वर्ष 1975 हिंदी सिने-इतिहास में खास तौर पर याद किए जाने लायक साल है. इस वर्ष शोले, दीवार, धर्मात्मा, जमीर, अमानुष, धरम-करम जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईं, तो दूसरी ओर चुपके-चुपके, छोटी सी बात जैसी मिडिल क्लास सिनेमा की फिल्में भी खासी चर्चित रही. जहाँ खेल-खेल में, रफूचक्कर जैसी एक मिजाज की फिल्में आई, तो दूसरी ओर आँधी, मौसम, खुशबू जैसी संजीदगी भरी फिल्में भी पीछे नहीं रही. इस वर्ष जय संतोषी माँ जैसी धार्मिक फिल्म आई, तो जूली जैसी म्यूजिकल हिट फिल्म भी आई. ऐसे में समानांतर सिनेमा ही क्यों पीछे रहता. इस साल श्याम बाबू की निशांत को समीक्षकों से अच्छी-खासी सराहना मिली.
बासु चटर्जी निर्देशित फिल्म छोटी सी बात (1975) सिने दर्शकों की पसंदीदा फिल्मों में से एक मानी जाती है. यह फिल्म बरबस ही उन्हें अपने जीवन का एक हिस्सा सा लगने लगती है. किसी भी सफल कृति का सबसे बड़ा गुण यह होता है कि, वह आम जनजीवन में रच-बस जाए, वह उन्हें अपनी सी लगने लगे.
कुछ हद तक इसका श्रेय अमोल पालेकर के सहज अभिनय को भी जाता है. वर्सेटाइल एक्टर होते हुए भी उनमें कोई स्टारडम नहीं दिखता था. उनकी छवि बिल्कुल ‘ब्वॉय नेक्स्ट डोर’ वाली सी दिखती थी. मध्य वर्ग के प्रतिनिधि बनकर उन्होंने आम आदमी के किरदार को एक खास पहचान दी. उन्होंने ‘लार्जर दैन लाइफ’ किरदार की अवधारणा को एकदम बदलकर रख दिया. उनकी अभिनीत फिल्मों को देखकर ऐसा लगता था, मानो अपनी ही कथा-व्यथा को बड़े पर्दे पर दिखाया जा रहा हो.
सेलिब्रिटी बनते ही सिने-सितारे अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं, “मुझे दर्शकों का बहुत प्यार मिला.” अगर इस कथन पर गहराई से मंथन किया जाए तो सही मायनों में यह बात अमोल साहब पर अक्षरशः लागू होती दिखाई देती है.
फिल्म वाचक के स्वर से आरंभ होती है. वे सिलसिलेवार जैक्सन तोलाराम कंपनी के मुलाजिमान के प्रेम विवाहों का ब्यौरा बताते चले जाते हैं. यह विवरण अचानक अरुण पर आकर थम सा जाता है. कमेंट्रेटर दशकों की तरफ एक जिज्ञासा भरा सवाल उछाल देते हैं- ‘क्या अरुण इस परंपरा को निभा पाएंगे.‘ यही वह कौतूहल, सरप्राइज का एलिमेंट है, जिससे दर्शक किरदार में इन्वॉल्व होने लगता है.
अरुण इस कंपनी में ग्रेड टू सुपरवाइजर है. उसके यातायात का साधन ‘बेस्ट’ की बस है. यह साधन तब के मध्य-निम्न मध्यम वर्ग का रोजमर्रा का परिवहन-साधन हुआ करता था. वह प्रभा को पहली बार उसी बस स्टॉप पर देखता है और प्रथम दर्शन में ही प्रभा (विद्या सिन्हा) से सम्मोहित सा नजर आता है. यह बात तब के युवाओं के जनजीवन में रची-बसी आमफहम घटना के रूप में दिखाई पड़ती है. संयोगवश दोनों एक ही बस स्टॉप से बस पकड़ते हैं, उसी बस से कार्यस्थल तक जाते हैं. अरुण शर्मीला, अंतर्मुखी स्वभाव का नवयुवक है. किंचित् आत्मविश्वास की कमी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनकर रह गई है. फिर वही कॉमनमैन की शाश्वत् समस्या. वह अपनी कोमल भावनाओं को व्यक्त करने में असमर्थ सा दिखाई देता है. वह प्रभा का साहचर्य और सानिध्य तो चाहता है, लेकिन उसमें उस मात्रा के साहस का सर्वथा अभाव सा दिखाई पड़ता है. उसकी उपस्थिति में वह असहज सा दिखाई देता है. वह बहुधा प्रभा का पीछा करते हुए दिखाई देता है, वो भी एक सुरक्षित दूरी बनाकर.
इस कारोबार में कई बार उसकी बस छूट जाती है, तो कई बार वह लिफ्ट से बाहर रह जाता है. पंक्ति तोड़ना उसे गवारा नहीं, क्योंकि वह संस्कारी है. प्रभा को इस बात का भान रहता है कि, वह उसके प्रति कुछ-कुछ भावनाएँ रखता है. वह किसी महिला सहकर्मी से कहती हुई नजर आती है कि, “आजकल तो साहब घर तक पहुँचाने आते हैं.”
प्रकृति ने नारी- स्वभाव को गजब की नियामत बख्शी है, वह आसानी से भाँप जाती है कि, उसका पीछा किया जा रहा है. प्रतीक्षा करते-करते कभी वह दीवार की आड़ लेकर त्रिभंगी मुद्रा में चना-चबैना चबाते हुए नजर आता है. फिर मुस्तैदी से प्रभा का पीछा करता नजर आता है. जब भी वह पीछे पलटकर देखती है, तो वह झट से रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर लेता है. उसकी नजरों में अपनी पोजीशन बचाने के लिए कभी वह सैंडल पॉलिश करवाने का सहारा लेता है, तो कभी हताशा में नाक-कान खुजलाते नजर आता है. उसकी ये भाव-भंगिमाएँ दर्शकों से सीधे तादात्म्य स्थापित करती हुई नजर आती हैं.
