प्रो. मृगेश पाण्डे

लोहाघाट का मडुवा और थल-मुवानी का लाल चावल : सब मिलने वाला हुआ भगत जी की चक्की में

नैनीताल रोड में एम. बी. कॉलेज के दाएं दुर्गा सिटी सेंटर से आगे जगदम्बा मंदिर में आप अक्सर हाथ जोड़ते होंगे. अब आगे बढ़ फिर सीधे हाथ जाते रहिए. एक तरफ नहर कवरिंग तो बाएं हाथ छोटी मंझली कई कई दुकानें. ए. टी. एम. बाईं तरफ आस पास के खेतों से तोड़ा ताज़ा हरा साग. मूली,लाई, बीन कर ढेर बनाई मेथी, अदरक, मिर्ची धनिया भी आपको कुछ लेना है और झोला लटकाएं हैं तो खरीद लें. पॉलीथीन की पकड़ सबसे पहले इन्हीं से होती है. स्कूल जाने वाले छोटे पोथे-पोथियों बच्चों की दुकानदारी के हुनर की शुरुवात भी यहीं से शुरू होती है. और थोड़े टैम बाद ये बनी-ठनियों का सारा मेकअप बहा देने का हुनर जान जाते हैं. अब टमाटर तीस का चालीस हुआ तो हाहाकार. लिपस्टिक हज़ार की भी कम की ही लगने वाली हुई. (Bhagat Chakki Wale Haldwani Mrigesh Pande)

अपने बाएं सावधानी से दुकानों पे नज़र फेरते रहिए. चलते रहिए. भाबर में रहते पैरों को आप भी कष्ट नहीं देते होंगे. इसलिए बाईं तरफ रहते हुए ही स्लो मोशन में पीं पां करते रहिए. बस -बस अब रुक जाइए. यहीं पे. बाहर ये छोटे पुटके, थैली, कट्टे देख रहें है. सब में पिसा हुआ माल है. हर एक पर छोटे डंडे पे रूई लपेट और उसे धागे से बांध नीली सियाही से कई नाम या कोड नामधारियों के साथ कुछ संख्याएं भी सधे हाथों से लिखते हुए कुछ घूम घाम गई हैं. (Bhagat Chakki Wale Haldwani Mrigesh Pande )

भीतर तराजू पे घर का बना सफ़ेद  स्टाइलिश थैला धरा  है.  उसमें ताजे आटे की भाप और खुशबू आ रही है. उसमें अंगूठे की मदद से पहली दो उंगलियां कुछ टटोल रहीं हैं. ‘भगत जू नमस्कार’. मेंने तीन बार तो कह ही दिया है. पर पता नहीं किस धुन में रमें हैं हमारे प्रभु. अचानक ही बाएं हाथ में बीनी गैंदे के फूल की पंखुड़ियां दिखा उन्हें एक किनारे पंसा अब वह मुझे देख रहे हैं. जोरदार नमस्कार का जवाब मिलता है. ‘ओहो  गुरु जी. जै हो जैहो. बड़े दिन महीनों बाद दर्शन हुए. कितनी पूरनमासी बीत गयीं. हो भी वैसे ही पेले जइसे.’ 

मुझे अब कुछ कहने की जरूरत ही नहीं. भगतजी पुराने जमाने वाली पंजाब मेल हैं. चली तो बस चली. जहां माल उतारने लगी तो फिर झेलू स्टॉप. देखो बाब सेब. ये तराजू के उप्पर लछमी जी की मूरत पे जो माला फूल पंखुड़ी चढ़े, उई सब छटक यां आ गए. जंगपाँगीजू कहते फिर क्या जो डाल दिया पिस्यू में. 

इन्हीं को बीनने में भोत टैम बरबाद हो गया हो. और आप आजकल भौत दिन बाद आए? घर नैनिताल चले गए थे किया? डोली तो खूब ठेरे आप भी.  अब मीं तो बस दस कदम वहां पांच कदम यहाँ हुवां. आजकल बाजार का राजधानी भोग तो नहीं खाने लगे कहीं. (Bhagat Chakki Wale Haldwani Mrigesh Pande )

अब तो कितने ही भोग वाले खुल गए. बेलवाल ने तो करोड़ों वाली फैक्ट्री ही डाल दी सुना. तोलिया तो पैले से जमे हैं. कोटाबाग में भी एक जवान चक्की छोड़, घट का पीस बेच रहा बल. सब खूब मशिना खाते हैं. फिर -फिर हग भरिते है. ऐसा ना हो तो सारे डॉक्टर बिरोजगार.

