जनवरी का महीना था ज़मीन से उठता कुहासा मेरे घर के आसपास विस्तीर्ण फैले हुए गन्ने के खेतों पर एक वितान सा बुनकर मेरे भीतर न जाने कहीं सहमे हुए बच्चे की तरह बुझा-बुझा सा बैठ जाया करता था. (Spr... Read more
जोशीमठ के पहाड़
इतने सीधे खड़े रहते हैंकि अब गिरे कि तबगिरते नहीं बर्फ़ गिरती है उन परअंधेरे मे ये बर्फ़ नहीं दिखतीपहाड़ अपने से ऊँचे लगते हैंडराते हैं अपने पास बुलाते हैं दिन में ऐसे दिखते हैंकोई सफ़ेद दाढ... Read more
दहलीज: निर्मल वर्मा की कहानी
पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे क़दमों से उसके पास चला आया है, वही बंगला था, अलग कोने में पत्तों से घिरा हुआ… वह धीरे-धीरे फाटक के भीतर घुसी है… मौन... Read more
सौत: मुंशी प्रेमचंद की कहानी
जब रजिया के दो-तीन बच्चे होकर मर गए और उम्र ढल चली, तो रामू का प्रेम उससे कुछ कम होने लगा और दूसरे ब्याह की धुन सवार हुई. आए दिन रजिया से बकझक होने लगी. रामू एक-न-एक बहाना खोजकर रजिया पर बिग... Read more
एक अधूरी प्रेमकथा : इला प्रसाद की कहानी
मन घूमता है बार-बार उन्हीं खंडहर हो गए मकानों में, रोता-तड़पता, शिकायतें करता, सूने-टूटे कोनों में ठहरता, पैबंद लगाने की कोशिशें करता… मैं टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ती हूँ लेकिन कोई ताजमहल नही... Read more
कुमाऊनी कहानी : जाग
पिरमूका दस्तनि स्वेर हाली. चारै दिन में पट्टै रै गयी. भ्यार भितेर जाण में घुनन में हाथ धरनयी. दास बिगाड़नि में के देर न लागनि. पोरू नानतिनन मांसाक बेड़ी र्वाट बणाई भा. पिरमूकाक मासाक बेडी र्... Read more
लोक कथा : सौतेली माँ
एक दिन एक ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को अपने बिना खाना खाने से मना किया ताकि कहीं ऐसा न हो कि वह बकरी बन जाये. इसके जवाब में उसकी पत्नी ने भी उससे यही कहा कि वह भी उसके बिना खाना नहीं खायेगा ताक... Read more
पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कहानी जल्लाद
प्रातः आठ साढ़े आठ बजे का समय था. रात को किसी पारसी कम्पनी का कोई रद्दी तमाशा अपने पैसे वसूल करने के लिए दो बजे तक झख मार-मार कर देखते रहने के कारण सुबह नींद कुछ विलम्ब से टूटी. इसी से उस दि... Read more
ज्ञानरंजन की कहानी ‘अनुभव’
1970 की गर्मियों का प्रारंभ था. गंगा के मैदान में गर्मियों के बारे में सभी जानते हैं. यहाँ पर मौसम का विशेष कुछ तात्पर्य नहीं है सिवाय इसके कि एक लंबे अंतराल के बाद मैं अपने शहर में लौट आया... Read more
जो परदेश रहता है उसी की इज़्ज़त होती है
पहाड़ से मैदान की ओर जाने पर लगता है जैसे सीढ़ी से उतरते हुए चौक में आ रहे हों. कोटद्वार रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों में पटर-पटर उतरते हुए मन में अक्सर यही बात आती है. करीब बीस साल पहले की बात... Read more