प्रख्यात भूगर्भशास्त्री डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया ने अपने अध्ययन में यह आंकलन किया था कि पिथौरागढ़ जनपद में मैग्नेसाइट के विशाल भंडार विद्यमान हैं. तदन्तर प्रोफेसर नौटियाल, नाथ एवं बाकलू, दूबे एवं दीक्षित की शोध से यह प्रमाण पुष्ट हुए थे कि काली नदी के उत्तर पश्चिम से चमोली जिले की मन्दाकिनी घाटी के 150 कि.मी. क्षेत्र तक मैग्नेसाइट अयस्क विद्यमान है जो आधारभूत उद्योगों के लिए आवश्यक इनपुट या कच्चा माल है. पहले देश को सेलम तमिलनाडु से मैग्नेसाइट की आपूर्ति होती थी जो उद्योगों की बढ़ती जरुरत को देखते हुए अपर्याप्त पड़ रही थी.
(Chandak Magnesite Factory Pithoragarh)
अतः मैग्नेसाइट की बढ़ती मांग को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने 1971 में पिथौरागढ़ के चंडाक, बजेठी, छेड़ा, तड़ीगाँव, हलपाटी, दुंगा जैसे गांवों के 508 हेक्टेयर इलाके से मैग्नेसाइट निकालने की स्वीकृति दी. मैग्नेसाइट एवं मिनरल्स को बीस वर्ष का पट्टा मिला इसके शोधन का पहला संयंत्र 1977 में लगा जिसमें 192 करोड़ रूपये का पूंजी निवेश किया गया था. इसका दूसरा संयंत्र अक्टूबर 1980 और तीसरा संयंत्र मई 1983 में लगाया गया.
जनपद पिथौरागढ़ में कुल 1281 हेक्टेयर भूमि पर मैग्नेसाइट खनन हेतु भूमि पट्टे पर दी गई जिसमें मैग्नेसाइट एंड मिनरल्स चंडाक को 514 हेक्टेयर, हिमालयन मैग्नेसाइट तड़ीगाँव को 360 हेक्टेयर, भारत रिफैक्टरी देवलथल में 360 हेक्टेयर व एन वी मिनरल्स को 47 हेक्टेयर इलाके में खनन कार्य हेतु लीज स्वीकृत कर दी गई .
1980 के दशक के जियोलाजिकल सर्वे के अनुसार पिथौरागढ़ जनपद में लगभग 124 लाख मैट्रिक टन मैग्नेसाइट अयस्क के संभावित भंडार अनुमानित किए गए. बीसा बजेड़, छेड़ा, चंडाक, धारी गाँव, ढूँगा, देवलथल, डुंडु, गोल, हलपाटी, खोली, तल्ला सांगड़ी, तड़ीगाँव और थल से मैग्नेसाइट के अयस्क की प्राप्ति होनी संभव हुई. 1997 तक मैग्नेसाइट एंड मिनरल्स ने अपने तीन संयंत्र और हिमालयन मैग्नेसाइट ने एक शोधन संयंत्र स्थापित कर लिया था. पर 1996-97 तक इस उद्योग को लालफीताशाही, अकुशल प्रबंध, श्रमिक असंतोष व उद्योग के मामलों में बरती जा रही ढुलमुल नीतियों ने ऐसे विषम कुचक्र में फंसा कि पिथौरागढ़ की मैग्नेसाइट फैक्ट्री की तालाबंदी तब कर दी गई जब इसे विदेशों से भी आयात किया जा रहा था.
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घरेलू बाजार में पर्याप्त मांग विद्यमान थी. ध्यान देने योग्य बात यह थी कि इस उद्योग की समस्याओं के समाधान के बजाय बंदी के फरमान जारी हो गए. फिर खुलने के झांसे दिये गए और एक फलते फूलते उद्योग को जो पहाड़ की व्यवसाय गत संरचना को देखते खनन तकनीकी और प्रबंध गतिविधियों को विस्तार दे रहा था, अचानक ब्रेक लगा देने से जाम कर दिया गया. माल ढुलाई के साथ पूरा लॉजिस्टिक सिस्टम ठप पड़ गया. चंडाक को चढ़ती सड़क सूनी पड़ गई.
तालाबंदी के फरमान के बाद पिथौरागढ़ की मैग्नेसाइट फैक्ट्री के चुप होने से तीन सौ पचास कामगार तुरंत बेकार हो गए तो महाप्रबंधक के साथ आठ सह प्रबंधक, अभियंता व पच्चीस से ज्यादा अन्य तकनीकी स्टाफ महीनों-साल वेतन न मिलने से रहगुजर की तकलीफ झेलता रहा. कामगारों के प्रोविडेंट फण्ड की सत्तर लाख से अधिक की राशि भी विनिष्ट हुई. आस और अफवाह समानांतर चले कि सबकुछ ठीक-ठाक कर दिया जाएगा. पर ऎसा आज तक नहीं हुआ और फैक्ट्री का विशाल ढांचा सोर धाटी में कबाड़ी बाजार की सर्द हवाओं की सुगबुगाहट से जंग खाता रहा. स्क्रैप की बोली की प्रतीक्षा करता रहा.
