पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड में बादल फटने की घटना से हुए जान-माल का अत्यधिक नुकसान एक दुखद अनुभव रहा. बीते एक दशक में बादल फटने की घटनाएँ निरंतर बढती जा रही है. केदारनाथ, पिथौरागढ़ (लाझेकला), चमोली आदि की दुर्घटनाओं में हजारों लोग काल के गाल में समा गये परन्तु यह एक बहुत ही सोचनीय विषय है कि क्या बादल फटना एक प्राकृतिक आपदा है?
(Cloud Burst Landslide in Uttarakhand)
आम बोलचाल की भाषा में बादल फटने का मतलब है किसी स्थान पर कम समय में मूसलाधार वर्षा का होना है. मौसम विज्ञान की भाषा में 100 मिलीमीटर वर्षा प्रति घंटे में होना बादल फटना है.व्यवहारिक तौर पर देखें तो पानी से भरे एक गुब्बारे के फटने से चन्द सेकंड में पानी एक ही स्थान पर बिखर जाता है. उसी तरह वर्षाग्राही बादल एक क्षेत्र में अत्यधिक भारी वर्षा करते है परन्तु पानी से भरे गुब्बारे की तरह बादल फटने जैसी कोई घटना नहीं होती है.
इन घटनाओं का संबंध मूलतः मानसून की वर्षा से है. मानसून के दौरान भारी वर्षा की संभावनाएं चरम पर होती है. बांग्लादेश, उड़ीसा, हिमाचल, महाराष्ट्र एवं उत्तराखंड में ऐसी घटनाएँ सामान्यतः होती है लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों से इनका गहरा संबंध है. पहाड़ी क्षेत्रों की भौगोलिक संरचना इसके लिए उत्तरदायी है.
(Cloud Burst Landslide in Uttarakhand)
पहाड़ी क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होती है जब मानसून द्रोणी (axis of monsoon trough : AMT) की स्थिति हिमालय के फुटहिल्स पर होती है. यह द्रोणी विषुवत रेखीय निम्न-वायुदाब का ही विस्तार है. द्रोणी (AMT) की यह स्थिति विशाल कपासी-वर्षी (Cumulonimbus : CB) के जनन का कारक है. कपासी-वर्षी मेघ भयानक बिजली एवं गर्जन के साथ अत्यधिक वर्षा करते है. ये मेघ ऊपरी पवनों के प्रवाह में गति करते हुए विभिन्न स्थानों पर वर्षा एवं तूफान की स्थिति को जन्म देते है. पहाड़ो एवं घाटियो में इन बादलों की गति अवरुद्ध हो जाती है तथा ये बादल एक ही स्थान पर निष्क्रिय होकर एक छोटी इकाई के क्षेत्रफल में भयानक मूसलाधार वर्षा करते है. फलतः भू-स्खलन और बाढ़ की चपेट में आकर मानव अधिवास तहस-नहस हो जाते है|
पिछले कुछ वर्षों में बादल फटने की घटनायें निरंतर बढती जा रही है. इन घटनाओं में वृद्धि का कारक केवल प्राकृतिक आपदा को मानना अतार्किक है क्योंकि इन घटनाओं की वृद्धि में मानव जनितकारक भी शामिल हैं. यदि पहाड़ी क्षेत्रों के आंकड़ों पर सरसरी नजर डालें तो यह चौकाने वाली स्थिति होगी कि इन बादल फटने की घटनाओं में अपार वृद्धि नहीं हुयी. साथ ही मानसून जनित वर्षा में भी सुस्पष्ट विचलन नहीं हुआ है. हजारों वर्षों में भी यह लगभग उतना ही सामान्य रहा होगा जितना आज है. परन्तु भू-स्खलन और बाढ़ जनित आपदाओं में उल्लेखनीय वृद्धि अवश्य हुयी है. वस्तुतः बादल फटने की प्राकृतिक घटना एवं इससे जनित आपदा दो अलग-अलग पहलु हैं जिन्हें एक साथ जोड़कर देखना बड़ी भूल साबित हो सकती है.
किसी भी परितंत्र के चरम पर स्थित परिवेश की सुभेद्यता बहुत अधिक होती है. इस परितंत्र में एक पेड़ काटने की संवेदनशीलता एक मैदानी क्षेत्र में पेड़ काटने से अधिक होती है. अत्यधिक संवेदनशील एवं सुभेद्य पहाड़ी क्षेत्रों में वन-विनाश, खनन, विकास कार्य एवं संसाधनों का अंधाधुंध विदोहन मानव अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर सकता है. वनोन्मूलन से बहते हुए वर्षा जल (रन-ऑफ ) में अपार वृद्धि हो रही है अन्यथा वर्षा का बहता हुआ जल पेड़ों के माध्यम से भूमि में समा जाता है और भूजल पुनर्भरण करता है. यह वर्षा का बहता जल बाढ़ की स्तिथि को जन्म देता है. वनोन्मूलन से भूमि एवं मृदा ढीली हो जाती है. तथा वर्षा का जल ढीली मृदा एवं भूमि का अपरदन कर विशाल चट्टानों में वृहद संचलन एवं भूस्खलन की स्तिथि को जन्म देता है. परिणामस्वरूप बाढ़ एवं भूस्खलन पहाड़ी ढलान में अवस्तिथ मानव अधिवास, भूसंपदा एवं पशुधन के साथ खिल-खिलाते जीवन को भी मटियामेट कर देता है.
विकास कार्यों में प्रयुक्त जे.सी.बी. मशीन, कम्प्रेसर की कंपन्न तथा चट्टान तोड़ने के लिए विस्फोटक पदार्थों का प्रयोग मानव जनित आपदाओं का मुख्य कारक है. साथ ही इन मशीनों द्वारा चट्टानों के आधार की खुदाई करना एवं आधार पर मजबूत दीवारों का अभाव भी भू-स्खलन का कारक है.
यदि समय रहते इन समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो मानव अस्तित्व संकटग्रस्त हो सकता है. उपग्रह चित्र, गणितीय कंप्यूटर मॉडल (NWP) एवं डॉप्लर रडार द्वारा पूर्व चेतावनी तथा दक्ष आपदा प्रबंधन त्वरित उपचार साबित होगा. दीर्घकालिक उपचार के लिए संपोषणीय विकास ( Sustainable development) के साथ-साथ समाज द्वारा भी संपोषणीय जीवनशैली को अपनाना ही एकमात्र उपाय है.
(Cloud Burst Landslide in Uttarakhand)
यह लेख नाचनी के दीपक कुमार जोशी ने लिखा है
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