अगर आप उत्तराखंड से हैं और आपने लाटा शब्द नही सुना तो आप सच में लाटे ही हैं. कितनी ही बार आप लाटा बनें होंगें और कितनी ही बार आपने लोगों को ‘लटाया’ होगा. लाटा का शाब्दिक अर्थ जो भी हो, मनोवैज्ञानिक अर्थ गहन और विस्तृत है.
आप अगर स्वभाव में बहुत सरल और ईमानदार हैं तो सामाजिक रूप से आप लाटे हैं. आपमें अगर अपना स्वार्थ साधने की सिद्धि नहीं है तो आप लाटे हैं, गला और जेब काट प्रतियोगिता के गुर सीखने की मानसिक क्षमता अगर आप में नही है तो सीधी सी भाषा मे आप ‘लाटे ‘ ठहरे.
संस्कृत व्याकरण दस अनिवार्य लकारों की बात कहता है और मानविकी व्याकरण जैसा कुछ होता तो वो एक अतिरिक्त ग्यारवें लकार की बात कहता, वो है लाटा-लकार. लाटों की देह भाषा ही उनकी विशिष्ट पहचान होती है. उनके मुख पर सम-विषम हालतों में भी एक लटंगि मुस्कान हमेशा बनी रहती है, जो उनके न्यून बौद्धत्व को दर्शाती है.
मगर जब कभी उनका बोध जाग्रत होता है तो उनका गुस्सा तीव्रतम होता है और उसे लाटा गुस्सा कह कर अभिविहित किया जाता है. लाटों को छल नहीं लगता, बल नही लगता. बस भूख बहुत लगती है. अक्सर गांव में पाया जाने वाली ये लाट-प्रजाति जात, वर्ग मजहब और लिंग भेद से परे होती है. माने सर्व शुद्ध लाटे दुर्लभ नहीं होमोसेपियन्स की ही एक शाखा है.
लाटा का स्त्रीवचन लाटी है. गुण, रूप समझ में वो लाटे का पर्यायवाची है. लड़की यदि स्वभाव में सरल है तो सुशील होने के साथ लाटी होने की उपमा भी मिल जाएगी. गाय जैसी सीधी कहने की बजाय लाटी है, कह देने से ही समय और ऊर्जा दोनों की बचत की जा सकती है. ये लाटी लड़कियां बाजार कम जाती है, अक्सर दो या तीन क्लास तक ही पढ़ी होती हैं, जंगल जाकर लोगों का घास काटती है, सबसे ऊंचे पेड़ों और भ्यालो में सीधे चढ़ जाती है. निम्बू सानती है, कई बार बिना बात जोरों से हँसती है और तब इनके ईजा, बोज्यु चुपचाप रोते हैं.
लाटों के विलोम के दो प्रकार है. पहला साटा और दूसरा चकड़ेत. साटा पहला प्रकार है जो लाटों को सीढ़ी बनाकर काम निकालता है. तर्कशक्ति, बुद्धि विवेकपरकता के कारण ये चकड़ेतों से उचित दूरी बना कर रहते हैं. चकड़ेत उच्चकोटी का प्रकार है जो लाटों और साटों दोंनों का उपभोग/प्रयोग कर पिरामिड में सर्वोच्च स्थान पर है.
चकड़ेतों को लाटा बनकर आटा खाना खूब आता है. ये सर्वव्यापी होते है जब ये दफ्तरों में होते है, कार्यभार पड़ते ही इनके चेहरे पर विशुद्ध लाटापन छा जाता है, जब ये खेतों में होते है, ये सीमा के ढुंगे खिसका देते है, पड़ोस में निर्माण कार्य शुरू होते ही ये भी अपनी दीवारों की मरमत्त शुरू करवा देते हैं और खास बात ये कि पड़ोसियों की रेत, ईंट, सरियों का योगदान ये बिना अनापत्ति प्रमाण पत्र के सहर्ष, चुपचाप लेते रहते हैं.
सुना है गाँव के सारे साटे बेटे परिवार सहित शहरों में सेट हो गए है. बूढे हो चुके माँ बाप इन्हीं लाटों के कंधों के भरोसे पर है. लाटे बेटे अभी तक खेतों में दन्दोला (हल) लगा रहे हैं. खेत थोड़ा बहुत इन्हीं के सहारे बंजर होने से बचा हुआ है. गाँव अब बस सुंगर, गूणी, बांदर, माखा ,और लाटा इन पंच प्यारों से ही आबाद है.
10 अक्टूबर मानसिक स्वास्थ्य दिवस के तौर में मनाया जा रहा है. लोगों में इस बात की जागरूकता लाने पर ज़ोर है कि वे भावनात्मक, संज्ञानात्मक रूप से स्वस्थ रहें. मगर दौर प्रतिस्पर्धा का है जो आपको रेस में प्रथम आने के लिए उकसाता भी है. जीवन सरलता से जिया जाए तो सहजता से बीत भी जाता है.
बहरहाल… मैं कहती हूं लाटेपन ने दुनिया को बहुत कुछ दिया है. सिद्धार्थ को चकड़ेतों की दुनियां पसंद नही आयी, वें अपने लाटेपन (सरलता) में निकल पड़े और लौटे तो बुद्ध हो गए. न्यूटन, आईंस्टीन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, चार्ल्स डार्विन, स्टीवन स्पिलबर्ग, वाल्टर डिज़्नी और संस्कृत व्याकरण के प्रकांड विद्वान वरदराज इन सबको कभी न कभी लाटा समझा गया.
पौराणिक कहानियाँ कहतीं है कि दुनिया वराह के सींगों पर टिकी हुई है. मुझे लगता है दुनिया इन्हीं लाटों के निश्छल व्यवहार, हँसी, प्रेम और बेढ़बपन पर टिकी है.
मूलतः पौढ़ी गढ़वाल की रहने वाली अनिता नेगी वर्तमान में इतिहास विषय की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
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7 Comments
Puran Singh Negi
बहुत सुंदर लेख
darshan Mehra
प्रभावशाली लेख,
मनीष अग्रवाल
बहुत ही सुन्दर।
P.S.Rawat
Ary Bhuli ut lato ku bih lotu kan ch 🌹🙏 bhlu 👍
P.S.Rawat
🙏 bhlu 👍
Prem Singh Rawat
🙏 bhlu 👍
विनोद सिंह पांगती
भौत भल लेख छन लौट पे.. 🤓👌👌