भला कौन जानता था कि सरोवर नगरी नैनीताल की मालरोड पर एक दिन चिनारों की संगत में बुरांश के दो सुर्ख फूल खिल जाएंगे! लेकिन, वे खिले और एक शाम बाबा एच. एस. राना ने यह अजूबा देखा. फिर उनके मोबाइल के कैमरे की आंख ने भी देखा और बाबा ने वह सुंदर छवि कैमरे में कैद कर ली. छवि बाबा की वाल पर सोशल मीडिया में क्या खिली कि बात चारों ओर फैल गई- मालरोड में फूल खिला है! फूल खिला है!
(Burans in Nainital Mal Road)
प्राचीन ग्रीक भाषा में जिस गुलाब जैसे सुंदर फूलों वाले पेड़ का नाम कभी रोडोडेंड्रोन रख दिया गया था, उस पर खिले वे दो फूल. स्वीडन के प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी कार्ल लिनेयस ने सन् 1753 में अपनी किताब ‘स्पीसीज प्लांटेरम’ में इस बिरादरी के पेड़ों के वंश का नामकरण ‘रोडोडेंड्रोन’ कर दिया था और झाड़ी जैसे इसी के बिरादर अज़ेलिया को इनसे अलग रखा. रोडोडेंड्रोन वंश में उसने तब तक ज्ञात पांच स्पीसीज यानी प्रजातियों का उल्लेख किया. वंश और प्रजाति के आधार पर उस पौधों के पुरोहित ने पेड़-पौधों और प्राणियों के नामकरण की ‘द्विनाम पद्धति’ ईजाद की जिसकी मदद से आज विश्व भर के पेड़-पौधों और प्राणियों का नामकरण किया जाता है.
यह तो ठीक, लेकिन माल रोड में जो बुरांश खिला है, वह कौन है? वह है रोडोडेंड्रोन आर्बोरेयम. हमारे इस लाल फूलों वाले बुरांश का यह नामकरण प्रसिद्ध अंग्रेज वनस्पति विज्ञानी सर जेम्स एडवर्ड स्मिथ ने सन् 1805 में किया था. हमारे लिए गर्व की बात यह है कि प्रकृति ने सुर्ख फूलों वाले बुरांश की इस प्रजाति को हमारे हिमालय क्षेत्र में ही जन्म दिया. इसके साथ ही बुरांश की कई अन्य खूबसूरत प्रजातियों की उत्पत्ति भी यहीं हुई. बुरांश की इन तमाम प्रजातियों का जन्म स्थान हिमालय क्षेत्र के साथ ही तिब्बत, नेपाल, चीन और म्यांमार माना जाता है. हमारे यहां उत्तराखंड में यह लाल बुरांश, बुरोंश और बुरोंज कहलाता है तो नेपाल का लाली गुरांश भी यही है.
लाली गुरांश नेपाल का राष्ट्रीय पुष्प है. रोडोडेंड्रोन आर्बोरेयम हमारे उत्तराखंड का राज्य वृक्ष है तो रोडोडेंड्रोन निवेयम प्रजाति सिक्किम का राज्य वृक्ष है. रोडोडेंड्रोन पोंटिकम प्रजाति जम्मू कश्मीर का और रोडोडेंड्रोन कम्पैनुलेटम का गुलाबी फूल हिमाचल प्रदेश का राज्य पुष्प है. एक बात और, रोडोडेंड्रोन ही नगालैंड का भी राज्य पुष्प है.
हमारे पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के नामकरण का ज्यादातर श्रेय अंग्रेज वैज्ञानिकों को जाता है. कारण यह है कि उन्होंने इनकी खोज के लिए दुर्गम स्थानों की कठिन यात्राएं कीं. नमूने जमा किए और मुकम्मल पहचान के लिए उन्हें लंदन के वनस्पति तथा जीव-जंतु संग्रहालयों तक में भेजा. उन वैज्ञानिकों के काम के सम्मान में नमूनों के नामकरण भी किए गए. अन्यथा, हमारा बुरांश तो सदियों से हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों में उगता रहा है. सच तो यह है देश आजाद होने के बाद आज भी हमारा ध्यान खोज और अन्वेषण के बजाय देशवासियों की जाति और वर्ण पर कहीं अधिक रहता है. हमें अपने बच्चों में जाति नहीं बल्कि खोजी प्रवृति के संस्कार डालने चाहिए. प्रकृति में अब भी हजारों प्रजातियां अपरिचित और अनजानी हैं. क्या पता, कल हमारे बच्चे उन्हें खोज लें.
