दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन – (२)
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन…
जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर – (२)
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन…
या गरमियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें – (२)
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन…
बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर – (२)
वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुनें
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन…
इस गीत को सुनते ही काम-धाम में लगे पुराने श्रोता एकबारगी थम से जाते हैं. कानों में शहद घोलती भूपेंद्र की मीठी सी महकती आवाज, लता जी की खूबसूरत जुगलबंदी, गुलजार के बोलों की मीठी छुअन, ये खूबसूरत कॉम्बिनेशन किसी को भी ऐसे मोहपाश में बाँध लेने के लिए काफी है, जिससे निकलना आसान नहीं होता. बड़ा नॉस्टैल्जिक सा गीत है.
फिल्म मौसम (1975) के इस गीत में संजीव कुमार दरख़्तों की ओट से खुद के अतीत को झाँकते हुए नजर आते हैं. वे उन-उन स्थानों पर पहुँचते हैं, जहाँ- जहाँ उन्होंने प्रीत के क्षण निभाए थे. गीत के आखिर में बुजुर्ग संजीव कुमार ठंडे सुर में गीत के मुखड़े को दोहराते हुए नजर आते हैं- दिल ढूँढता है, फिर वही फुर्सत के रात दिन…
गुलजार के लिखे गीतों में ये खास बात देखी जाती है कि वे कुदरत को किरदारों की तरह इस्तेमाल करते हैं. उनकी शायरी में प्रकृति बड़ी खूबसूरती से अपनी आमद दर्ज करती है. इस गीत को ही देखें तो किस तरह से मानवीय रिश्ते कुदरत से एकाकार से हो जाते हैं, एक मुकम्मल ऊँचाई तक पहुँचते हैं.
अल्फाजों को नेचुरल सी धुन का साथ मिले, तो गीत का प्रभाव स्वतः कई गुना बढ़ जाता है. मदन मोहन की इठलाती धुन खुद-ब-खुद किसी हिल स्टेशन तक पहुँचा देती है. अब गीत की ही बात लें, तो यह गीत अकेलेपन का साथी सा लगने लगता है. शायद महफिल में उतना मजा नहीं देगा. इसके पीछे खास बात यह है कि, गीत के बोलों में एक नजाकत है, नफासत है, उसमें ख्वाब हैं, तो ख्वाहिशें भी हैं, जज्बाती अल्फाज हैं, जिससे इसकी तासीर ऐसी बन गई कि यह खालिस महसूस करने लायक गीत हो जाता है, खासकर तन्हाई में.
गालिब साहब की एक बहुत पॉपुलर नज्म है- मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
जोश-ए-कदह से बज्म-ए-चिरागाँ किए हुए
इस नज्म में कुल सत्रह शेर हैं. इसी नज्म का एक शेर है- जी ढूँढता है फुर्सत के रात दिन
गुलजार ने गाने का मुखड़ा इसी शेर को बनाया. उसमें अंतरे इतनी खूबसूरती से पिरोए कि शेर भी उनके नाम से टैग होकर रह गया.
गुलजार साहब खुद को मिर्जा गालिब का मुलाजिम मानते हैं. वे यहाँ तक कहते हैं कि ग़ालिब की पेंशन ले रहा हूँ, जो खुद गालिब नहीं ले पाए.
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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