साधारण से रुप-रंग वाले नायक को दर्शक अपने बीच का मान बैठते हैं. एक किस्म से वे अरुण में स्वयं की छवि देखने लगते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि, आम आदमी स्वयं को काफी शर्मीला व संकोची स्वभाव का मानता है. वह स्वयं को अभिव्यक्त करने में विफल सा अनुभव करता है. कुल मिलाकर, खुद को अरुण जैसा लगा बैठता है. अरुण जमकर दिवास्वप्न देखता है. जो-जो बातें वह प्रकट में नहीं कर पाता, उन्हें वह दिवास्वप्न में साकार करता हुआ नजर आता है. वो भी टोटल कांफिडेंस और एक्स्ट्रीम परफेक्शन के साथ. दिवास्वप्नों की कड़ी में वह अक्सर स्वयं को प्रभा के साहचर्य में पाता है. यहाँ तक कि, नहाते हुए भी दिवास्वप्न देख लेता है. अपनी कल्पना में वह प्रभा से मुखर होकर बातें करता है. गजब की हाजिर जवाबी दिखाता है. “बस टाइम से नहीं आती. जब आती है तो दस गज दूर खड़ी हो जा जाती है.”
वह किसी यात्री को डपटते हुए कहता है, “अरे, हम दोनों साथ हैं.” वह कंडक्टर को ‘दो फाउंटेन देना’ कहता है. यह हसरत उसके मन में गहरे से बैठ गई है कि, वह प्रभा के लिए भी एक टिकट ले सके. जबकि यथार्थ जीवन में प्रभा के सामने पड़ते ही वह नर्वस होने लगता है. प्रभा के ‘टाइम क्या हुआ’ पूछने पर वह बुरी तरह सिटपिटाकर रह जाता है. काफी देर बाद, बस में सवार होकर वह बड़ी जद्दोजहद के पश्चात् ‘नौ बीस’ बता पाता है. इतना ही नहीं, समय बताने के बाद वह आत्ममुग्ध सा नजर आता है. विजयी मुद्रा में मुस्कुराता है, मानो उसने बहुत बड़ी जंग जीत ली हो.
इन सूक्ष्म घटनाओं का फिल्मांकन बहुत खूबसूरती से हुआ है. बासु चटर्जी की रचनात्मकता इतनी महीन दीख पड़ती है कि, इन दृश्यों में वे मध्यवर्गीय युवा की मनोदशा का हू-ब-हू चित्रण कर जाते हैं.
जब प्रभा अरुण के ऑफिस पहुँचती है, तो उसे सीढ़ियाँ चढ़ते देखकर अरुण की सिट्टी- पिट्टी गुम होकर रह जाती है. उसके हाथों के तोते उड़ जाते हैं. वह उसके पीछे-पीछे चलते हुए कहता है, “जीएम साहब से क्या काम है. सुनिए.. देखिए.. आपको कुछ गलतफहमी हुई है. आप मुझे गलत मत मानिए..” वह उसके पीछे-पीछे सीढ़ी चढ़ते हुए चिरौरी-विनती सी करता हुआ सा नजर आता है. अपनी सफाई में वह कहता है, “यकीन मानिए.. मैं ऐसा-वैसा आदमी नहीं. मेरा कैरेक्टर सर्टिफिकेट..”
इतना ही नहीं, वैकल्पिक समाधान स्वरूप वह तुरंत दिवास्वप्न देखने लगता है, जिसमें वह जीएम (राजन हक्सर) को मुँहतोड़ जवाब देता हुआ नजर आता है. इस कड़ी में वह कंपनी की प्रेम कथाओं का इतिहास खंगाल के रख देता है. हालांकि प्रभा वहाँ किसी कंसाइनमेंट इश्यू को लेकर आई है. अरुण की शिकायत करने नहीं. कलई खुलने के भय से उसका स्याह चेहरा दर्शकों को हँसने पर विवश कर देता है. इस दृश्य में ऑडियंस पूरा-का-पूरा मजा लूट लेती है. ऑफिशियल काम से दोनों के मध्य पहली बार औपचारिक वार्तालाप होता है. इस पर अरुण गद्गद होकर रह जाता है. सिनेमा हॉल में येसुदास के स्वर में ‘जानेमन जानेमन तेरे दो नयन..’ गीत का फिल्मांकन दिखाई देता है. तीसरे ही अंतरे में वह नायक (धर्मेंद्र) के स्थान पर स्वयं को फिट कर डालता है. इतना ही नहीं, वह अपनी कपोलकल्पना में हेमा के स्थान पर प्रभा को इंपोज कर देता है.
उसकी अति प्रसन्नता भरी हरकतों से आसपास के दर्शक असहज से होते नजर आते हैं, क्योंकि वह सिनेमा में स्वयं के इप्सित को पाकर अति प्रफुल्लित सा नजर आता है. इन दिवास्वप्नों में अरुण, अपने मन की सारी बातें उड़ेलकर रख देता है. उसे प्रभा की छोटी-छोटी डीटेल्स तक याद रहती है, ‘वह सप्ताह में किस दिन गुलाबी रंग की साड़ी पहनती है, तो किस दिन हरी.. किस दिन हल्के रंग की.. उसका बैग हमेशा सफेद रंग का रहता है.. उसे यहाँ तक स्मरण रहता है कि, उसके दाएं हाथ का नाखून बढ़ा रहता है..वह ‘डेनिश रॉबिंस’ के रोमानी उपन्यास बड़े चाव से पढ़ती है. वह पोल्का डॉट्स अथवा फ्लोरल डिजाइन की साड़ी पहनना पसंद करती है.‘
उस दौर में यह परिधान नारी- शक्ति का प्रिय परिधान हुआ करता था. गजब की डीसेंसी दिखती है. प्रभा को देखकर दर्शकों के मन में पहले तो सम्मान का भाव जाग्रत होता है प्रेम का उद्दाम भाव द्वितीयक होकर उभरता है.