अब आप तो इतना लिख-पढ़ कलम नचाते, कैसे ये मंडुवे झुंगरे के फेर में पड़ गए? आपके लिए लुआघाट चंपावत का लाल-काला मडुवा खूब सुखा-सुखु पीस के धर रखा है मैंने. मालूम ही हुआ. आओगे हि. वो जड़ी भी लुका के रखी थी. दस किलो में छटांक भर मिला दी है. उसके ढेपू अलग से लुंगा हां. अब झांकरिया मडुवा भी मंगा रखा मिने. अलग से रख दूंगा. बस अगल महिने पेल हफ्त आ जाएगा. नंगचुण्या भी खिलाता आपको, जिश्की बाल नखुन से टूट जाने वाली हुई. ऐसे ही पुटक्या भी. बील्कुल पूटके जैसिहो जाती मुट्ठी में बंद कर. पहाड़ में भोत वराइटी हुई ना मस्साब. सब हैस्कूल तक देख लिया मीने. अं… बाबू तो गुलामी में अंग्रेज के अर्दली रहे. आज़ादी आने से पिंसन खाने लगे. येई दमुआढुंगा भैट गए. ये ई खाम की जमिंन हुए ऊप्पर रानीबाग तक. पहाड़ के इनारे किनारे वाली. दम है तो हथिया लो. बाबू भी अंग्रेजों  के अर्दली. घेर ली तो घेर दी. ताऊ चचा ममा सब यहीं चेप दिये गज-गज के फासले पे हुए सब अपने बिरादर. 

ये इन्टर यहीं एम. बी. इन्टर से किया था. फिर आपके वाले डिग्री में भी गया. अंगरेजी भी ली. बाप रे. पूरे घण्टे पता नहीं जो बोले होंगे वो पंतज्यू प्रोफेसर साब. फिर असली रेड़ा तो आपके वाले इकोनॉमिक्स ने कर दिया. कहीं टेड़ी मांग कहीं सीधी मांग कहीं क्रॉस हो जाये सुसरी. अब छमाही ही में फैल कर गई. उसके बाद कोई इम्तिहान दिया ही नहीं गुरूजी. बाबू ने कहा अब मरूं तब मरूं. लगन पड़ा नहीं. आठवाँ मंगल हुआ फिर राहूशुक्र दगाड़ दगड़. उप्पर से मैंने भी गंगनाथ कि सौं ली थी कि चपरासी अरडली तो बनूंगा भी नहीं. रोजगार करूँगा अपना. लाला वाला कौन एम.ए., बी.ए हुऐ हमारे ज़माने में. सो बाबू ने चक्की खुलवा दी. खुद भी खाली हुए शाम पांच तक. उसके बाद तो सीधे कमलुआगांजा दौड़ लगती थी उनकी सरदारों के यहां. चक्की पे राम किशन सब किया बस मैंने. बस पिस्ते रहो पीसते रहो. पूजा हूजा सब यही है मेरी. मंदिर भी कां जाता हुँ. बस  हाथ जोड़ देता हूँ. वो जगदम्बा मंदिर पे कोढ़िन भेटती थी. उसे दस-पांच रुपल्ली दे आता था. एक बार पथरी भी हो गयी थी उसे. निकालने के ही दस बीस हज़ार बता डॉक्टर टरका रहे थे. मैंने भी पहाड़ से सिलफोड़ा मंगा पीसपास कर दिया था कि जब तक पेट के हीरे रतन डॉक्टर नहीं निकाल देता तब तक ये पहाड़ी टुटका आजमा. साथ में गहत की दाल का पानी पी. अब अपने त्रिपाठी डॉक्टर का गहरा यार हुआ पीलीभीत वाला डॉक्टर सिंघ. पथरी निकलने का तो उस्ताद हुआ. गरीब लाचारों के लिए द्याप्ता. अब कहाँ गयी कब गयी कुच्छ पता नहीं. (Bhagat Chakki Wale Haldwani Mrigesh Pande )

अपने भाग मीं तो घरवाली शैणी का जोग ही नहीं बना. पूरन पंडित ने लाख कहा. एक पूजा करा देता हूँ भद्रकाली ले जा के. गिरहस्ती बस जाएगी. बस रमे रहना. पर मैं तो पन्याली से ऊप्पर सीताराम बाबा का भगत बना गया था. फ़ीर वो भी चल दिये. 

