कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र ने बताया, कि आज उन्होंने एक अजीब वाकया देखा; एक रिक्शे के नीचे कुत्ता था. उन्हें लगा, कि कुत्ता रिक्शे के नीचे फँसा है और घिसटता चला जा रहा है. इस आशंका के चलते, उन्होंने मोटरसाइकिल की स्पीड बढ़ा ली और रिक्शा चालक को अपना अंदेशा जताया. रिक्शा चालक ने बड़े इत्मीनान से कहा, “आप परेशान मत हो भाई साहब. यह कुत्ता मेरा ही है.”
यह सुनकर कुत्ते में मित्र की रुचि जाग्रत हो गई. उन्होंने रिक्शा वाले से डीटेल जाननी चाही, तो रिक्शे वाले ने बताया कि, वह जितने भी राउंड लगाता है, कुत्ता उसके रिक्शे के नीचे चलता रहता है. मालिक से जब उसके कुत्ते का नाम पूछा गया, तो उसने कहा कि, अभी तक इसका कोई नाम नहीं रखा है. कुरेदने पर उसने यह भी बताया कि, नाम रखने का विचार भी नहीं है.
इस जुगलबंदी के बारे में सोचकर, कई तरह के विचार कौंधने लगे. कुछ समय पहले एक चाय के ढाबे पर चाय पी रहे थे. तभी सड़क से आकर एक कुत्ता, भट्टी के सामने खड़ा हो गया. ढ़ाबे वाले ने उसे हुक्म देकर कहा, “घनश्याम! बैठ जा!”
इस तरह की कमांड सुनने का अभ्यास रहा होगा. कुत्ता फौरन बैठ गया.
कुत्तों के अंग्रेजी नाम तो सुने थे, हिंदी में जो भी नाम सुने थे, रौबदार से नाम सुने थे. ऐसा नाम तो कभी नहीं सुना. ढाबेवाले से पूछे बिना नहीं रह पाए, “क्या इसका नाम सचमुच घनश्याम है?” ढाबेवाला मुस्कुराते हुए बोला, “साहब! यह नाम हमने नहीं रखा. एक ठेलेवाला था- घनश्याम. यह उसी का कुत्ता है. घनश्याम के साथ इसका लंबा साथ रहा. शायद व्यापार में लंबा घाटा खा गया. एक रात काम-धाम छोड़कर, बिन बताये, यहाँ से चलता बना. अब ये बेचारा जीव कहाँ जाता. यही मंडराता रहा. शुरू में आसपास के दुकानदार टुकड़ा डालते रहे. घनश्याम का कुत्ता, घनश्याम का कुत्ता बोलते रहे. बाद में सोचा, इतना लंबा कौन बोले. सीधे घनश्याम ही बोलने लगे.” बहरहाल, यह साबित हो गया कि, कुत्ते का इतना सुंदर नाम, प्रयत्न लाघव से बना था. मुख-सुख के लिए, सीधे नाम पुकारने में सुभीता रहता होगा.
यूरोप में कई युद्ध छिड़े. लंबे अरसे तक नेपोलियन की ब्रिटिशर्स से घनघोर शत्रुता चलती रही. ब्रिटिशर्स को उससे घोर नफरत थी. जब तक वे उसका कुछ खास नहीं बिगाड़ पाए, तब तक इस नफरत को अंजाम देने के लिए, उन्होंने कुत्तों के नाम नेपोलियन रखने शुरू कर दिए. कई वर्षों बाद, तो एक खास किस्म की ‘नेपोलियन’ ब्रीड ही डिवेलप हो गई. इसी देखा-देखी में नेपोलियन नस्ल की बिल्ली तो खूब पॉपुलर हुई.
यह नफरत का सिलसिला यही तक नहीं थमा. हिंदुस्तान में टीपू से भी उन्होंने ऐसी ही नफरत जताई. ब्रिटिशर्स ने उसके प्रति अपनी घृणा व्यक्त करने के लिए, अपने कुत्तों के नाम टीपू रखने शुरू कर दिए. जिसके जवाब में हिंदुस्तानी रईसों ने अपने कुत्तों के नाम ‘वेलेजली’ रखे.
देश आजाद तो हो गया, लेकिन पालतू जानवरों के मार्फत नफरत को अंजाम देने का ये सिलसिला थमा नहीं. देश के कुछ इलाकों में रईसों ने अपने दुश्मनों के नाम के कुत्ते पालने शुरू कर दिए. ‘दुश्मन की जात का कुत्ता पालूँ,’ ‘तेरे नाम का कुत्ता पालूँ’ जैसे डायलॉग्स से हिंदी सिनेमा भी अछूता नहीं रहा.
रिक्शा चालक और कुत्ते की जुगलबंदी पर गौर करें, तो लगता है- क्या खूब अंडरस्टैंडिंग है, दोनों के बीच. सड़क पर उतार-चढ़ाव भी आते होंगे. मोड़ भी आते होंगे. कुत्ते को आगे भी देखना है. गति से तालमेल बिठाना है, तो पहिए की धुरी से भी. मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चलाने वाले बाइकर से कम एकाग्रता की दरकार नहीं पड़ती होगी. यह लंबे अभ्यास के बिना संभव नहीं. रिक्शा चालक भी उसे रोकता-टोकता नहीं. हाड़-तोड़ मेहनत में, संग-साथ मिल रहा है. अपने वफादार साथी का, क्या यही कम है.
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ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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