बस स्टॉप, कथानक का प्रस्थान बिंदु होकर उभरता है. तब बेस्ट की लाल रंग की बस यातायात का प्रमुख साधन हुआ करती थी. यह दृश्य मुंबई के ‘प्री कंजेशन’ दौर की याद दिला जाता है. कई दृश्यों में बस स्टॉप पर ‘जमीर’ फिल्म का पोस्टर दिखाई पड़ता है. ‘जमीर’ और ‘छोटी सी बात’ दोनों बी आर चोपड़ा निर्मित फिल्में है.
नागेश (असरानी) प्रभा की कंपनी में काम करता है. वह टेबल टेनिस और शतरंज का इंटर ऑफिस चैंपियन है. पीले रंग का स्कूटर लिए नागेश अक्सर बस स्टॉप पर हाजिर मिलता है और प्रभा को लिफ्ट देने में सफल हो जाता है, जिसे देखकर अरुण का हृदय बैठा-बैठा नजर जाता है.
अरुण साहस बटोरकर प्रभा को लंच पर आमंत्रित करता है. नागेश शास्त्री, प्रभा को साथ में लेकर पहुँचता है. रेस्टोरेंट्स स्टाफ पर उसका जबरदस्त प्रभाव है. वह प्रभाव जमाते हुए कहता है, “चिकन अलापूज बनाओ. पीटर से कह देना, नागेश साहब का ऑर्डर है.” यह बात वह अधिकारपूर्वक कहता है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि, वह बहिर्मुखी है और बढ़-चढ़कर बातें करता है. इन मिले-जुले गुणों से वह अरुण पर मानसिक बढ़त लेते हुए दिखाई पड़ता है. इधर अरुण, हीनग्रंथि से ग्रस्त होकर रह जाता है. मजे की बात यह है कि, ‘लंच थ्रो’ अरुण करता है, लेकिन वह भोजन तक नहीं कर पाता. बिल भरता हुआ अवश्य दिखाई देता है. इस दृश्य में गजब का मनोविज्ञान दर्शाया गया है. निमंत्रण अरुण ने दिया. प्रभा को साथ में लेकर आता है, नागेश. और प्रभाव जमता है, नागेश का.
इस घटना से अरुण अंदर-ही- अंदर उबल पड़ता है. जिसका निदान या भरपाई, वह दिवास्वप्न देखकर पूरी करता है. अपनी कपोलकल्पना में वह जेब्रा लाइन पर खड़े नागेश पर निशाना साधते हुए, एक के बाद एक, तीन राउंड फायर करता है. इतना ही नहीं, इस अपराध के लिए चलने वाले मुकदमे में ब्योरा भी उसके दिमाग में चलने लगता है. कोर्ट रूम का दृश्य तो इतना लाजवाब है कि, दर्शक ताली बजाकर सीट पर उछल पड़ने को मजबूर हो जाते हैं:
पब्लिक प्रॉसिक्यूटर अभियोग लगाते हुए न्यायालय को अवगत कराता है कि, मुलजिम अरुण ने मुसम्मात प्रभा के इश्क में नाकाम रहने पर इंतकाम के इरादे से रकीब नागेश को जहांगीर आर्ट गैलरी से दिनदहाड़े गोली मार दी. बचाव पक्ष का वकील तुरंत दलील देते हुए कहता है, उस दिन मेरे मुवक्किल के दाहिने हाथ में गहरी चोट लगी थी. सिविल सर्जन का सर्टिफिकेट बतौर एग्जिबिट सी कोर्ट में आ चुका है. तभी अभियुक्त अरुण कोर्ट से दरख्वास्त करता है, ‘योर ऑनर मैं कुछ कहना चाहता हूँ.‘ वह अपनी निशानेबाजी की दक्षता का बखान करते हुए कहता है कि, चार फीट तो क्या, मैं दो सौ फीट की दूरी तक भी स्मिथ एंड वैसन या किसी भी रिवाल्वर से किसी भी शख्स को बाएं हाथ से भी उड़ा सकता हूँ.‘
जल्द ही अरुण इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि, साधनहीन होने की वजह से वह नागेश से इस स्पर्धा में पिछड़ता जा रहा है. अतः वह झट से सवारी-वाहन-स्वामी होने की चाहत पाल बैठता है. वह स्कूटर की तलाश में एक गैराज में जा पहुँचता है. गैराजस्वामी गुरुनाम(सीएस दुबे) अपने कारिंदों के साथ मिलीभगत करके, उसे फाँसने में कामयाब हो जाता है. एक रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल, जो अबतक कबाड़ की तरह गैराज में पड़ी थी, उसे महँगे दामों पर अरुण को टिकाने में सफल हो जाता है.
अरुण सेकंड हैंड मोटरसाइकिल पर सवार होकर, डेनिम-गोगल्स धाँसे हुए नागेश से पहले बस स्टॉप तक पहुँचने में बाजी मार लेता है. वह प्रभा को लिफ्ट देने में भी कामयाब हो जाता है. पर बेचारा हतभाग्य! मोटरसाइकिल थोड़ी ही दूर जाकर असहयोग पर अड़ जाती है. तभी दृश्य में पीला स्कूटर लिए नागेश नमूदार होता है. वह प्रभा को लिफ्ट ही नहीं देता, वरन् अरुण के जले पर नमक छिड़कने से भी बाज नहीं आता. वह विस्मय भरे स्वर में कहता है, “तीन हजार में खरीदी! इस कबाड़ के तो तीन सौ भी बहुत ज्यादा है.” वह उसे ‘पुअर ब्वॉय’ कहकर उसे कमतरी का एहसास कराता है. अरुण हताश-निराश दृष्टि से दोनों को ओझल होने तक देखता नजर आता है.
