काली कुमाऊँ योद्धाओं का क्षेत्र है, अतः यहाँ की सभी परंपराएँ शक्ति (ताकत) से जुड़ी हुई हैं. दानवों की भूमि होने के कारण संभवतः न्याय पक्ष के लिए सहज ही अपने प्राण उत्सर्ग करने की प्रवृत्ति यहाँ के लोगों के संस्कार में है. यहाँ का पाषाण युद्ध (बग्वाल) पूरे प्रदेश में विख्यात है जिसे अब प्रदेश में सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है, हालांकि, सभी अन्य स्थानों की तरह, इसका मूल स्वरूप नष्ट हो गया है. (Barahi Devi and Bagwal of Devidhura Uttarakhand)
लोहाघाट, हल्द्वानी, नैनीताल और अल्मोड़ा को जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग में पश्चिम दिशा की ओर लोहाघाट से सिर्फ 45किलोमीटर की दूरी पर कुमाऊँ का अत्यंत प्रतिष्ठित एवं सुप्रसिद्ध बाराही देवी का शक्तिपीठ देवीधूरा के नाम से प्रसिद्ध है. यह स्थान समुद्र सतह से 7000 फीट की ऊँचाई वाले धरातलीय उभार पर स्थित है. गर्सलेख से देवीधूरा की ओर निरंतर धरातल उठता जाता है और देवीधूरा तक उसकी आकृति विशाल कछुए की पीठ की भाँति मंद ढाल वाले खुले पठार के रूप में बदल जाती है. देवीधूरा की उत्तल वेदिका में हल्की सफेदी के बीच-बीच में काले टिप्पों वाले छींट की चादर ओढ़े हुए-से बालुज विशाल शिलाखंड यत्र-तत्र कहीं समूह में तो कहीं एक-दो संख्या में बिखरे पड़े हैं. (Barahi Devi and Bagwal of Devidhura Uttarakhand)
यद्यपि आसपास की सभी पहाड़ियों, उपत्यकाओं, घाटियों में इनकी भरमार है फिर भी यहाँ पर ये अधिक वृहदाकार और ठोस हैं जो करोड़ों वर्षों से पूर्व के धरातलीय अपरदन या महान् हिमयुगीन ग्लेशियरों की मोटी चादर के भीतर ढके अवसाद के रूप में अब तक विद्यमान हैं. यह सारा क्षेत्र विस्तृत चरागाहों का रहा होगा, जिसमें भैंस-पालकों के ग्रीष्म और वर्षाकालीन अस्थायी निवास भी रहे होंगे. इन्हीं पशुपालक चरवाहों की आवाजाही से इस स्थान को दैवी स्वरूप दिया गया होगा. यहाँ पर प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों से सभ्यता के विभिन्न चरणों के विकास की एक धुँधली तस्वीर देखी जा सकती है. आज भी देवीधूरा के कई स्थानों में खेत बनाते या नए मकान की नींव खोदते समय मनुष्य की हड्डियों या कंकालों के अवशेष मिलते हैं. अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्वविदों हेनवुड, ह्वीलर, नौटियाल आदि ने इसकी विस्तार से सूचना दी है. उनका कहना है कि पश्चिमी रामगंगा, गगास नदी की घाटियों में मिलने वाले शवाधानों की शृंखला यहाँ तक फैली हुई थी.
