कोई राष्ट्रीय जलसा रहा हो या मेला. रामलीला रही हो या नाट्य मंडली, गुजरे दौर में यह गीत हर अवसर पर अनिवार्य रूप से बजता था. लंबे अरसे तक यह गीत, मात्र गीत न होकर एक किस्म का मिशन स्टेटमेंट बना रहा.
गुजरे दौर में, जिस किसी नौजवान ने भी खेती की होगी, उसने सिर पर गमछा बांधकर, कंधे पर हल तानकर इस गीत को जरूर गुनगुनाया होगा. खास तौर पर ”इस धरती पर जिसने जन्म लिया, उसने ही पाया प्यार तेरा’ जैसे बोल सुनकर तो जज्बाती युवकों के रोम-रोम खड़े हो जाते थे.
फिल्म ‘शहीद’ बनाकर मनोज कुमार अपार प्रसिद्धि पा चुके थे. उन्होंने फिल्म बनाई भी मन से थी. कहानी में तथ्यों को यथावत बनाए रखने के लिए उन्होंने ‘द हिंदू’ व जमे-जमाये अखबारों के दफ्तरों में जाकर महीनों-महीनों तक खाक छानी. ‘एचएसआरए’ की उस दौर की गतिविधियों की पूरी-की-पूरी खबरें पढ़ी. कहने का तात्पर्य है कि वे यथार्थ से किसी भी तरह का समझौता नहीं चाहते थे.
आजादी के बाद खाद्यान्न समस्या देश की एक बड़ी समस्या बनकर उभरी. हालांकि अमेरिका, मानवीय सहायता या खाद्य सहायता के नाम पर थर्ड वर्ल्ड मुल्कों को खाद्यान्न की मदद तो कर रहा था, लेकिन आत्मनिर्भरता की आस रखने वाले मुल्कों.के लिए यह मदद, एक किस्म से असमंजस भरी मदद थी.
पब्लिक लॉ 480 के अंतर्गत दी जाने वाली यह मदद हमारे मुल्क में पीएल 480 के नाम से जानी गई, कई लोग तो इसका मतलब गेहूँ की किस्म से लगाते रहे. पीएल 480 के कहन में एक तरह का आत्म व्यंग्य जैसा भाव रहता था. स्वाभिमानी देशवासी इससे नाखुश थे. खाद्य संकट इतना विकट था, कि तत्कालीन प्रधानमंत्री को देशवासियों से सप्ताह में एक बार उपवास रखने की अपील तक करनी पड़ी.
65 का युद्ध, खाद्य समस्या, अनियोजित परिवार और कालाबाजारी तब देश की ज्वलंत समस्याएं थीं. शास्त्री जी ने मनोज कुमार को सुझाव दिया कि कृषि प्रधान देश में आत्मनिर्भरता का संदेश जाना चाहिए. अन्न उपजाने वाले किसान को भी उसका स्थान मिलना चाहिए.
ग्रामीण भारत के बहाने तब की ज्वलंत समस्याएं कहानी में आई. मनोज जी के सामने अब यह संकट था कि वे नायक का नाम आराध्य देव के नाम पर राम रखें अथवा शंकर.
तभी उन्हें विचार आया कि भारत तो गांवों में बसता है और भारत नाम के किसान से खूबसूरत प्रतीक क्या हो सकता है. यही वह फिल्म थी जिसने उन्हें ‘भारत कुमार’ बनाया.
इस बीच हरित क्रांति और उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की मदद से खाद्यान्न उत्पादन कई गुना बढ़ा. देश आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ा. गीतकार गुलशन बावरा ने जब पहली बार अनाजों से लदे ट्रक के ट्रक, गोदामों की तरफ जाते हुए देखे, तो वे खुशी से भर उठे. उसी मनोदशा में उनके मन से बोल फूट पड़े.. मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती..
मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती
मेरे देश की धरती
बैलों के गले में जब घुंघरू जीवन का राग सुनाते हैं
गम कोस दूर हो जाता है खुशियों के कंवल मुस्काते हैं
सुन के रहट की आवाजें यूं लगे कहीं शहनाई बजे
आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे..
जब चलते हैं इस धरती पे हल ममता अँगड़ाइयाँ लेती है
क्यों ना पूजें इस माटी को जो जीवन का सुख देती है
इस धरती पे जिसने जन्म लिया उसने ही पाया प्यार तेरा यहां अपना पराया कोई नहीं
सब पे मां उपकार तेरा..
गीत का फिल्मांकन दर्शकों को ग्रामीण भारत के एक मोहक से दौर में ले जाता है. पानी भरती पनिहारिनें, गोफने से चिड़िया भगाती ग्रामीण युवती, सूप से अन्न ओसाते किसान अब सब अतीत की बातें होती जा रही हैं.
यांत्रिक प्रगति की दौड़ ने दौड़ते बैलों की घंटियों और और पानी उलीचते रहट की आवाजों को गुजरे अतीत की विषय वस्तु बना दिया. गीत में ऊंची गेहूं की बालियां मानो सर उठा कर पीएल 480 को जवाब देती हैं अथवा खुशहाली का गीत गाती हुई दिखाई पड़ती हैं. कुल मिलाकर आत्मनिर्भरता का संदेश दे जाती हैं.
महेंद्र कपूर ने लंबे आलाप लेकर इस गीत को इतनी खूबसूरती से गाया कि, यह देश भक्ति गीतों का ट्रेडमार्क बनकर रह गया. इस गीत के लिए उन्हें पहला नेशनल अवार्ड मिला.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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