खजुराहो की शिल्पकला समाहित किये कामसूत्र की परम्परा का अनुसरण करती पत्थर की मूर्तियाँ कुमाऊँ में या तो अल्मोड़ा के नंदादेवी मंदिर में हैं या जनपद चम्पावत के मुख्यालय में स्थित बालेश्वर मंदिर में.
ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार चौदहवीं शताब्दी में चम्पावत बसा. तभी यहाँ बालेश्वर मंदिर का निर्माण हुआ. चम्पावत को बसाने में अभयचंद की मुख्य भूमिका मानी जाती है. बालेश्वर मंदिर में अभयचंद का 1371 ई. का आलेख खंडित अवस्था में है. एक अन्य शिलालेख समीपवर्ती चौकुनी गाँव के मंदिर में भी है. कहा जाता है कि बालेश्वर मंदिर से उत्तर दिशा में एक बौद्ध तीर्थ भी था.
टनकपुर से लगभग 75 किमी दूर 1670 मीटर की ऊंचाई पर सुरम्य शीतल स्थल है चम्पावत जो अपनी जैव विविधता से सहज ही आकर्षण का केंद्र रहा है. चम्पावत में परम्परागत शिल्प व लोकथात की समृद्ध पूंजी है. भूमि की धारक क्षमता और विस्तृत अवलंबन क्षेत्र होने से यहाँ की जलवायु सहज ही तन और मन को तरंगित करती है.
काली कुमाऊँ की राजधानी रहा चम्पावत. तब कुमाऊँ में राजा नागेश्वर नागनाथ का शासन था. राजधानी रही गढ़ी चम्पावत. वृद्धावस्था में पुत्रविहीन राजा ने गोलू को गद्दी सौंपी. तब चम्पावत के विस्तृत साम्राज्य में कुमाऊँ क्षेत्र भी सम्मिलित था. जनश्रुति है कि चम्पावत के अंचल से ही कुमाऊँ का नामकरण हुआ. इसी क्षेत्र को कुर्मू कहा गया जहां विष्णु भगवान का कूर्मावतार हुआ. कूर्मावतार से ही कूर्मांचल और फिर कुमाऊँ नाम प्रचलित हुआ. पशुपति रूद्र का निवास है जिस कैलाश-मानसरोवर में उसका यात्रा पथ भी पहले चम्पावत से होकर गुजरता था. इसके प्रतीक रहे तल्लीहाट और मल्लीहाट. धर्मस्थलों की पदयात्रा के पड़ावों में मध्यकालीन राजाओं ने अनेक मंदिर, नौले और धर्मशालाएं बनाईं. चम्पावत का बालेश्वर मंदिर समूह देवकुल परिसर का है.
पार्श्वे यत्र विराजते भगवती श्री हिंगला दक्षिणे
वामे मानसरोवरः सुविमल: पूर्वे स कांतेश्वर:
मध्ये गौरल भैरवो च वसतः श्री नाग बालिश्वरौ
वन्दे तां नगरीं सदा शिवमयीं चम्पावती सर्वदा.
बालेश्वर मंदिर समूह परिसर में दो द्वि-पुरुष देवालय बालेश्वर-सुग्रीवेश्वर मंदिर तथा रत्नेश्वर-चम्पावती मंदिर हैं जिनकी तलछंद योजना एक क्षैतिज धुरी के दोनों किनारों में एक दूसरे की ओर एक-एक गर्भगृह है जिसके सामने रंग मंडप तथा दोनों को संयोजित करता मुख मंडप बना हुआ है. ऊपर के छंद में नौ अलंकृत पट्टियों द्वारा प्रसाद पीठ, वेदीबन्ध हैं और फिर त्रिअंगी-पंचरथ से डिजायन किया गया जंघा-भाग बना है. मंडप आज ध्वस्त अवस्था में है. द्विपुरुष मन्दिर चंद काल में ही निर्मित हुए. बालेश्वर मन्दिर का अलंकरण भव्य है जिसमें नक्काशी की गई है. वाह्य दीवारों में ब्रह्मा विष्णु महेश तथा अन्य देवी-देवताओं की अनुकृतियां हैं. मन्दिर की चौकी में हाथी विविध मुद्राओं में उकेरे गए हैं. पुष्पों का अलंकरण भी विद्यमान है.