इस दृश्य में रकीबों का गजब का मनोविज्ञान दिखाया गया है. वह ‘उसके’ सम्मुख ‘इमेज’ सँवारने की लाख चेष्टा करता है, लेकिन ऐन मौके पर वही घटित होता है, जिसकी उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी. इधर नागेश उसका विकट प्रतिद्वंद्वी है, जो कोई भी मौका नहीं चूकता. बस एक चूक और इधर मैदान साफ. नागेश उस पर भारी पड़ता नजर आता है. इन दृश्यों में अरुण की हताशा देखकर उसके प्रति दर्शकों में करुणा सी उपजने लगती है.
इस निराशा भरे दौर में वह ज्योतिषियों-नजूमियों के चक्कर काटता है, तोते से भविष्य बँचवाता है. टैरोकार्ड से भविष्य जानने की चेष्टा करता है, मौनी बाबा को भेंट अर्पित करता है. मध्यवर्ग का बड़ा ही सटीक मनोविज्ञान दिखाया गया है. हताशा में किसी चमत्कार की उम्मीद में, अज्ञात शक्तियों की शरण में जाना, वर्गीय जीवन की एक अनिवार्य सी विसंगति के रूप में दिखाई पड़ती है. नायक के हालात दयनीय होते नजर जाते हैं. उसकी निराशा, पराजय बोध दर्शकों को बाँधे रखती है. यहाँ तक फिल्म में ‘डार्क ह्यूमर’ का सफल प्रयोग देखने को मिलता है.
तो इस पराजय बोध से ग्रस्त अरुण, कर्नल सिंह (अशोक कुमार) का एड्रेस हासिल कर लेता है. वह व्यक्तित्व परिष्कार के लिए छुट्टी लेकर उनकी शरण में जाने की ठान लेता है. खंडाला हिल्स का दृश्य है- रास्ता हरियाली से भरा-पूरा है और रास्ते भर ‘एरो मार्क्स’ के साइनेजेज. वह पगडंडी, नदी- नाले और उतार-चढ़ाव भरे दुरुह रास्ते को तय करता हुआ चला जाता है. कहीं पर तो वह काँटेदार तार-बाड़ के नीचे से भी निकलता है. एक स्थान पर तो उसे ‘एरो मार्क’ आसमान की तरफ दिखाई पड़ता है. वह ठिठककर वहीं पर खड़ा होकर रह जाता है. फिर अपनी सामान्य बुद्धि के सहारे, वह साइनेज को हिलाकर परीक्षण करता है. बोर्ड नीचे खिसककर सही मार्ग का संकेत देने लगता है. इस तरह से वह छाता और अटैची लिए गिरते पड़ते कर्नल सिंह के दरवाजे तक जा पहुँचता है. गेट पर नेम प्लेट पढ़कर वह गहरी साँस लेता है. मजे की बात यह है कि, इस समय वह जहाँ पर खड़ा दिखाई देता है, वहाँ तक एक सीधा मोटर मार्ग भी आता है.
सीढ़ियाँ चढ़कर जैसे ही वह दरवाजा खोलता है, ढेरों मुर्गियाँ बाहर आ निकलती है. वह अवाक् सा होकर रह जाता है. तभी पीछे से एक ‘ऑर्डर ऑफ कमांड’ सुनाई पड़ता है, “मुर्गियाँ! अंदर!” सभी-की-सभी मुर्गियाँ एक खास अनुशासन में चुपचाप अंदर चली जाती है. अरुण ही नहीं, दर्शकों में भी एक कौतूहल का सा भाव जाग्रत होकर रह जाता है. दादा मुनि की आवाज सुनकर, दर्शकों में किसी चमत्कार की सी उम्मीद जगने लगती है. ‘मुर्गी एपिसोड’ देखकर सहसा उनमें यह विश्वास घर करने लगता है कि, अब अरुण का उद्धार होकर ही रहेगा.
कर्नल सिंह के पूछने पर वह कष्टसाध्य मार्ग से आने की सूचना देता है. इस पर कर्नल सिंह कहते हैं, “इसका मतलब समस्या विकट है.” वे उसे मदद के लिए आश्वस्त करते हैं.
कर्नल सिंह बिलियर्ड्स खेल रहे हैं. उनका सेक्रेटरी ढेर सारी डाक लिए हाजिर होता है और उन पर कर्नल सिंह से जरूरी निर्देश लेता है. जब तक अरुण, कर्नल सिंह से रूबरू होता, तभी अचानक अमिताभ बच्चन बिलियर्ड्स रूम में चले आते हैं. वे ‘फरार’ के कॉस्ट्यूम में हैं और घुटने से पैर छूकर कर्नल को प्रणाम करते हैं. फिर खुसुर-फुसुर शैली में, कर्नल उन्हें आयकर संबंधी परामर्श देते हुए नजर आते हैं.
अकस्मात् अरुण की नजर में कर्नल की महिमा कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है. विलियर्डर्स का खेल जारी रखते हुए कर्नल, अरुण की ‘पर्सनैलिटी डायग्नोस’ करते हैं. सवाल-जवाब करते हुए वे उसके ‘पर्सनैलिटी डिसऑर्डर’ को सेक्रेटरी को नोट कराते जाते हैं. जब वे पूछते हैं, “तुम्हारे रास्ते में कोई काँटा तो नहीं, रकीब!” तो अरुण झट से नागेश का नाम ले लेता है. साथ ही यह नोट कराना नहीं भूलता कि, उसका रकीब, ‘असर्टिव’, ‘ओवर कॉन्फिडेंट’, ‘टॉकेटिव’ तो है ही, शतरंज और टेबिल टेनिस चैंपियन भी है.
