पिछली कड़ी यहां पढ़ें: छिपलाकोट अंतर्यात्रा : आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम
छिपलाकोट तक पहुँचने के तीन मुख्य पथ हैं. इनमें पहला जौलजीबी-मुनस्यारी मोटर सड़क पर मदकोट के पास शेराघाट से चेरती ग्वार होते हुए यहाँ पंहुचता है. दूसरा इसी मोटर मार्ग पर बरम से कनार गाँव भेमण की गुफा होते हुए जाता है. तीसरा पथ धारचूला से आगे तवाघाट व फिर चढ़ाई पर स्थित खेला गाँव-बरम कुंड से होते हुए आगे पहुँचता है. अन्य गावों से होते जो रास्ते हैं वह भी आखिर में इन्हीं तीन रास्तों पर आते हैं. इनमें से हर रास्ता अपने आस पास खूबसूरत दृश्यवलियों से आकर्षित करता है.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
यह जो रास्ते हैं सीधी सड़क से उपजाऊ घाटी होते ऊंचाइयों को बढ़ते, वह उन पर चलने की आदत न पड़ने तक बार बार इम्तेहान लेने से नहीं चूकते. बस कुछ ही जगहों तक चाय का खोखा और खाने-पीने के जुगाड़ मिलेंगे. ठहरने के होटल और विश्राम गृह भी बहुत दूर छूट जायेंगे. स्वाभाविक है कि चाय खाने व रात को सोने का प्रबंध तो खुद ही करना होगा. फिर रास्ते स्थायी नहीं वो तो मौसम के साथ, हर बारिश हर हिमपात के बाद बदलते रहते हैं.
सीमांत के गावों के रास्तों में खड़ंजे-पड़ंजे हैं, पगडंडियां हैं उससे आगे तो बस चट्टान की खड़ी दुर्गम चढ़ाई है जहां अपने कदम बढ़ाते खुद भी अपने पहाड़ी होने का अहसास बनाए रखना जैसा है. जैसे ही सीमांत की इस धरती पर कदम पड़ते हैं, प्रकृति इम्तहान लेने लगती है. घाटी में गर्मी से पसीना चुआता सूरज कब काले घने बादलों में छुप तड़ातड़ ओले बरसा दे और फिर कब मूसलाधार बारिश हो जाय इसका अंदाज लगाना बड़ा कठिन है. फिर कहीं सघन वन जिनसे सूरज का प्रकाश भी रुकता -ठहरता नीचे जमीन तक छितराते अपना ताप पेड़ों की पत्तियों, उसमें लटकी बेलों को बाँट चुका होता है. साथ ही अलग-अलग वनस्पति से भरे बुग्याल जिनमें जीवन दायिनी जड़ी-बूटियों का वास विद्यमान है. इन्हीं के बीच मखमली हरी गद्दीदार वनस्पति पर चलते इनसे जुड़ते हुए रौखड़ जैसे वह दर्रे जिनपर चलते भारत- तिब्बत व्यापार का समृद्ध लेन देन संभव होता रहा. इन सबसे बनी इस पूरे इलाके में अपने साहस और उपक्रम की जीती जागती तस्वीरों के वह चेहरे जो यहाँ निवास करने वाली रं जनजाति के अद्भुत जीवट की गाथा सुनाती है.
इन्हीं घाटियों से उच्च पर्वत शिखरों के बीच रं जनजाति के जीवन यापन, प्रवास और परंपरागत धंधों की अध्यवसाय भरी साहस वृति संयोजित हुई. उनके साथ संवाद करते हुए चलते रहने से ही यहाँ का मानव भूगोल समझ में आता है. उनकी सामाजिक सांस्कृतिक व व्यक्तिगत भूमिकाओं की समझ बनती है.