(Burans in Nainital Mal Road)
खैर हम तो अपने लाल बुरांश की बात कर रहे थे जो पहाड़ों में वसंत का अग्रदूत है. वह खिलता है और वसंत का आगाज़ हो जाता है. नैनीताल को बसाने वाला पीटर बैरन भी पहली बार तो शायद नवंबर की सर्दी में वहां पहुंचा था, लेकिन लोभी मन से ताल और वहां की जमीन हड़पने के लिए वहां बार-बार जाते और रहते उसे वसंत ऋतु में वहां घने बांज, बुरांश, काफल और अंयार के घने जंगलों में बुरांश के खिले फूलों का वह स्वर्गिक सौंदर्य जरूर दिखा होगा. शायद सन् 1848 तक नैनी झील के चारों ओर सड़क बन जाने के बाद भी उसके आसपास बुरांशों की बहार दिखी होगी. लेकिन, जब सीमेंट-कंक्रीट के मकान खड़े होते गए और डामर बिछी मालरोड भी पक्की बन गई तो वह बहार धीरे-धीरे गायब हो गई होगी. लोग सैलानियों का फैशन अधिक देखने लगे होंगे. बहरहाल, तब माल रोड पर तो कम से कम बुरांश नहीं ही खिलते होंगे.
इसलिए अब माल रोड पर कई दशकों बाद बुरांश का खिलना खबर बनना ही था और बन गया. गंभीरता से सोचिए तो यह वर्तमान समय की सचमुच बहुत बड़ी खबर है और बुरांश के उन दो सुर्ख फूलों को देखना नया प्रकृति-दर्शन है. आखिर पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों में लोग पहली बार मालरोड में खिले बुरांश के फूल देख रहे हैं न?
(Burans in Nainital Mal Road)
इतना खूबसूरत है बुरांश का सुर्ख फूल कि वह लोकगीतों में भी खिल उठा. कुमाउंनी लोकगीत में वह प्रेमी के लिए उसकी प्रेमिका ‘हिरू’ है तो मां के लिए उसकी दूर ब्याही बेटी ‘हिरू’:
पार भिड़ा बुरूंशी फुली रैछ
मैं झै कौनूं मेरि हिरू यै रैछ!
(उस पार पहाड़ की ढलान पर बुरूंश खिला है. मुझे लग रहा है जैसे मेरी हिरू आई हुई है.)
साहित्य में भी बुरूंश खिलता रहा है. प्रसिद्ध अमेरिकी कवि आर. डब्लू इमर्सन ने बुरोंश पर सन् 1834 में ‘द रोडोरा, ऑन बीइंग आस्क्ड, ह्वैंस इज द फ्लावर’ कविता लिखी. जाने-माने आयरिश कथाकार जेम्स जॉयस ने अपने उपन्यास ‘यूलिसिस’ में लियोपोल्ड और मौली को बुरांश वन में ही दिखाया है जहां वह मौली के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है.
और रैबेका? मैंने सन् 1968 में हैदराबाद के प्रसिद्ध सालारजंग म्यूजियम में इतावली शिल्पी जियोवानी मारिया बैंज़ोनी के अप्रतिम शिल्प में जीवंत हुई संगमरमर की आदमकद ‘रैबेका’ देखी थी. संगमरमर में तराशी गई रैबेका अपने दाहिने हाथ से चेहरे पर से घूंघट उठा रही थी. संगमरमर में ही लगता था हम पारदर्शी घूंघट के भीतर रैबेका का सुंदर चेहरा देख रहे हैं. अंग्रेज लेखिका डेफ्नी डु मौरियर ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘रैबेका’ में बुरांश की जड़ों को जहरीली मान कर रैबेका को नकारात्मक चरित्र के रूप में दिखाया है. जबकि उसी उपन्यास में बुरांश के ही बिरादर अजे़लिया पुष्प को मिसेज डे के रूप में सकारात्मक चरित्र दिखाया है.
(Burans in Nainital Mal Road)
बहरहाल, मालरोड में बुरांश खिलने की खबर सुन कर और बाबा की खीचीं दोनों फूलों की छवि देख कर अपने प्रिय कवि हरीश चंद्र पांडे के मुख से उनकी यह कविता ‘एक बुरूंश कहीं खिलता है’ सुनने का मन हो आया है:
एक बुरूंश कहीं खिलता है
खबर पूरे जंगल में
आग की तरह फैल जाती है
आ गया है बुरूंश
पेड़ों में अलख जगा रहा है
कोटरों में बीज बो रहा है, पराक्रम के
बुरूंश आ गया है
जंगल में एक नया मौसम आ रहा है
-हरीश चन्द्र पांडे
आओ प्रिय कवि, डामर के कड़े अभेद्य सीने के पास, चिनारों की संगत में खिले इस बुरांश को प्यार करते हुए हमें सुना दो अपनी यह प्यारी कविता.
(Burans in Nainital Mal Road)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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