प्राप्त ‘इनपुट्स’ के आधार पर उसकी ‘स्पेशल कोर्टशिप’ ट्रेनिंग शुरू हो जाती है. कर्नल सिंह कहते हैं, “बुजदिली की वजह से बाजी ना हारें.” वे स्लेट पर चॉक से लंबी लकीर खींचकर, उसकी पोजीशन बताते हैं, “तुम्हें यहाँ होना चाहिए और तुम ठीक अपोजिट डायरेक्शन में यहाँ हो. इसके लिए तुम्हें 180 डिग्री घूमना पड़ेगा. जिंदगी को एक जबरदस्त घुमाव देना पड़ेगा.”
इधर उसकी ट्रेनिंग जारी रहती है, उधर प्रभा उदास दिखाई देती है. इस उदासी का कारण है; अरुण की अनुपस्थिति. उसकी दिनचर्या में एक खालीपन सा दिखाई देता है. साथ-साथ पार्श्वगीत बजता है, ‘न जाने क्यूँ.. होता है यू जिंदगी के बाद… अचानक मिले..’ गीत गहरा है और जीवन में संबंधों के दर्शन को खूबसूरती से व्यक्त करता है.
स्पेशल ट्रेनिंग से दाँवपेंच-पैंतरे सीखकर, वह एक ‘पूर्णकामिल इंसान’ होकर लौटता है. परिपक्व, आत्मविश्वास से भरा- पूरा, नई ऊर्जा से लबरेज. दफ्तर में उसकी आमद एक नई धज के साथ होती है. जब वह दफ्तर पहुँचता है, तो दफ्तर का चपरासी पांडु पूर्ववत् स्टूल पर बैठा हुआ मिलता है. पूर्व की भाँति वह उसका अभिवादन तक नहीं करता, लेकिन अरुण इस व्यवहार को अन्यथा ले बैठता है. वह त्यौरियाँ चढ़ाकर उसे खड़े होने की नसीहत ही नहीं देता, वरन् बलपूर्वक उससे अभिवादन भी करवाता है. फिर ‘गुड मॉर्निंग’ कहकर वह उसका ‘प्रति अभिवादन’ करना नहीं भूलता.
दफ्तर में उसके मातहत क्रिकेट कमेंट्री सुनने में मुब्तिला रहते हैं. काम, जस-का-तस पड़ा रहता है. वे उसे कभी सीरियसली नहीं लेते. कारण, वह उनके बीच से ही प्रमोट होकर उनका बॉस बना है. जब वह रमन से ‘ब्लू वर्ड कंपनी’ के स्टेटमेंट माँगता है, तो वह अरुण को एक चलताउ सा जवाब देता है. अरुण यह साबित कर देना चाहता है कि, अब वह पहले जैसा नहीं रहा. वह उसकी टेबल से लेजर उठा लेता है और चुपचाप इरेज़र से कुछ फिगर्स मिटाकर, गलत फिगर्स बना लेता है. फिर उससे कैफियत तलब करता है और इस गलती के लिए उसे आड़े हाथों लेता है. प्रकारांतर से येन- केन-प्रकारेण अपना ‘बॉसिज्म’ साबित कर लेता है. अपनी गणितीय क्षमता में अकस्मात् आए इस ह्रास को रमन अविश्वास भरी नजरों से देखता रह जाता है. फिर वह बुझे मन से उसे ‘सॉरी’ कहता है. इस पर अरुण उसे ‘सॉरी सर’ कहने को विवश कर देता है. उसके व्यवहार में आए इस परिवर्तन से मातहत हैरान-परेशान से दिखाई पड़ते हैं, तो दर्शक सुखद आश्चर्य से भर जाते हैं.
जल्द ही वह दफ्तर में यथोचित अनुशासन कायम कर लेता है. उस अनूठी ट्रेनिंग के अनुकूल परिणाम आने शुरू हो जाते हैं. दफ्तर में काम के वक्त ट्रांजिस्टर से कमेंट्री सुनना तब एक बड़ी लग्जरी की बात मानी जाती थी. मातहत, दुर्रानी के टेस्ट क्रिकेट स्कोर का अपडेट सुनते हुए दिखाई पड़ते हैं. रेमिंग्टन टाइपराइटर तब अत्याधुनिक मशीनरी में शुमार किया जाता था.
उसी बस स्टॉप पर अरुण प्रभा से मुखातिब दिखाई देता है. कुशल-क्षेम के आदान-प्रदान के बाद बातचीत बढ़ना ही चाहती थी कि, तभी स्कूटर पर सवार, नागेश प्रकट हो जाता है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि, वह प्रभा को लिफ्ट देने के इरादे से आया है. इस पर अरुण उसे हाथ से थोड़ा रुकने का संकेत करता है. इतने में तो व्यग्र नागेश के सब्र का बाँध टूटने लगता है. वह झुंझलाहट में किर्र-किर्र करके लगातार स्कूटर का हॉर्न बजाने लगता है. अरुण उसे फिर से रुकने का संकेत देता है. सहसा अरुण पीछे से आकर स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ जाता है और उसका कंधा छूकर चलने का इशारा करता है. फिर मजे से वही ‘रकीब साइकोलॉजी’ रिपीट होकर रह जाती है. जिस अरुण को अब तक नागेश हिकारत भरी नजरों से देखता था, मजबूरी में उसे उसी को मन मसोसकर लिफ्ट देनी पड़ती है.