भारत में डेड बर्न मैग्नेसाइट गिनी चुनी जगहों में ही प्राप्त था जिनमें हिमालयन मैग्नेसाइट, अल्मोड़ा मैग्नेसाइट, उड़ीसा इंडस्ट्रीज व सेलम तमिलनाडु मुख्य थे. सोच यह थी कि मैग्नेसाइट उद्योग को पुनर्जीवित कर न सिर्फ घरेलू मांग समुचित आपूर्ति प्राप्त करेगी बल्कि आयात के कम होने से विदेशी पूंजी की भी बचत होगी. जब अपने उत्कर्ष में पिथौरागढ़ में तीन धमन भट्टियां थी तो यदि उनमें से दो धमन भट्टियों को भी पहले सा चालू रखा जाता तो यह उद्योग लाभ में चलने लगता विस्तार की संभावना भी रहती और पैमाने की मितव्ययिताएं भी मिलती. मात्र एक धमन भट्टी के चलने पर तो बढ़ती लागत की दशा हो जाती पर लम्बे समय तक उत्पादन न हुआ, इसे खोलने की चिंताएं फिक्र बढ़ी कि अभी तक यह कंपनी यू.पी.एस.इ.वी., पंजाब नेशनल बैंक, पिकअप जैसी संस्थाओं से ऋण ले कर चलायी जा रही थी.
ऐसे में अगर ताला बंदी नहीं खुलती तो संस्थाओं की करोड़ों रुपये की पूंजी डूबेगी. साथ में मशीनों का अवक्षरण होगा, टूट-फूट बढ़ेगी. स्थिर के साथ परिवर्ती लागतों को वहन करना होगा. दुखांत कथा की सबसे बड़ी संवेदना तो यह कि पहाड़ में उद्योग के नाम पर चलाई जाने वाली एक मध्यम आकार की इकाई अपने उस योगदान को सहेज पाने में असफल साबित होने जा रही थी जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से हज़ारों कामगारों का पेट भरने में समर्थ थी. सक्षम बनाई जा सकती थी. पर ऎसा प्रयास हुआ नहीं और मैग्नेसाइट कंपनी की वार्षिक रपटों में लाखों के घाटे दिखाए जाते रहे.
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पिथौरागढ़ मैग्नेसाइट उद्योग का कड़वा सच यही रहा कि अपनी स्थापना से ही ये विवादों और अवरोधों के बीच घिसटती रही. कंपनी के पूर्व प्रबंधकों की लगातार शिकायत थी कि चंडाक मैग्नेसाइट फैक्ट्री को पर्यावरण के नाम पर बंद कराने की कोशिशें होती रहीं. इसकी आड़ में कई जाने-मानों ने अपने हित साधे. चंदे के नाम पर छात्र नेताओं व दबंगों के लिए भी यह दुधारू गाय थी. शासन की तरफ से भी कई भूल चूक हुईं. कभी चंडाक माइंस की लीज का नवीनीकरण नहीं हुआ तो कई बार वन अधिनियम एक्ट का रोना बिसूरना भी चलता रहा कि केवल नाप भूमि में खनन होगा, बेनाप में नहीं. कई मजदूर तो इसी असमंजस के चलते निकाले गए. फिर फैक्ट्री से निकले धुवे से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण के चलते पूरी कैपेसिटी से उत्पादन लेना कभी संभव ही नहीं बना. मलवे और धुवें से राहत के लिए कंपनी प्रभावित इलाकों में तीन सौ रुपये प्रति नाली का भुगतान करती थी.
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मैग्नेसाइट एंड मिनरल्स वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष एस. जी. एस. खनका ने बताया था कि प्रबंध तंत्र की अकुशलता और तानाशाही से फैक्ट्री ने कभी भी अपनी पूरी कैपेसिटी से उत्पादन नहीं किया. इस उद्योग में दो धमन भट्टियां धधकती रहती तो प्रति दिन उत्पादन कैपेसिटी 90 टन होती. दूसरी थी रोटरी किलिंग जो 100 टन तक माल रोज तैयार कर देती. पर दोनों धमन भट्टियां हर रोज 70 फीसदी तक का ही उत्पादन कर पायी. इसके बावजूद भी यह उद्योग हर महीने 35 लाख रुपये लाभ पर काम कर रहा था. अगर पूरी कैपेसिटी पर काम करने का माहौल बनाया जाता, प्रबंध तंत्र खरा होता तो अनुकूलतम लाभ 55 लाख प्रति माह से भी ज्यादा होता.
