रंजीत, सुरेन्द्र मोहन पाठक का जासूसी साहित्य, बंगाली उपन्यासकारों के समग्र, देवकी नंदन खत्री की चंद्रकांता सीरीज, भारतेन्दु रचना समग्र, प्रेम बाजपेई, गुलशन नंदा, शिवानी से लेकर जिल्द लगी लौलिता, लेडी चैटरलीज लभर, मस्तराम और आजादलोक – अँगड़ाई तक का कथा संसार उनके द्वारा चाटे जाने के बाद छज्जे में धूल फाँक रहा है. उनके जीते गये कप, ढक्कन से बिछुड कर ऐश ट्रे बन गये हैं. यादगार हेतु कुछ फोटो-फ्रेम टंगे रह गये हैं जिनमें ट्रॉफी लेते हमारे दाज्यू, वो बीच में घुँघराले बालों वाले, अरशद वारसी जैसे दिखाई पड़ रहे हैं. शायद तुम ठीक कहते हो दाज्यू ‘फ्यूचर इज बाउण्ड टू अ लोकेशन’- देवभूमि में रहते हुए दिल्ली जैसे विलासितापूर्ण भविष्य की कल्पना करना बेमानी है. मैं देख रहा हूँ, तुम खाते-पीते हो, लिखते-पढ़ते हो, सुलगते-सुलगाते हो, हंसी-मजाक करते हो, होली खेलते हो, दीवाली मनाते हो, सम्मान देते हो-पाते हो ! लोग आजकल छोटे से परिवार में बड़े भाई का दायित्व नहीं सम्हाल पाते, आप तो सारे शहर के दाज्यू हो, और क्या चाहिए ! आप चिरंजीवी हों.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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