अरुण एक बार फिर से नागेश और प्रभा को लंच पर आमंत्रित करता है. नागेश शार्प टाइम पर रेस्तरां में पहुँच जाता है. काफी प्रतीक्षा करने के पश्चात वह व्यग्र सा होने लगता है. वह उछलती हुई निगाहों से दोनों को लॉन्ज में खोजता है. इस मौके पर उसका फ्रस्टेशन देखता ही बनता है. उसकी व्यग्रता भरी झुंझलाहट दर्शकों के चेहरों पर स्मित हास्य लाने में सफल हो जाती है. दीर्घ प्रतीक्षा के पश्चात अरुण, प्रभा को साथ में लेकर हाजिर होता है. नागेश अपना सेट पैटर्न आजमाते हुए रेस्तराँ स्टाफ को अपनी मनपसंद डिश परोसने का ऑर्डर देता है.
“अब ये डिश यहाँ नहीं बनती” कहकर स्टाफ उसे हैरत में डाल देता है. उसके ऑर्डर को सिरे से नकार देने पर वह चौक उठता है, लेकिन नागेश ने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थी. वह स्थिति संभालते हुए स्टाफ से अधिकारपूर्वक कहता है, “पीटर को बताओ कि, नागेश साहब का ऑर्डर है.”
“पीटर नौकरी छोड़कर चला गया” कहकर स्टाफ नागेश के सपनों पर वज्रपात करके रख देता है.”
यह दृश्य-विधान इतना शानदार है कि, नागेश के चेहरे पर विस्मय, आवेग, निराशा और झुंझलाहट के मिश्रित भाव एकसाथ दिखलाई पड़ते हैं. इधर उसकी दुरावस्था देखकर दर्शकों के ‘प्रतिशोध’ का भाव शमित होने लगता है.
इस एहसान के एवज में अरुण जाते-जाते स्टाफ को ‘टिप’ तो थमाता ही है, कहीं पीछे की टेबल पर बैठे कर्नल सिंह के लिए उसी स्टाफ से चिकन अलापूज सर्व करने का ऑर्डर भी दे जाता है.
इधर तीनों किसी चायनीज रेस्तरां में पहुँच जाते हैं. बैठने के स्थान को लेकर नागेश, अरुण से उलझता हुआ दिखाई देता है. अंततोगत्वा अरुण, प्रभा के ‘पहलू वाली सीट’ पर काबिज हो जाता है. नागेश को मन मसोसकर सामने वाली सीट पर बैठना पड़ता है. टेबल पर चाइनीज नूडल्स जैसी डिश परोसी जाती है. इधर नागेश, चॉपस्टिक के साथ असहज जा नजर आता है. वह ‘चॉपस्टिक’ को कभी कलम की तरह पकड़ता है, तो कभी चाकू की तरह. उसकी लाख कोशिशों के बाद भी नूडल्स उसकी चॉपस्टिक के दायरे से बाहर-ही-बाहर रह जाते हैं. मजे की बात यह है कि, ऐसे में अरुण उसे ‘खाओ-खाओ’ जैसा कुछ कहते हुए प्रोत्साहित करता हुआ नजर आता है.
अरुण प्रभा के चले जाने के बाद, नागेश गुस्से में चॉपस्टिक टेबल पर पटक देता है और हाथों से नूडल्स भकोसते हुए नजर आता है. इस जल्दबाजी में उसकी हिचकी बँध जाती है. दम फूल जाता है. तभी वेटर आकर उसे बिल थमा जाता है. विवश नागेश, अनमने मन से पैंट की फ्रंट पॉकेट से पैसे निकालता है और बिल चुकता करता हुआ नजर आता है.
समूचा हिंदुस्तान नजर आता है ‘बावर्ची’ फिल्म में
इस दृश्य में उदारीकरण से डेढ दशक पूर्व का सटीक चित्रण देखने को मिलता है. एक खास वर्ग को छोड़कर, अधिकांश जन, तब विदेशी व्यंजनों के प्रति बहुत सहज नहीं रहते थे. ऐसे में वे नागेश जैसी ही प्रतिक्रिया जताते करता थ. आज भी चॉपस्टिक के व्यवहार में कितने ही लोग हैं, जो सहज नहीं हो पाते. उस दौर में ‘यह हैव्स नॉट’ समूह व्यापक मात्रा में मौजूद मिलता था. इस वजह से दर्शक उसकी मनोदशा से सीधा कनेक्ट करता हुआ नजर आता है.
सलिल चौधरी के कर्णप्रिय संगीत और योगेश जी के बोलों में यह खूबसूरत गीत चलता है:
‘ये दिन… क्या आए… लगे फूल हँसने… देखो.. बसंती.. होने लगे.. मेरे सपने…’
यह पूर्णतया श्रृंगार काव्य पर आधारित गीत है. कवि प्रदीप, भरत व्यास और नीरज जी के बाद योगेश को ही इस तरह का कमाल हासिल था कि, वे अपने गीतों में हिंदुस्तानी के बजाय हिंदी के कोमल पदों का प्रयोग बड़ी खूबसूरती के साथ करते थे. यह गीत फिल्म में परिवर्तन का संदेश लेकर आता है. गीत, दृश्य प्रधान है, जिसमें एक ओर नायक-नायिका का साहचर्य दिखाया गया है, तो दूसरी ओर प्रतिद्वंद्वियों की विकट प्रतिस्पर्धा.
स्पोर्ट्स ड्रेस पहने और टीटी रैकेट हाथ में पकड़े नागेश, अपने ब्रैंडेड स्कूटर के साथ गली में खड़ा नजर आता है, तो उधर अरुण छत पर खड़ा दिखाई देता है. नागेश उसे हाथ से नीचे उतरने का इशारा करता है, तो अरुण उसे थोड़ी देर थमने का संकेत देता है. काफी देर के बाद जब वह नीचे उतरता है तो नागेश से कुछ कहता नजर आता है. फिर उसे थमने का संकेत देकर अंदर दरवाजे के पीछे जाकर बस यूँ ही खड़ा हो जाता है. कुल मिलाकर उसे तरह-तरह से बाध्य प्रतीक्षा करने को विवश कर के रख देता है.