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बाराही देवी का परिसर देवदार के सघन और विस्तृत कुंजों से भरा-पूरा होने के कारण ‘धूरा’ (ऊँची पहाड़ियों के समतल स्थानों के सदाबहार वन) शब्द को सार्थक करता था. कुमाऊँ के सभी शाक्त पीठ चारों ओर घने और प्राचीन देवदार वृक्षों के विस्तृत झुरमुटों के बिलकुल बीचों-बीच स्थित हैं. इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि ये पीठ मूल रूप से यहाँ की आदिम जातियों के केंद्र रहे होंगे जिनका बाद में आर्यों के द्वारा ब्राह्मणीकरण कर दिया गया. इस प्रक्रिया में, सैकड़ों सालों के भौगोलिक एवं पर्यावरणीय परिवर्तन के फलस्वरूप मूल स्वरूप तो बदला ही, उनसे जुडे हुए मानव समूहों की परंपरागत छवि भी सुरक्षित नहीं रह पाई. यहाँ तक तो कोई बात नहीं, दुर्भाग्य से उनके मूल चरित्र को विकृत कर दिया गया, जैसा कि आर्यों ने उन जातियों के साथ किया, जिन्होंने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की. ‘दानव’ भी ऐसी ही एक जाति थी. भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखते हुए डीडी कोसांबी ने भी इस बात का समर्थन किया है:
ब्राह्मणों ने धीरे-धीरे बची-खुची कबीलाई व श्रेणी जातियों में प्रवेश किया, जो आज तक चालू है. कबीलाई देवताओं को ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित देवताओं के समकक्ष मान लिया गया और जिन कबीलाई देवताओं को आत्मसात करना कठिन था, उन्हें प्रतिष्ठित देवताओं के समकक्ष मान लिया गया और उन्हें प्रतिष्ठित बनाने के लिए नए ब्राह्मण धर्मग्रंथों की रचना की गई.
और
भारतीय मातृदेवी मंदिर प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, स्थानीय से परिवर्तित उन आदिम जनजातीय पूजा पद्धतियों के विकास का, जिनका आगे चलकर ब्राह्मणीकरण हो गया.
(कोसांबी: मिथक और यथार्थ)
देवीधूरा में देवी की बाराही अर्थात् पृथ्वीस्वरूपा मानकर पूजा की जाती है. इसे देवसेनानी माना जाता है. मंदिर में देवी की प्रतिमा न होकर दो विशाल शिलाओं के आपस में एक-दूसरे से प्राकृतिक रूप से सटे होने के कारण उनके मिलन स्थल पर स्वतः बने एक त्रिभुजाकार द्वार को देवी की योनि का प्रतीक मानकर पूजा जाता है. इन दोनों शिलाओं के बीच के खुले सँकरे मार्ग के एक ओर उन्हीं के आच्छादन में बैठकर पुजारी लोग भक्तों से देवी के लिए भेंट, उपहार आदि प्राप्त करते हैं. ग्रेनाइट की शिलाओं की यह प्राकृतिक बनावट ही मातृकुक्षि से बाहर निकलने का संकेत है. द्वार मातृयोनि है. यह मार्ग इतना संकीर्ण है कि भीड़-भाड़ के दिनों में इससे एक ही ओर से निकला जा सकता है. यह माना जाता है कि जिस प्रकार शिशु माँ के गर्भ से निकल कर योनिद्वार से बाहर प्रकट होता है, उसी का यह प्रतीकात्मक स्वरूप है. इसे बहुत पवित्र माना जाता है. बलि के लिए तैयार भैंसों को भी इसी प्रकार अंदर ले जाकर योनिद्वार से निकाल कर तब उनका बलिदान किया जाता है. इसी प्रकार की अभिव्यक्ति आसाम में कामरूप कामाक्षा मंदिर में की गई है. ग्रेनाइट के शिलाओं की बनावट श्रीलंका कैंडी के पार्क में उपलब्ध शिलाओं से पूर्णतया मिलती है. आदिम मानव प्रजनन से संबंधित अंगों के प्रतीकों की पूजा किया करता था. इस स्थल की प्राकृतिक बनावट में देवी के स्वरूप की संकल्पना से देवीधूरा के आदिम युगीन मातृदेवी के मूल स्थल होने में कोई संदेह नहीं रह जाता. यहाँ के पुजारी देवी के इस स्वरूप की पुष्टि में देवी भागवत् के पुराण-स्कंध का यह पाठ प्रस्तुत करते हैं, जो साफ पहचाना जा सकता है कि परवर्ती पुरुष-प्रधान (आर्य) मानसिकता की उपज है:
कामी भूमौ च रहसि वीर्यत्यागं करोति यः.