बचपन में दीनामणि जी एक काथ सुनाते थे जो कुटी गांव की थी और सीमांत के इस गांव तक पहुँच उन्हें अहसास हुआ कि उन्हें तो साक्षात भोलेनाथ मिल गये. दीनामणि जी मुझे बहुत अच्छे और मोहिले लगते थे और जब भी छुट्टी के दिन हमारे घर आते तो हम बच्चों के लिए कुछ न कुछ जरूर लाते. कभी लमचूस, बिलेती मिठाई, गट्टा, मिश्री, लमलकड़ी और जाड़ों के टाइम में गज़क और रेवड़ी. वो रेवड़ी गुड़ वाली होती और उनको पड़काने में कई बार दाँत भी हिल जाते. कागज की पुड़िया में ये माल मेरे हाथ में थमा दीनामणि जी अपने हाथ में कुटला उठाते और क्यारी की तरफ हम बच्चे भी चल देते. वो फिर अपने जरजर बड़े हाथ से कभी बीज बोते, कभी पौध लगाते, क्यारी की घास उचाड़ते. खूब फूल उगा देते. हरी सब्जी की तो उनकी बोई क्यारियों में बहार ही हो जाती. पालंग के बीज तो वो अपने घर से ही भिगाए हुए लाते. बस क्यारी तैयार कर काली भुरभूरी खाद डाल उसे समतल कर बीज छिड़क देते और गोड़ देते फिर दलीप से राख मंगवा उसके ऊपर डाल पुराने बोरे भी मंगवा उनसे ढक देते. फिर दलीप से कहते भी कि इस क्यारी में तीन चार दिन पानी मत डालना हाँ. ऐसे ही मेथी, लाई, मूला और हालंग -चमसूर की क्यारी तैयार होती. कभी-कभी तो इनको तैयार करने में दिनमान भर लग जाता. वो हाथ चलाते जाते और हमको जो उनकी पुछडी बने होते को,कोई न कोई काथ सुनने को मिल जाती.बीच बीच में वो गाने भी लगते:
“ओss, पालङ लिंगुड़ा उगल, चुवा को जस सुवाद याँ उस कां छ?
“ओs, गदुवै को साग खायो काकड़ी को रैत, सुपति को घरबार बिपति को मैत.. ओ हो हो ss.
एक बार उन्होंने पांच भाई पांडवों की माता कुंती की काथ सुनाई.इसमें उसी कुटी गांव का जिक्र है जहां की यात्रा अपने भोटिया दोस्तों के साथ दीनामणि जी ने भौत पहले कर ली थी. दीना मणि जी ने सुनाया कि जब कौरवोँ पांडवों की लड़ाई में पांडव जीत गये तो वो अपनी माँ कुंती और पत्नी द्रोपदी के साथ चले कैलास मानसरोवर की यात्रा पर.
मानसरोवर की यात्रा पूरी कर माता कुंती की इच्छा हुई कि अब वो सब बद्रीनाथ जी के दर्शन करें और फिर केदारनाथ भी जाएं. सो सबने तकला कोट से लिपुलेख दर्रे का रास्ता पकड़ा.कोई ऐसे-वैसे,खाली -मूली चलने वाला बाट नी हुआ ये भाऊ! कभी उप्पर धार तक जाओ तो फिर उतार. कहीं बरफ, कहीं घासपात. फिर उस इलाके के सुफेद बाघ, सुफेद भालू सब कुछ अणकस झेल वो सब कालापानी से नाबीडांग तक पहुँच गये तो माता कुंती बीमार पड़ गईं. अब उमर भी हो गई ठेरी उनकी. नाबीडांग में रहने वाले बूढ़ो -सयानों ने माता कुंती की लुस्त- पुस्त हालत देख कहा कि इस कमजोरी बीमारी को तो व्यास जी ही ठीक कर सकते हैं जिनका गुंजी गांव में आश्रम है. सो आप सबूँ लोग उनके पास जाओ.अब बड़े बेटे युधिष्ठिर ने अपने ताकतवर भाई भीम को ये जिम्मेदारी सौंपी कि वो नाबीडांग से गुंजी जाएं और महर्षि व्यास ऋषि को माता के सब हाल बता उनके लिए दवाई लाएं.
महाबली भीम चल पड़े गुंजी गाँव और फिर पहुँच गये व्यास ऋषि के आश्रम. तब सुबे हो रही थी. भीम ने देखा कि नदी के किनारे एक समतल जमीन को जिसे सेरा कहते हैं को एक आदमी जोतने में लगा था. भीम उस आदमी के पास गया और उससे पूछा कि भाई मैं बड़ी दूर से आया हूं,यहाँ व्यास ऋषि से मिलने,जरा बताओ वो कहाँ मिलेंगे? तब उस आदमी ने कहा कि वो ऊपर जो कुटिया दिख रई है, बस वोई उनका आश्रम है तुम वहाँ जा सुसताओ, थोड़ा आराम करो. थोड़ी देर में वो वहीँ मिल जायेंगे,तुम्हें तुम्हारे ऋषि. फिर वो मुस्का भी दिया. ऐसा सुन भीम आश्रम आ के भैट गये वहाँ बाहर औसारे में. कुछ देर में वही खेत की जुताई करने वाला आदमी वहाँ आया और अपने हाथ-पाँव धो भीम के पास आ बोला, हाँ बेटा बताओ क्या काम है? मैं ही हूं व्यास ऋषि.
