भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम किसी व्यक्ति के बारे में जान सकते हैं, उसे समझ सकते हैं, उससे जुड़ पाते हैं. यूँ तो दुनिया में कई भाषाएं हैं उन सभी का अपना-2 महत्व है, किंतु एक भाषा वह होती है जिसे हम अपनी भाषा कहते हैं. अपनी भाषा वह होती है जिसे हमारे पूर्वज बोलते आए हैं. भाषा स्थानपरक होती है. हम दुनिया के किसी कोने में चले जाएं और वहॉं किसी भी अन्य भाषा को क्यों न अपना लें, परन्तु हमारी अपनी भाषा नहीं बदलती. न गॉंव बदलता है न भाषा और न ही रिश्ते. लेकिन जब हम गॉंव छोड़ देते हैं और फिर शनै: शनै: भाषा तो रिश्ते स्वत: ही छूट जाते हैं, क्योंकि इन सबको साथ लेकर चलना संभव ही नहीं. Changing Trends in Regional Dialects
सभी भाषाएं अपना काम करती हैं, किंतु जो तादात्म्य अपनी भाषा स्थापित कर पाती है, वह अन्य भाषा नहीं. हमारा दुर्भाग्य है कि देवनागरी लिपि और तमाम साहित्य उपलब्ध होने के बाद भी हमारी बोली, भाषा नहीं बन पाई. इसके बावजूद उत्तराखण्ड की बोलियॉं चाहे कुमाऊनी हो अथवा गढ़वाली, में, रिश्तों का भेद बेहतर समझने के लिए एवं अपने सगे-संबंधियों को संबोधित करने के लिए अनेकों शब्द मौजूद हैं. Changing Trends in Regional Dialects
अलग-अलग रिश्ते के लिए अलग-अलग शब्द इतने सुन्दर और स्पष्ट हैं कि अनजान व्यक्ति भी आपके रिश्ते का सटीक मतलब आसानी से समझ सकता है. माता-पिता के लिए ‘ईजा-बाबू’, चाचा-चाची के लिए ‘कका-काखी’, ताऊ-ताई के लिए ठुलबौज्यू-ठुलिईजा, बड़ी बहिन व जीजा के लिए ‘दीदी-भीना’, छोटी बहिन के लिए ‘बैंणी-जमांई’ आदि. इसके अतिरिक्त अन्य रिश्तों के लिए भी तमाम शब्द हमारी बोलियों में उपलब्ध हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी रिश्ते के लिए जब हम बोली के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं तो ज्यादा विस्तार में जाए बिना ही हम जान लेते हैं कि वास्तव में किस प्रकार का रिश्ता है . दूसरा इन शब्दों के उच्चारण करने मात्र से उस रिश्ते के प्रति आदर-सम्मान झलकता है. तीसरा उस रिश्ते को लेकर उस व्यक्ति के प्रति हमें अपनापन या लगाव महसूस होता है. चौथा रिश्तों की गरिमा बनाए रखने में आसानी होती है. Changing Trends in Regional Dialects
मुझे अच्छी तरह याद है 4-5 दशक पूर्व तक जब हम बच्चे होते थे तो गॉंव में रहने वाले वे सब लोग जो हमारी ईजा-बाबू से बड़ी उम्र के लोग ठुलबौज्यू व ठुलि ईजा कहलाते थे और इसी तरह ईजा-बाबू से छोटी उम्र के लोग कका-काखी करने बुलाए जाते थे. धीरे-2 इनकी जगह ताऊजी-ताईजी तथा चाचा-चाची ने ली तो थोड़ा दूर तो हम तब हो गए थे. लेकिन वर्तमान में छोटा हो या बड़ा सब अंकल और आंटी बन गए हैं. शब्द बदलने मात्र से रिश्तों में दूरी लगने लगती है. सम्मान और लगाव के स्तर में भी कमी का आभाष होता है.
रिश्तों के स्तर में हो रहे परिवर्तन क्या संकेत करते हैं? हम अपनी बोली को छोड़कर हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषा को प्राथमिकता दे रहे हैं. इन भाषाओं को महत्व देने की वजह से ही हमारी अपनी बोली का प्रयोग घटता जा रहा है. यही कारण है कि हमारे रिश्तों में वो अपनापन नहीं रहा, आत्मीयता का भी लोप होता जा रहा है. परिणामस्वरूप इन रिश्तों के प्रति हमारे व्यवहार में भी परिवर्तन हो रहा है. इस परिवर्तन को हमें किस रूप में लेना चाहिए, क्या हम इतने आधुनिक या विकसित हो गए हैं कि हमारी बोली के शब्द अब हमारे काम के नहीं रहे?
कुछ ऐसा जो हमें कभी निकटता का अहसास कराता था या सुखद अनुभूति कराता था, आधुनिकता या विकसित होने के नाम पर त्याज्य होना चाहिए ? जिस बोली एवं शब्दों को हम छोड़ते जा रहे हैं वे कभी हमारी संस्कृति की पहचान हुआ करते थे. परिवर्तन, आधुनिकता एवं विकास के नाम पर जाने-अनजाने हम अपनी संस्कृति को क्षति पहुँचा रहे हैं.
संस्कृति अपने आप में कुछ नहीं है, बल्कि जिस प्रकार कई अंगों को मिलाकर हमारे शरीर का निर्माण होता है, ठीक उसी तरह कई क्रियाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, बोली-भाषा, संगीत कला जैसी अनेकों चीजों को मिलाकर संस्कृति का निर्माण होता है. इसके अतिरिक्त किसी क्षेत्र विशेष की संस्कृति के निर्माण में वहॉं मौजूद प्रकृति का भी योगदान होता है. यही वजह है कि हमारे पहाड़, जंगल, जंगल की वनस्पतियॉं, नदी, झरने, पशु-पक्षी हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. Changing Trends in Regional Dialects
कतिपय कारणों से हम अपनी संस्कृति के एक अंग को भुलाते जा रहे हैं. देश-काल एवं परिस्थितियों के चलते कुछ मामलों में विवशता हो सकती है कि सभी लोग सभी चीजों को न संजो पाएं किन्तु उत्तराखण्ड में रह रहा जनमानस भी दीदी-भुला की संस्कृति को कमजोर ही कर रहा है. अन्य संस्कृतियों को अपनाने के लिए लालायित और अपनी संस्कृति को भुलाना उचित नहीं.
–गिरीश चन्द्र बृजवासी
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