एतान्वोढुमशक्ताऽहं क्लिष्टा च भवन्श्रुणु.[माँ बाराही कहती है कि ‘मैं सारे भार को सहन कर लूंगी लेकिन पृथ्वी पर वीर्यपात सहन नहीं करूंगी. अतः वीर्यपात धरती पर स्वेच्छा से बिना योनि के न करें.’]
यहाँ पर इस बात को बताना भी रोचक होगा कि मंदिर में बाराही की शक्ति (प्राकृतिक रूप से बनी प्रतीकात्मक मातृयोनि) की पूजा की जाती है. संदूक में रखी गई मूर्ति को किसी को देखने नहीं दिया जाता है. इसको न दिखाए जाने का कारण कदाचित् यह हो कि मूर्ति में प्रदर्शित देवी मानव की आदिम अवस्था (संभोग) में हो. मूर्ति को बागड़ (क्षत्रिय) जाति का व्यक्ति नहलाता है. नहलाते समय उसकी आँखों में पट्टी बाँध दी जाती है. वह अपने हाथों को पीछे करके मूर्ति को धोता है. वही देवी के आभूषणों की भी सफाई करता है. उस समय मूर्ति और आभूषणों को पर्दे में रखा जाता है, ताकि किसी की दृष्टि उन पर न पड़े. लोगों में विश्वास है कि मूर्ति को देखने की चेष्टा करने वाले की आँखें फूट जाती है. डॉ.. राम सिंह की तरह डीडी कोसांबी भी इसे ‘मातृसत्तात्मक समाजों के अनुष्ठान तथा पूजा-पद्धतियों को पितृसत्तात्मक सामाजिक संगठनों और पुरोहितों की मानसिकता का दृढ़तर हो जाना मानते हैं: ‘‘ऐक्टीआ को उसी के कुत्तों ने फाड़कर टुकड़े कर दिया क्योंकि उसने देवी को निर्वस्त्र देख लिया था. ऐकाइसीज यह जानकर संत्रस्त हो गया कि एक देवी (एफ्रडायटी) को रात भर प्रेम करने के बाद निर्वस्त्र देख लिया था, अतः उससे प्राणदान की याचना करने लगा. उर्वशी से पुरूरवा की याचना भी ठीक ऐसी ही है. शतपथ में उसके बारे में जो आख्यान है, उसमें सिर्फ मूल कारण को उलट दिया गया है. कहा गया है कि पुरूरवा ने निषेध-वृत्त इस तरह तोड़ दिया कि उर्वशी को वह निर्वस्त्र दिखाई दे गया. आदिम निषेध तो इसी बात को लेकर हो सकता है कि वह देवी निर्वस्त्र न देखी जाए.’’ (डीडी कोसांबी, ‘मिथक और यथार्थ’)
देवीधूरा में प्रत्येक वर्ष श्रावण की पूर्णमासी को ‘बगवाल’ का प्रसिद्ध रोमांचक पत्थरों की मारामारी का प्रदर्शन होता है. इसकी तैयारी श्रावण मास की शुक्ल एकादशी से आरंभ होती है. बगवाल में भाग लेने वालों के घरों, वस्त्रों आदि की सफाई से लेकर बगवाल में भाग लेने वाले व्यक्ति को अनेक प्रकार के कड़े धार्मिक नियमों का पालन करना होता है. अनाजों में मडुवा, दालों में मसूर की दाल का प्रयोग निषिद्ध है. अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयों के साथ-साथ मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, किसी भी दुकान में बैठकर चायपान इत्यादि दुर्व्यसनो का बगवाल संपन्न होने तक त्याग आवश्यक होता है, क्योंकि अब इस देह पर बगवाली व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं रह जाता, वह तो देवी को समर्पित ‘द्योका’ (देवी का अनुचर) है. बगवाल के दिन अर्थात् पूर्णमासी को प्रत्येक बगवाली, जिसकी माता जीवित है, माँ का स्तनपान अवश्य करता है, चाहे बगवाली की अवस्था कितनी ही क्यों न हो क्योंकि देवी बाराही मातृस्वरूपा है. बगवाल में उसके बालक को कुछ भी हो सकता है, अतएव माता के स्तनपान से उसको बल मिलता है.