1996-97 में तो प्रबंध ने अवैधानिक रूप से सात माह के वेतन का भुगतान रोक तालाबंदी कर दी. तालाबंदी के जो कारण बताये गए वो जिलाधिकारी द्वारा चालान न दिया जाना, बिजली की कटौती और कुशल मजदूरों का अभाव कहे गए. मालिक और मजदूरों के बीच खटपट तो थी ही.
औद्योगिक विकास की जो नीति अपनाई जा रही थी उसमें सरकार की भूमिका महज़ एक दलाल या बिचौलिये की थी. असली कर्ताधर्ता तो वह था जिसके पास पूंजी बटोरने और कच्चे माल को काबू में करने का छलबल पैतृक रूप से नसों में बह रहा था. वह जितना ज्यादा सरकार को पटा सकता है उतने लाइसेंस उद्योग लगाने के हथिया सकता है. उत्पादन से ज्यादा उसके हित लाभ व्यवस्था के कमजोर ताने बाने में अपने साम्राज्य स्थापित करने की रहती. चाहे जंगल कटें या धरती खुदे जब तक मुनाफा ट्रिकल डाउन हो रहा तब तक मैदान में डटे रहना ही इंडस्ट्री का दस्तूर है.
औद्योगीकरण की इस नीति के चलते ही कई उद्योगपतियों को उद्योग लगाने का लाइसेंस मिला पहाड़ के नाम और उद्योग लगा मैदान में. कच्चे माल के शोधन में भी सारी सम्पदा रिस बह कर राजधानियों तक आती रही. मैग्नेसाइट के उद्योग का दौर भी वही समय था जब पर्वतीय इलाके में तथाकथित औद्योगिक संस्थान सिर्फ भीमताल, रुद्रपुर, काशीपुर, पातालदेवी अल्मोड़ा, देहरादून-विकासनगर और कोटद्वार में थे. फिर छठी योजना में बलभद्रपुर पौड़ी और भीमकोट श्रीनगर के शहर जुड़े. सातवीं योजना में पांच नये औद्योगिक आस्थानों के लिए मुनि की रेती, चमोली, खटीमा, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ को चुना गया.
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गौरतलब है कि उत्तरप्रदेश के आठों पहाड़ी जिलों को औद्योगीकरण के मामले में फिसड्डी या पिछड़ा घोषित कर दिया गया था तो उद्योगपतियों को रिझाने के लिए पचीस प्रतिशत केंद्रीय अनुदान और पचहतर प्रतिशत परिवहन अनुदान के साथ साथ अन्य कई प्रोत्साहन दिये जाने थे. जिससे लाला लोग यहाँ के संसाधन, कच्चे माल का भली भांति दोहन, शोषण अवशोषण कर सकें. मारवाड़ी कहावतें प्रचलित हो सकें. वृद्धि दरों के हैरोड डोमर मॉडल का ढांचा यथावत रहे. इनमें स्थानिक विषेशताओं व आंचलिक उत्पादन की कोई गुंजाइश न थी.
अब पहाड़ के लिए औद्योगिक विकास की जितनी भी पूर्ववर्ती नीतियाँ थी वह सरकार की ओर से दिये जाने वाले राजकोषीय चारे और भौतिक प्रेरणाओं का कायम चूर्ण था. यह ज्यादा से ज्यादा कच्चा माल भकोस कर डकार के साथ अपान वायु के निसृत होने की गारेंटी तो देता था पर उसमें उद्यमशीलता व नवप्रवर्तन की सोच से बेहतर और कारगर संसाधन उपयोग और उत्पादन की गुंजाईश न थी. अंततः उत्तर प्रदेश के पहाडी जिलों में प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित जो भी इकाइयां लगीं उनका संकेन्द्रण पहाड़ के बड़े शहरों और कस्बों की तरफ हुआ. 1970 के दशक में जो इलाके पिछड़े कहे गए थे अब वहां शहर तेजी से फैल रहे थे और कृषि भूमि सिमटती जा रही थी. धीरे धीरे टाउन प्लानिंग पर कोई ध्यान न देने से आवास, यातायात और अंतर्संरचनात्मक सुविधाओं की लचर दशा सामने आयी.