भीम को बड़ा अचम्भा हुआ. गुस्सा भी आया कि वहीँ नीचे नहीं बता सकता था कि मैं ही हूं जिससे मिलने आए हो. इतने ज्ञानी-तपस्वी-मनस्वी व्यास ऋषि के बारे में सुना था जो जड़ी बूटीयों के जानकार वैद्य भी थे और कहाँ ये खेत जोतने वाला. मुझसे ठिठोली कर गया. ये व्यास ऋषि कैसे हो सकता है? भीम को बड़ी फड़फडेट हुई पर क्या करते. माँ बीमार थी, गरज अपनी थी, सो इसी आदमी को सारी बीमारी के लक्षण बताये और कहा कि अब आगे हमें बद्री केदार जाना है सो माता कुंती जल्दी ही ठीक हो जाती तो हम चल पड़ते. ऋषि ने सब सुन हरि इच्छा कहा और भीम को खाने के लिए ‘पलथी’ और ‘फाफर’ की रोटी भी दी.
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भीम को महर्षि व्यास पर पूरा यकीन तो नहीं हुआ पर वह उनकी जड़ी-बूटी घोट के तैयार की गई औषधि ले वापस जल्दी-जल्दी लौटे. माता कुंती को वह दवाइयाँ खिलाई गईं तो उनकी बिगड़ी तबियत ठीक होने लगी. बड़े भाई युधिष्ठिर ने भीम को समझाया कि महर्षि व्यास की प्रकृति बड़ी सरल है. वह कोई दिखावा नहीं करते. न ही पांडित्य झाड़ते हैं. इसलिए किसी व्यक्ति की सरलता देख उस पर भैम नहीं करना चहिये. तो भाऊ लोग, दवाई खा जब माता कुंती ठीक हुईं तो सारे परिवार की यात्रा फिर शुरू हो गई.
अब वो सब गुंजी से नावी होते हुए कुटी पहुंचे और यहीं ठहर गये. अब बुढ़ापा तो परेशान करता ही है ना. इतना चल जो गईं कुंती माता. सो अब उनके आराम और रहने के वास्ते यहीं कुटी बनाने, गांव में रुक ठौर बनाने की सोची गयी. तो वहीं पहाड़ी पे एक मकान बना कर सारा पांडव परिवार उसमें रहने लगा. माता कुंती की खूब सेवा की. उनके आराम उनकी सज की हर व्यवस्था कर डाली बेटों और ब्वारी ने. पर भाउ! विधाता का लेख कौन मिटा सकता है? ऐसा ही होने वाला होगा और हुआ कि यहीं इसी जगह पर माता कुंती ने अपने प्राण त्याग दिए. राम नाम सत्य हो गयी.
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‘बाब्बा हो! मुझे तो बड़ी डर लगती है. वो कैसे ले जाते हैं लाल कपडा ऊढ़ा के जल्दी जल्दी मुर्दे को, जैसे भाग जायेगा वो. वो कैलाखान वाली सड़क पे कित्ती बार दिख गए मुझे मुर्दे. झस्स हो जाती है वो अवाज सुन के. हम लोग तो खट्ट सर पे हाथ रख देते हैं बुबू. उसकी आवाज भी तो कित्ती देर तक आती है’. छोटी बैणी बोली थी. ‘अरे नहीं रे ! वो तो मिटटी हुई. प्राण तो घुल गए हवा में. उससे कैसा डरना’. दिनामणि जी ने हमको समझाया -बोत्याया .फिर बोले,’ आगे सुनो अभी ,कथा खतम कहाँ हुई’.