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पूर्णिमा के दिन द्योकों के झुंड-के-झुंड अपने-अपने टोली नायकों की अगुवाई में देवीधूरा को पैदल चल पड़ते हैं. इसके लिए किसी प्रकार की सवारी नहीं ली जाती. बगवाल में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास एक मजबूत लकड़ी का डंडा और बाँस या रिंगाल की खपच्चियों से बनी छतरी के आकार की बड़ी-सी ढाल होती है, जो बगवाल के समय पड़ने वाले पत्थरों से बचाने में सहायक होती है. बगवाली देवी के भक्त अपने सिर को किसी मोटे कपड़े से अच्छी तरह लपेटे रहते हैं ताकि पत्थरों से सिर की रक्षा की जा सके.
देवीधूरा में बग्वाल – वीडियो 26 अगस्त 2018
देवीधूरा का बग्वाल मेला: एक फोटो निबंध
यह पाषाण युद्ध काली-कुमाऊँ के क्षत्रियों के चार खामों (घरानों) के बीच युद्ध की शक्ल में होता है. ये चार ‘खाम’ हैं – 1. चमियाल, 2. गहड़वाल, 3. लमकणियाँ और 4. लमगढ़िया. पूर्णिमा के दिन 12 बजे से लेकर 2 बजे तक मंदिर में पुरोहितों व पुजारियों द्वारा देवी की पूजा संपन्न की जाती है. मंदिर का प्रधान पुजारी मंदिर से शंखध्वनि करके बगवाल का उद्घोष कर देता है. इसके साथ ही मंदिर के पंडे-पुरोहित देवी से संबंधित पूजा के मंत्रों का जोर-जोर से उच्चारण करके वातावरण में अत्यधिक उत्तेजना भर देते हैं. शंखध्वनि कानों में पड़ते ही बगवाली देवी के भक्त अपने सामने पड़ने वाली दूसरी ओर की खामों पर पत्थरों की वर्षा आरंभ कर देते हैं. ये पत्थर सौ ग्राम से लेकर पाँच-छः सौ ग्राम तक भार के होते हैं. बगवालियों के लिए नियम है कि वे दूसरे पक्ष के किसी व्यक्ति को लक्ष्य करके पत्थर नहीं चलाएंगे और न शत्रु-मित्र किसी की पहचान रखेंगे. चोट लग जाने पर भी किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखा जाता, उसे देवी की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता है. देखते-देखते दोनों ओर से पत्थरों की अंधाधुंध वर्षा होने लगती है. बगवाल जब अपने चरम पर होती है, दोनों ओर से बगवाली फर्रों (ढालों) की आड़ लेकर प्रांगण के केंद्र की ओर बढ़ते हैं. जो केंद्र पर पहुँच जाता है, उसे विजयी मान लिया जाता है. दोनों पक्षों के खामों के लोग प्रतिपक्षी खाम वालों के फर्रे व लाठियाँ छीनने का प्रयास करते हैं. जिस पक्ष की लाठियाँ तथा फर्रे छीने जाते हैं उसे हारा हुआ माना जाता है. 15-20 मिनट के बगवाल के निमित्त निर्धारित समय के व्यतीत हो जाने पर मंदिर के पुजारी बगवालियों के बीच जाकर देवी का तांबे का छत्र सिर पर ओढ़े, एक हाथ से चँवर (गाय की पूंछ) हिलाते हुए बगवाल की समाप्ति का संकेत करते हैं.
आज पाषाण युद्ध एक कर्मकांड बन चुका है हालांकि यह अपने मूल रूप में योद्धाओं के अपनी आराध्य देवी के प्रति अपनी निष्ठा और भावनाओं तथा अपने शक्ति-प्रदर्शन का सबसे अच्छा साधन रहा होगा.
(बटरोही की लम्बी कथा-गाथा ‘किम्पुरुष: क्रमशः’ का एक अंश)
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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