टेबल टेनिस स्पर्धा में भी वह चल रहे खेल के बीच में ही जूते के लेस बाँधने के बहाने उससे प्रतीक्षा करवाता नजर आता है. दर्शक सहजता से जान जाते हैं कि, आखिर यह सब क्या हो रहा है. दरअसल ये सब कारोबार प्रतिपक्षी को विचलित कर, उसकी एकाग्रता भंग करने के सिवा और कुछ भी नहीं. यह व्यवहार-परिवर्तन एक खास ‘प्रतिरक्षा योजना’ के तहत आजमाया जा रहा है. नागेश की निगाहों में साफ-साफ शिकायती लहजा पढ़ा जा सकता है. वह विस्फरित नेत्रों से अरुण को देखता है, तो उसकी सर्विस, जाल में ही उलझकर रह जाती है. यही नहीं, अरुण बड़प्पन जताना भी जानता है. वह गेम के मध्य में ही नागेश के पास पहुँचकर उसे रैकेट पकड़ने का आदर्श तरीका भी बता आता है.
शतरंज-स्पर्धा का दृश्य तो बड़ा ही शानदार है. नागेश चैंपियन है. तब भी अरुण उसके साथ खेलने को राजी हो जाता है. तीन ही चालें हुई हैं. नागेश के शानदार गेम को देखते हुए अरुण उसकी तारीफ करने में पीछे नहीं रहता. “भई रियली! ये चाल तो तुमने बहुत ही लाजवाब चली.” यह कहते हुए अरुण सिरिंडर करते हुए नागेश से कहता है, “तुम जीते.” इधर नागेश उसे हराने का मंसूबा पाले हुए है. वह उसे प्रत्यक्ष हार का मजा चखाना चाहता है. इसलिए उसका मन है कि खेल जारी रहना चाहिए. लेकिन अरुण उसे फिर से विस्मित कर डालता है, “सातवीं चाल में तुम मेरा घोड़ा ले लोगे. हाँ, आठवीं में मैं तुम्हारा पॉन जरूर ले लूँगा. तेरहवीं में तुम मेरे दोनों हाथी. उन्नीसवीं में शह और बीसवीं में मात.” इतनी ‘एडवांस कैलकुलेशन’ सुनकर नागेश हैरत में पड़कर रह जाता है. वह उससे जिरह करना चाहता है, लेकिन अरुण उसे ‘एक्स्ट्रा इंफॉर्मेशन’ देकर फिर से चकित कर देता है “1970 के ग्रैंडमास्टर में ग्लोटोजोव ने यही चालें चली थी.” यह सुनकर नागेश अवाक सा होकर रह जाता है. वह ग्रैंडमास्टर का नाम दोहराने की असफल चेष्टा करता है, लेकिन उच्चारण दोष के कारण नाम उसकी जुबान पर अटककर रह जाता है. इस पर अरुण उसका उच्चारण दुरुस्त करना नहीं भूलता.
चूँकि सभी स्पर्धाओं में प्रभा, दर्शक दीर्घा में मौजूद मिलती है. अतः यह स्थिति नागेश के खिलाफ जाती हुई दिखाई पड़ती है. नागेश को पक्का यकीन हो जाता है कि, ‘अरुण की वापसी’ में किसी ‘तीसरी शक्ति’ का हाथ है. उसे बराबर यह संदेह बना रहता है कि, वह शक्ति अरुण को लगातार निर्देश दे रही है.
वह खोजी नजरों से लगातार उनकी टोह लेने की चेष्टा करता है. स्कूटर पर सवार होकर उन्हें गली-गली खोजता है, उनका बेतहाशा पीछा करता हुआ नजर आता है. एक मौके पर तो वह स्कूटर सड़क के किनारे खड़ा करके लगभग दौड़ लगाकर उनका पीछा करता है, लेकिन कर्नल हर मौके पर उसे चकमा देने में सफल हो जाते हैं. कभी टैक्सी में बैठकर निकल पड़ते हैं, तो कभी नुक्कड़ से गली में यकायक अलक्षित हो जाते हैं. आखिर एक मौके पर वह कर्नल को पा ही लेता है. उन्हें आड़े हाथों लेते हुए कहता है, “अच्छा! तो वो तुम हो.”
वह आँखें तरेरकर कर्नल सिंह की खबर लेना चाहता है. उन्हें खबरदार करता है, लेकिन कर्नल उससे अप्रभावित से नजर आते हैं. इतना ही नहीं, वे आवेश में आए हुए नागेश की चिबुक हिलाकर, ‘गिली-गिली, टिकी- टिकी जैसा कुछ कर जाते हैं. प्रकारांतर से, वे नागेश को अपने अनुभव के सामने बच्चा साबित कर जाते हैं.
पूर्व योजना के तहत कर्नल सिंह, घूमते-टहलते गैराज में जा पहुँचते हैं. वे गैराजस्वामी से उस पुरानी रॉयल एनफील्ड को दिखाने का आग्रह करते हैं. साथ-ही-साथ, वे उस मोटरसाइकिल की महिमा बताकर, उसे फौरन पेशगी भी थमा देते हैं. इससे पहले मोहन (अरुण का दोस्त) भी उस मोटरसाइकिल के बारे में जिज्ञासा जता चुका है. कहने का है कि, भूमिका पूरी तरह तैयार कर ली गई है.
सो जैसे ही अरुण गैराज पहुँचता है, गुरुनाम और उसके मैकेनिक तरह-तरह से अरुण की ठकुरसुहाति करते नजर आते हैं, लेकिन अरुण टस-से-मस नहीं होता. वह मोटरसाइकिल की उपलब्धियाँ गिनाते हुए उन्हें टोक लेता है. उसके मुताबिक, ‘नाइंटीन ट्वेंटी फाइव मेक’ इस मोटरसाइकिल के मात्र छह संस्करण ही तो बाजार में उतारे गए थे और कंपनी को नुमाइश के लिए इस वक्त इनकी सख्त जरूरत है.