“तो बालगोपाल !जिस ठौर पर माता कुंती ने आखिरी सांस ली वहां पे अब बहुत बड़ी शिला है जिसे वहां के लोगबाग सच की देवी कहते हैं और कुंती आमा को याद करते हैं. ये तो पर्वत ही कुंती परवत कहलाता है. अब देखो आज भी वहां अगर किसी के बीच आपस में झगड़ा मारपीट हो और उसके निबटारे में कोई कुंती माता की सौं ले तो लोगों का बिसवास हुआ कि कुंती आमा की सौं लेने वाला कभी झूठ नहीं बोलता.”
“जहाँ पांडव रहते थे कुटी गांव की पहाड़ी के बीच उसे पांडव किला कहते रहे लोगबाग. यहाँ सैणियों के जाने की मनाही हुई और लोग जो गए भी तो ये तय हुआ कि इस पूरी जाग से कोई कुच्छ भी उठा के नहीं ला सकता. इस पर भी रोक -टोक लगी. कई बार तुम्हारे जैसे ही नानतिन वहां किले में खेलने गए और वहां के ढुंग उठा लाये. अरे!ऐसी बिपत पड़ी गों पे कि पूछो मत. बड़ी पूजा- पाती से कोप थमा. अब लोगबाग तो कहने वाले ठेरे कि वहां किले के बिखरे पाथरों के नीचे भोत सोने -चांदी, हीरे -मोती के जेवर हैं पर वो देखे किसने ?इस पूरे इलाके की लीला ही गज्जब हुई.”
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खेत क्यारी में, जब हम बच्चे दिनमणि जी की बातें, उनकी काथ सुन रहे होते तो बीच में एकाध चक्कर बप्पाजी का जरूर लगता. फूल-पत्ती उगाने का उनको भी खूब शौक था और बाजार से आये मिट्टी के गमलों में गेरू पोत न जाने वो, कहाँ- कहाँ से लाये फूलों की कटिंग उनमें खुद लगाते. रोज सुबे पूजा-पाती कर फौवारे से उनको पानी देते. हम बच्चे तो उन गमलों में हाथ भी नहीं लगा सकते थे. एक बार आपसी धींगामुश्ती में दो गमले टूट गए, बढ़िया फूल वाले जिनमें जिरेनियम लगे थे तो नितुवा ने सारी खाद -मिटटी -पौंध समेट पानी डाल सब ठीक -ठाक कर दिया था.गोबर की टल्ली लगा गमले भी चिपका दिए थे. मैं तो उसकी ये खुचुर -बुचुर देख हैरान हो गया था और मैंने सोच लिया था की पहाड़ चढ़ने में मेरा ये दगड़ूआ सही रहेगा.
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नितुवा को हमारे घर आये थोड़े ही दिन हुए थे. वह कॉलेज में काम कर रहे एक चपड़ासी का साला था जो इस उम्मीद में उसे गांव से यहाँ ले आया था कि साब यानी हमारे बाप्पा उसकी भी नौकरी लगा देंगे. पर उसे देख बप्पाजी बोले, “अभी तो ये अपने कुन्ना से ही एकाध साल बड़ा है. कुछ पढ़ा लिखा भी नहीं है. सो घर पर ही रख लेते हैं. जरा साफ सफाई सिखाओ.देखो कैसे कमीज की आस्तीन से नाक पोछ रहा है. अभी कॉलेज में डेली वेज पर काम करेगा”. तब से घर पर ही रहा नितुआ. उसका पूरा नाम नित्यानंद जोशी था. उसने हमको बताया था कि मैदानों वाले होटल में भान- कुन मांजने से अच्छा है कि कॉलेज में काम करो और साब लोगों के घर रहो. नितुआ ने मुझे ये भी बताया कि पांच -छह साल बाद वो फ़ौज की भर्ती में जायेगा और फिर बंदूक चलाएगा. जैसे दिनमणि जी के दोनों बेटे फ़ौज में हैं. तभी मैंने दिनमणि जी से कहा कि या तो मैं डिरेबर बनूँगा या फ़ौज में जाऊंगा. ये सुनते ही क्यारी गोड़ते उनके हाथ रुक गए. “हाँ बाबू ! पढ़ लिख अपनी गाड़ी चलाओगे जैसे रेंजर साब चलाते हैं. और रही बात फ़ौज की तो जब अपने बच्चे लाम पे होते हैं ना,तब छोप पाड़ देती है अपनी ही औलाद जीते जी. इत्ता कह सट्ट से उन्होंने अपनी आँखें पोछ ली थी”.