बालेश्वर मंदिर के बाहर अष्टधातु का एक घंटा भी लटका है जिस पर कर्ण भोज चन्द चंदेल का नाम अंकित है. बालेश्वर के दक्षिण की ओर गोलू देवता का मन्दिर विद्यमान है. चम्पावत के स्थानीय निवासियों के इष्ट देवता देव गोलू नहीं हैं जबकि अल्मोड़ा, बागेश्वर और नैनीताल में गोलू की मान्यता है. चितई व घोड़ाखाल की परम्परा में गोलू में भी अपनी समस्याओं की पाती मंदिर प्रांगण में लगाई जाती हैं. गोलू मंदिर में घंटियों से बहुल ध्वज विद्यमान हैं. यहाँ से पूर्व दिशा में कांतेश्वर महादेव व उत्तरपूर्व में मानेश्वर मंदिर है तो दक्षिण दिशा की चोटी पर हिंगला देवी व तहसील कार्यालय के पास नागनाथ मंदिर विद्यमान है. बालेश्वर मंदिर समूह के अंतर्गत चम्पावती देवी मंदिर, बटुक भैरव मंदिर तथा मालिका मंदिर हैं.
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बालेश्वर मंदिर में विविध पूजा-अर्चना संपन्न होती हैं. कहा जाता है कि पहले शिव जी की पूजा एवं अर्चना नृत्य के उपरान्त संपन्न जाती थी. मंदिर के पास ही नृत्यशाला विद्यमान रही जिसमें भीतर की ओर ऊपरी भाग में गन्धर्व व नर्तकियों के चित्र तराशे गए हैं. वादक अपने वाद्य यंत्रों के साथ उकेरे गए हैं. निम्न भाग में नर्तकों एवं हंसों की पांत उत्कीर्ण हैं. मुख्य शिव मंदिर स्फटिक से निर्मित है. कहा जाता है कि दूसरे शिव गृह की निर्मिति नीलम से की गयी थी जिसे रूहेला आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था. मुख्य मंदिर में गोल पाथर पर फन उठाये सर्प विद्यमान हैं तो दाहिनी ओर पक्षी व सिंह हैं. पूर्ववत यहाँ इक्कीस मंदिर बताये जाते थे जो अभी पांच ही मिलते हैं.
बालेश्वर मंदिर समूह में प्रातः संध्या पूजन होता है. देवभोग की परिपाटी नहीं है.
बालेश्वर मंदिर का रखरखाव पुरातत्व विभाग के जिम्मे है जिसने मुख्यतः 1990 से चबूतरे, फर्श व चहारदीवारी के कार्य संपन्न किये. यत्र-तत्र बिखरे अवशेषों को देखते हुए सुधार के प्रति अधिक संवेदनशील रहने की आवश्यकता है. 15 सितम्बर 1997 में चम्पावत जनपद बना. इसकी संभावना एक सुन्दर सांस्कृतिक पर्यटन स्थली व समृद्ध लोकथात की स्थली के रूप में बनी है. अभी तक के किये गए प्रयासों से तो मुख्यालय की सुविधाएं बटोरने के लिए नित नए भवनों के निर्माण से ही लोक नियति संलग्न है. पुरातन शिल्प व स्थापत्य कला के भग्नावशेष खंडहरों का रूप न ले लें इसके प्रति हमें संवेदनशील होना ही पड़ेगा.
(आलेख तथा फोटो प्रो. मृगेश पाण्डे के हैं)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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