‘क्या तुमने पिछले हफ्ते का टाइम्स नहीं पढ़ा. अभी हाल ही में, पुणे में जो कैंटोनमेंट रेस हुई थी, वो रेस भी तो इसी मोटरसाइकिल ने जीती थी.‘ काफी मान-मनौव्वल के बाद वह चार हजार रुपये में इस मोटरसाइकिल को वापस उन्हें बेचने को राजी हो जाता है, वो भी इस शर्त पर कि, जब भी कोई स्तरीय स्पर्धाएँ होंगी, तो वह इसी मोटरसाइकिल के साथ पार्टिसिपेट करेगा.
अरुण-प्रभा के संबंधों में आई ऊष्मा से नागेश का असूया भाव (दाह) चरम पर उभर आता है. वह उनके मध्य, विग्रह पैदा करने की भरसक कोशिश करता है. नागेश (असरानी) के प्रोएक्टिव व्यवहार से वे किरदार में पूरी तरह से रचे-बसे नजर आते हैं. इस फिल्म में उनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखते ही बनती है. उनकी खिसियाहट, बेचैनी-आक्रोश, ईर्ष्या-द्वेष से भरा-पूरा व्यक्तित्व, प्रतिशोध लेने को फनफनाता हुआ किरदार दर्शकों पर गजब का प्रभाव पैदा करता है. ‘अंग्रेजों के जमाने के जेलर’ की भूमिका के बाद, उनसे उसी दोहराव की उम्मीद की जाने लगी, जिससे उनके अंदर का नैसर्गिक कलाकार कहीं नेपथ्य में पीछे छूटकर रह गया.
प्रभा, अरुण की कारगुजारियाँ जान जाती है, तो भी वह अरुण से कहती है, “ये सब करने की क्या जरूरत थी. इतनी ‘छोटी सी बात’ तुम सीधे भी तो कह सकते थे.”नवयुगल विवाह के जोड़े में कर्नल के घर के द्वार पर उनका आशीर्वाद लेता है, तभी टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ रास्ते को नापते हुए नागेश दिखाई पड़ता है. कर्नल सिंह, फिर से उसकी चिबुक पर ‘गिली-गिली, टिकी-टिकी, गिलू-गिलू’ करते हैं. ध्यान देने की बात यह है कि, इस बार वे ‘गिलू-गिलू’ एक्स्ट्रा करते हैं अर्थात् उसे अभयदान दे देते हैं. फिर प्रेम से उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे अपनी शागिर्दी में ले लेते हैं.
आमजन के जीवन की रोजमर्रा की घटनाओं, युवाओं के अछूते किंतु महत्वपूर्ण विषयों और छोटे-छोटे वाकयों को पिरोकर फिल्म का कथानक बुना गया है. यह शरद जोशी की कलम का कमाल है कि, फिल्म में चुटकी-चिकोटी से लेकर गुदगुदी स्तर तक के संवाद सुनने को मिलते हैं.
‘क्यू’ में लगना, भीड़ भरी बस में खड़े होकर सफर करना, खाली होती सीट पर निगाह गड़ाए रखना और ऐन मौके पर किसी और का सीट पर बैठ जाना, यह बिल्कुल सच सा लगता है. सीमित बजट और स्वस्थ मनोरंजन की यह फिल्म असल जिंदगी से ज्यादा दूर नहीं लगती. फिल्म आम युवा की मनोदशा को बखूबी चित्रित करने में सफल साबित हुई. इसने सिल्वर जुबली तो मनाई ही, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों (1977) में सर्वश्रेष्ठ पटकथा का पुरस्कार हासिल करने में भी सफल रही. प्रतिबद्ध किस्म की यह फिल्म दर्शकों के हृदय को तो मथती ही है, मस्तिष्क को भी चैतन्य कर जाती है.
ह्यूमर और भाषा का अद्भुत संयोजन है ऋषिकेश मुखर्जी की ‘चुपके चुपके’
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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2 Comments
Anonymous
बहुत शानदार लिखा है, ललित मोहन रयाल जी आपने ।बेहतरीन अंदाजे बयां के साथ ।आपको पढ़ते पढ़ते जैसे एक बार फिर से पूरी फिल्म देख ली ।मुझे ये फिल्म बेहद पसंद है ।बहुत पहले इस पर एक पोस्ट भी लिखी थी ।……
मैं भी एक “छोटी सी बात” की तरफ आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ आप लिखते हैं -“अरुण साहस बटोरकर प्रभा को लंच पर आमंत्रित करता है. नागेश शास्त्री, प्रभा को साथ में लेकर पहुँचता है ” और “निमंत्रण अरुण ने दिया. प्रभा को साथ में लेकर आता है, नागेश “. दरअसल कहानी कुछ यूं है कि प्रभा अरुण के निमंत्रण पर रेस्टोरेंट में आती है नागेश अपने एक मित्र श्याम के साथ पहले ही वहाँ बैठा है वो प्रभा से कहता है- हाये प्रभा ! तुम यहाँ कैसे ? आओ बैठो have some lunch ।
प्रभा कहती है- no thanku ।मुझे वहाँ जाना है (वो अरुण की तरफ इशारा करती है )
नागेश कहता है -तो हम भी वहाँ चलते हैं, इसमें क्या है ? और फिर जैसा कि आपने लिखा वो खामख्वाह ही उन दोनों के गले पड़ता है या अरुण के नजरिये से कहें तो कबाब में हड्डी बनता है ।
खैर इतना सुंदर लिखने के लिए ,यादें ताज़ा करने के लिए एक बार फिर से आभार……संजय कबीर
Anonymous
आभार, संजय कबीर जी.