अब आज पूरे सात अनाज हैं हां. चना है काला वाला. ठांग जौ है. चौमासा मक्का है. सोयाबीन तो वोई सूफेद हुई. जवार है आध कीलो. बाजरा त यहीं देसी है. सब एक-एक किलो. लाल ग्युं मिली थी एक बोरी. कहां थल मूवानी से लाया मिरे लिऐ गुमान सिंघ. उसी में से आपके लिए रिजर्ब है दस किलो. एक वो कर्नल स्साब ले जाते थे. गुजर गए.  खूब मस्त उनके दुकान पे आते ही दुकान में फूल पत्ती खिल जाते थे कंधे पे झोला डाले पैदल मार्च कर आने वाले हुऐ. जाड़ों के लिए अपनी बरांडी पक्की हुई. अब खूब नाम कमा खा पी अपना तो खट्ट चल दिये. मिरा मुख खुसक कर गए. अब मिम साब आती हैं. चना-जौ का मिसुवा आटा ले जाने. सुगर-फुगर है उनको. परहेज करती नहीं. बस खूब दवा इंजेक्शन. जबान पे कंट्रोल भी तो चहिए. कल शाम ही आटा ले गईं. कह रहीं आज चमचम तो भस्का ही दिए. अब दिवाली में मुख मीठा-मिठाई ना खाऊँ तो फिर कब? अब जो होता है? पहले ही से डायबिटीज सेंटर वाले डॉक्टर को फोन भी कर देती हैं. कुछ हुआ तो देख लेना. अब एकलपट्ट रह भी गयीं हैं. गीरहस्थी जोड़ के भी क्या होने वाला हुआ. दोनों लौड़े गए ऑस्ट्रेलिया, अमरीका. वहीं कुजातों से ब्याह कर बस गए. पर भोते मिलनसार. अरे पहाड़ी मी बलाने लगीं. बोलीं यीस्ट वीस्ट दाल कर केक बनाएंगी मड़ुए  का. साल में दो फेरे आते थे सब. अब तो घर मैं अकोरपट्ट हो गया. कर्नल साब मरे तो बाल मुंडा क्वीड में बैठ फिर वापस फेरा पलट. लड़की डॉक्टर हुई मुम्बई में वहीं जुहू में कोठी. साल भर हो गया कोई नहीं दिखा. अब यां मीम साब अकेली. वैसे पहले कौन पटती रही दोनों में. एक ईरान तो दूसरी तुरान. कर्नल साब ने बॉक्सर कुकुरा पाला तो मैम साब ने चपटे मौख वाला पिग. उस साले को देख मुझे तो घीन आती. अब रोटोसोटी कहां खाएं ये कुक्रे जो मेरे हियां से आटा जाए. पंजे छक्के चबाते. मटन मुर्गे की गोली गटकें. अब उत्ते बड़े घर में बस गुर्र-गुर्र है. इससे अच्छा तो अपना हिसाब ठहरा.  निपट एक. कोई जिए की आस नहीं मरे की याद नहीं. बारात चड़ी कहां? हो जाती तो उनके ही टनटों मैं च्यांपी जाता. जिसको देखो नानतीनों के चक्कर मैं घनचकरि रहा. (Bhagat Chakki Wale Haldwani Mrigesh Pande )

अरे हां मासाब. ये सुनौला-मटोला का लाल चामल भी धरा है अरे वुई अल्मॉड वाला. दो बरस पेले भि तो दिया था. या मीरी तराह खट्ट भुल जा रहे हो. अब लोगबागों की शकल पछानने में भी टैम लग जाता है. नाम सुसरे तो सर के बालों जस चट्ट हो गए. अब दस किलों चामल की पंतुरी पहले धर देता हूं हां. 

खोलो फिर कार की डिग्गी.. सीट में तो सब सफेडपट्ट हो जाएगा. वैसे तो बवारी शांत हुई सुशील हुई टुकाई नहीं लगाएगी. हौर? इजा कैसी है. पचासी पार तो होई गईं वो. अभी बेडुआ रवाट पचा जा रई या जोला खिचड़ी चल रही. सब पहाड़ में चीज़ बस्त मिल जाने, दूध दन्याली मिल जाने की माया हुई. मेरी ईजा भी अपुणे आखिर टैम तक ब्वारी बवारि कि गण मण करती रही. गिलास गिलास दूध गटकती रही. दवाई नहीं खाई ठेरी जन्मान भर. बस गुर्जे का पानी, आद-कालमीर्च की चा पिने वाली हुई. तब जा के जो गई विस्वानाथ.

अब तुम देखिया हां. यो ठुल कट्ट ग्वेंआट, यो भे इक किलो मडुवा, फीर जौ, सोया यो है गए हां, और तीन पुंतुर यो. अब भलि के धर लियो. यो आट चावलांक बगल में धरो. होई यस्सिके.

अब मैं हिसाब बतें दूँ हां. दगड-दगाड़. 

मास्साब, यो मंगल खराबी वाला हुआ या शुक्र की कसर ठेरी कि ऐसे एक पाट में रह गया मैं. और साबुत ही रह गया.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषद अधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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