शाम को दिनेश दा से लाम पूछा तो उन्होंने कहा कि,”लाम का मतलब होता है युद्ध अर्थात लड़ाई,जैसी अभी हमारे देश पर चीन के हमले से हो रही है. दिनमणि जी के दोनों लड़के भी बॉर्डर पर हैं. कब क्या हो जाये ?चीन बदमाश निकला. हिंदी चीनी भाई भाई कहते रहा और चढ़ भी बैठा. नेहरू जी की नीति को चौपट कर गया. अब कैलास के रास्ते भी बंद. सब तिब्बत का व्यापार भी गया समझो. कितने मर रहे हैं जवान फ्रंट में.क्यों हमारे घर में ही भैरव चच्चा नहीं मारे गए फ्रंट में. वो तो अंग्रेजों की तरफ से लड़े थे. मित्र राष्ट्रों की फ़ौज में थे. जापानियों ने सब कुचल कर रख दिए. दो तीन महीने बाद तो खबर आई कि भैरब चच्चा नहीं रहे. तब हम गुलाम थे. भैरब चच्चा को भी इंग्लैंड की रानी ने वीरता से लड़ने का इनाम दिया था”.
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अब जब वो मर गए तो इनाम कैसे लिया ?मुझे संदेह हुआ.
ईनाम बड़ी भाभी ने लिया. दिल्ली में.
तो अब भाबी कहाँ हैं ?
भाभी और उनके दो लड़के हरनाम और सतनाम दिल्ली में हैं. करोल बाग में. उनकी बड़ी दुकान है व्यापार है.
तो वो हमारे साथ क्यों नहीं रहते?
“अरे. भैरब चच्चा जब पठानकोट थे तो वहीँ उन्होंने एक फौजी की बेटी से शादी कर ली थी. वो सरदारनी थी. शादी कर हमारे पुराने सिपाही धारा वाले मकान में उसे लाये भी थे. तब मेरे बाबू, तेरे बाबू और दोनों कक्काओं ने एक हो कर कह दिया कि ऐसे शादी कर तो तू भैरब हमारे लिए मर गया और घर से निकाल दिया. भैरब चच्चा भी गुरूर वाले थे कभी पलट के न आये. आमा उनको याद करती रही पर कोई भाई उनका दर्द नहीं समझा. बाद मैं नासिक जा उनके सराद उठाये.”
“चल दद्दा तू फ़ौज में जाना पर सरदारनी से शादी मत करना”. छोटी बैणि ने बहुत गंभीर हो कर कहा.
“ये जायेगा फ़ौज में. ये डेढ़ हड्डी. गोली की आवाज सुनते ही हगभरी जायेगा. हाँ ,नितुआ जा सकता है. कैसे दौड़ -दौड़ के पांच बजे छुट्टी होने पैर डिग्री कॉलेज से रांची घंटे सवा घंटे में पहुँच जाता है. फटाफट खूब सारा भात और छह सात रोटी भस्का लेता है. इसके हाड़ों में दम है”. दिनेशदा ने नितुआ साले की तारीफ कर दी.
“मैं भी दिखा दूंगा दम. वो लड़ियाकांटा की चोटी पर चढ़कर. और ये साला नितुआ”. कह मैंने सामने अपनी प्रशंसा से फूल रहे नितुआ की पीठ पर अपनी मुट्ठी कस एक गदेक लगाई और बप्पाजी के कमरे में घुस गया.
बीच बीच में बप्पाजी मेरा ध्यान कभी हारमोनियम ,कभी तबले और कभी अपनी डायरी के पन्नों की तरफ खींच देते थे जो वह अक्सर लिखते. उनकी हैंड राइटिंग बहुत ही अच्छी थी. साफ़ सीधे खड़े अक्षर चाहे वह हिंदी में लिखें या अंग्रेजी में.वो डायरी बड़ी संभाल कर रैक में रखी जाती जहां और ढेर किताबों की लाइन होती. तब में भी ताव में आ कर रोज डायरी लिखने की सोचता. पर थोड़ा लिख कर चिड़िया ,फूल ,पेड- पहाड़ बनाने लगता और पहाड़ में चढ़ने की कल्पना से ही मुझे अक्सर नींद भी आ जाती.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
जारी…
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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