असल में लोकोक्ति है- “मंडुवा की रोटी भली, सिसुणा को साग.” बचपन में सुना ही सुना था. सिसुणा का साग बनता बहुत कम घरों में था. फिर भी, जहां बनता था, चखने को मिल जाता था. लेकिन, सच यह है कि जो सम्मान इसे मिलना चाहिए था, वह अब तक नहीं मिला है. सिसुणा का साग पौष्टिक तो है ही, औषधि भी है. बात वही है, सिसुणा गरीबों का ही भोजन माना जाता रहा.
पहाड़ से बाहर के लोग इसे ‘बिच्छू बूटी’ के रूप में जानते हैं और पहाड़ में ही कई जगह यह कंडाली कहलाता है. वनस्पति विज्ञानी अपनी भाषा में इसे ‘अर्टिका पर्विफ्लोरा’ कहते हें. पहाड़ में इसे बच्चा-बच्चा जानता है क्योंकि बचपन में इसी डंक मारने वाली बिच्छू बूटी की झपक से डरा कर बच्चों को शैतानी न करने की सीख दी जाती रही है. फेसबुक पर पिछले दिनों किसी मित्र ने इसका क्या खूब नया नामकरण किया है- ‘देवभूमि बाल सुधारक बूटी!’
आज उत्तराखंड के हमारे पहाड़ों में भले ही इसकी कोई कदर न हो, सिक्किम के पर्यटन विभाग की किसी भी पुस्तिका को देख लीजिए. उसमें लिखा मिलेगा- सिक्किम आएं तो यहां का प्रसिद्ध ‘नेटल सूप’ जरूर चखें. मैंने चखा. पता लगा वह तो सिसुणा का साग है!’
प्रकृति ने भी क्या जोड़ी मिलाई है- पहाड़ों में जहां मंडुवा होता है वहां सिसुणा भी खूब उगता है. लोग चिमटे से सिसुणा के नरम सिरे तोड़ कर, उन्हें धूप में फैला देते हैं. धूप में सूख कर वे मुरझा जाते हैं और उनका थोड़ा पानी भी सूख जाता है. फिर पानी में उबालने के बाद पीस कर साग तैयार कर लेते हैं. इसके तने और पत्तियों पर तीखे, नुकीले रोए या कांटे होते हैं जो शरीर से छू जाने पर सुई की तरह चुभ जाते हैं. उनमें फार्मिक एसिड होता है.
डंक मारने वाला यह अपनी तरह का अनोखा पौधा आखिर आया कहां से होगा? पता लगा, यह एशिया, यूरोप, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका का मूल निवासी पौधा है. यानी, हमारा सिसुणा हो सकता है यहीं पैदा हुआ हो.
गाय-भैंसें भी धूप दिखा कर मुरझाया हुआ सिसुणा चाव से खा लेती हैं. मनुष्य और गाय-भैंसों के अलावा कोई और भी है जिसे यह बेहद पसंद है. लप-लप करने वाले लार्वा यानी गीजू!
कहते हैं महान तिब्बती धर्मगुरु मिलारेपा ने वर्षों लंबी समाधि लगाई थी जिसमें उन्होंने केवल सिसुणा खाया. मगर हमें पता ही नहीं है कि यह कितना पौष्टिक है.
दूसरे देशों की ओर देखें तो मुंह में अंगुली दबा लेंगे. लोग वहां इसका न केवल सूप बना रहे हैं बल्कि इसकी नरम पत्तियों का सलाद खा रहे हैं, पुडिंग बना रहे हैं, पत्तियों के नाना प्रकार के व्यंजन बना रहे हैं, उन्हें सुखा कर ‘नेटल टी’ पी रहे हैं. वे इसका कार्डियल पेय और हल्की मदिरा यानी ‘नेटल बीयर’ बना रहे हैं. इतना ही नहीं, इससे कई तरह की दवाइयां बना रहे हैं और इसके रेशे से कपड़े तैयार कर रहे हैं.
यह ‘माल न्यूट्रिशन’ यानी कुपोषण, एनीमिया, और सूखा रोग से बचा सकता है क्योंकि इसमें कई जरूरी विटामिन और खनिज पाए जाते हैं. सिसुणा में विटामिन ए और सी तो पर्याप्त मात्रा में पाए ही जाते हैं, विटामिन ‘डी’ भी पाया जाता है जो पौधों में दुर्लभ है. इसके अलावा इसमें आयरन (लौह), पोटैशियम, मैग्नीशियम, कैल्सियम आदि खनिज भी पाए जाते हैं. अब बताइए, घर के आसपास बिना उगाए उगे सिसुणे में इतने पोषक तत्व और लोग तंदुरूस्ती की दवाइयां दुकानों में ढूंढते फिरते हैं. अरे, पालक की तरह उबालिए सिसुणा और सूप या साग बना कर खाते रहिए.
कहते हैं, इसकी चाय पेट के लिए बड़ी मुफीद है, पेचिस में भी आराम पहुंचाती है और गुर्दों के लिए भी फायदेमंद है. इसका रस पीने पर एक-एक चम्मच रस शरीर में से यूरिक एसिड को घटाता जाता है. इसे चर्म रोगों, जोड़ों के दर्द, गाउट और गठिया में लाभकारी पाया जाता है. सिसुणा के झपाके मार कर लकवा पड़े अंगों को भी सचेत किया गया है. कहते हैं, इससे दर्द और सूजन भी घटती है. इसकी जड़ प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने की शुरुआती अवस्था में लाभकारी पाई गई है. सिसुणा बार-बार छींक आने की समस्या में भी फायदा पहुंचाता है. यह जोड़ों के दर्द, खिंचाव, पेशियों की पीड़ा और कीड़ों के काटने की दवा के रूप में मलहम बनाने के भी काम आता है.
और हां, आपने हेंस एंडरसन की परी कथा ‘द वाइल्ड स्वांस’ पढ़ी होगी. उसमें राजकुमारी ने हंस बन गए अपने ग्यारह राजकुमार भाइयों के लिए सिसुणे के रेशों से ही तो कमीजें बुनी! यह कहानी 2 अक्टूबर 1838 को छपी थी. यानी, तब भी लोग सिसुणे के कपड़ों के बारे में जानते थे!
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखी है, जिसे आप कहो देबी, कथा कहो शीर्षक के अंतर्गत वैबसाइट में पढ़ सकते हैं.
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