फिर ये भी हुआ कि शहरों में निर्मित उत्पादों ने ग्रामीण बाजार के एक बड़े भाग को घेर लिया. उपभोक्ता वस्तुओं के प्रयोग में प्रदर्शन प्रभाव काम करने लगा. फिर औद्योगिक नीति में एक उलटफेर यह किया गया कि इसे परंपरागत उद्योगों के संरक्षण पर आधारित करने की सोची गई न कि तेजी से बढ़ती हुई कुछ नई उद्योग इकाइयों के फैलाव पर. इन सबका घालमेल यह हुआ कि पहाड़ के संसाधनों व खनिज दोहन में पूंजी गहन, श्रम बचत व ऊर्जा गहन उपायों पर अधिक बल दिया गया. फिर यह अन्य बड़ी इकाइयों के लिए कच्चा माल था जो इसे अंतिम रूप से निर्मित माल का रूप देते और भारी मुनाफा कमाते. जड़ीबूटी, वन उत्पाद, खनिज उपखनिज सबकी कथा का सूत्र यही था.
अब उदारीकरण की नीति पर भी देश चलने लगा था. स्थानीय उत्पाद तेजी से सिमटने शुरू हुए थे. ऎसी वस्तुएं और कच्चा माल आसानी से बाजार में छाने लगा जो संरक्षण की नीतियों और भारी प्रशुल्क से महंगा पड़ रहा था. साथ ही आयात से आने पर प्रतिबन्ध भी थे.
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पिथौरागढ़ का मैग्नेसाइट उद्योग इस माहौल में ऎसा लुड़का कि इसके सेठ लालाओं ने ख़ामोशी से उद्योग छोड़ देना ही बेहतर समझा. वैसे भी उदारीकरण के दौर में विदेश से आयातित मैग्नेसाइट सस्ता पड़ने लगा था. इसकी गुणवत्ता बेहतर शोधन व प्रोसेसिंग के चलते अव्वल दर्जे की थी. ऐसे में पिथौरागढ़ से निर्यात होने वाले माल की मांग गिरने लगी. यहाँ से मुख्य विपणन केंद्रों व खनिज मंडियों की दूरी भी ज्यादा थी. यातायात ढुलान सब्सिडी तो थी पर मौसम की प्रतिकूल दशा, मुख्य सड़क के बंद होने व कभी तेल के संकटों से व्यवधान आते रहे. वहीं श्रमिकों में अकुशल व अर्ध कुशल ज्यादा थे. कारखाने व फैक्ट्री के लिए कोई माहौल पनप नहीं पाया बल्कि कार्य कुशलता के अभाव व अनुशासनहीन परिवेश में तनाव दबाव व कसाव होते रहे.
1991-92 के आरम्भिक दौर में ही फैक्ट्री बंद करनी पड़ी थी. रही सही कसर पर्यावरण सम्बन्धी हाईकोर्ट के निर्णय से निकल गई. जिससे एक खान ही बंद करनी पड़ी. वन अधिनियम के चलते दो साल तक चंडाक माइंस बंद रही. इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ा. लाभांश में कमी की ये प्रवृति देख महानगरों में प्रतिष्ठित कंपनी के मालिकों ने सूंघ लिया कि मुनाफा तो गिरता ही रहेगा और समस्याएं बढ़तीं रहेंगी.
कोई हैरानी की बात नहीं की पिथौरागढ़ में 1979 में उद्योग केंद्र में मात्र 50 उद्यमी पंजीकृत थे जो बीस साल बाद बढ़ कर मात्र 1334 की गिनती में पहुंचे. परंपरागत शिल्प और कुटीर उद्योगों पर वक़्त की मार के साथ नेपाल के रास्ते आ रहे सस्ते सिंथेटिक सामान की डंपिंग थी जो बाद में लोगों की आदत में शुमार हो स्मगलिंग को बढ़ावा देती रही. इनमें इलेक्ट्रॉनिक्स व प्रसाधन के साथ कपड़े लत्ते व रेडी मेड गारमेंट्स भी थे तो खुकरी जैसी सस्ती सिगरेट भी जिसने गोल्डन टोबैको की पनामा और हैदराबाद की चारमीनार का मार्किट पूरा खा दिया.
खेती पर्याप्त होती थी पर तेजी से फैलते शहर ने खेतों पर अनियंत्रित भवन उगा डाले. फिर हर पहाड़ की तरह खेती जीवन निर्वाह का साधन ही थी जिसके साथ पशुपालन और साग सब्जी उगाने के पीछे यहाँ की स्त्री शक्ति की प्रबल तपस्या थी तो आर्थिक सम्बल के लिए मनी आर्डर अर्थव्यवस्था. इससे ऊपर परिवार संचालित उद्योग, कुटीर उद्योग, लघु उद्योग सब यह ही साबित करने का सबब देते रहे कि पहाड़ में दुकानदारी ठेकेदारी सब अपूर्ण प्रतियोगिता की तरह का नाच दिखाती हैं और बड़े उद्योग स्थापित करने में नवप्रवर्तन का जो हुनर चाहिए वो पहाड़ में उपजा ही नहीं. मैग्नेसाइट की असफलता गाथा इसका एक सबूत है तो अस्कोट की गोल्ड माइन ताबूत की अगली कील.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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