जनपद चंपावत के देवीधुरा कस्बे में अवस्थित मां बाराही देवी के मंदिर में प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के दिन बग्वाल मेला आयोजित किया जाता है. मान्यता है कि देवीधुरा क्षेत्र की चार प्रमुख खाम सहित कुल सात थोक ( गांव ) के निवासी जो वर्तमान में जनपद अल्मोड़ा, नैनीताल, चंपावत की सीमा में निवास करते हैं. मां बाराही देवी इनकी कुलदेवी है.
मान्यता है कि देवीधुरा क्षेत्र में निवास कर रहे चार खाम क्रमशः लमगड़िया, वालिक, चमयाल और गहडवाल खाम इनके साथ तीन अन्य थोक पूर्णा, टकना के निवासी माँ बाराही देवी प्रांगण में प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन के दिन पाषाण युद्ध खेलते हैं और जब इस पत्थर युद्ध में एक नर के खून के बराबर खून निकल जाने का भान मुख्य पुजारी को होता है तो शंखनाद से युद्ध विराम कर देता है तब पाषाण युद्ध में शामिल चारों खाम के निवासी एक दूसरे के गले मिलते हैं. इसके बाद मिलकर मां बाराही की पूजा करते हैं. क्षेत्र की खुशहाली और रक्षा की प्रार्थना करते हैं. यह क्षेत्र का सामूहिक मेला है. जिसमें क्षेत्र के सभी थोकों की भागीदारी होती है. चार खाम के निवासी जो कि थोकदार है. पाषाण युद्ध में शामिल रहते हैं जबकि पूर्णा और टकना गांव के निवासी इस युद्ध मे पुजारी की भूमिका में रहते हैं. जिनकी हर वर्ष बारी-बारी से मुख्य पूजा में पुजारी की बारी आती है. फुलारकोट के निवासी मां की सेवा की व्यवस्था में लगे रहते हैं.
ऐतिहासिक पक्ष अनुसार मान्यता है कि क्षेत्र में निवास कर रहे चमियाल वालिक, लमगडिया और गहडवाल देवीधुरा क्षेत्र में पूर्व से निवास कर रहे आदिम बनवासी जातियों को अपना शत्रु मानते. आदिम बनवासी जातियों को ही यक्ष, यक्षिणी और गंधर्व आदि जातियों के नाम से भी जाना जाता है. आदिम बनवासी जाति के लोग पशुपालन और आखेट पद्यति से जीवन यापन करते थे. क्षेत्र में कृषि आधारित व्यवस्था में निवास कर रहे निवासियों को वह अपना शत्रु मानते थे. उनके द्वारा फसल को नुकसान पहुंचा कर गाहे बगाहे मारपीट कर माली नुकसान के साथ जानी नुकसान पहुंचाया जाता था.
जान व फसल की रक्षा के लिए क्षेत्र वासियों ने माँ बाराही देवी की आराधना की. माँ बाराही देवी जो कि वैष्णवी रूप में विद्यमान है ने बनवासी, आदिवासियों से क्षेत्र की फसल और निवासियों की रक्षा की. तब से श्रावण मास एकादसी से भाद्रपद द्वितीय तिथि तक विशेष पूजा अर्चना कर मेला आयोजित होता है. पूर्णिमा / रक्षाबंधन के दिन चारों खाम के निवासी प्रत्येक वर्ष बारी-बारी माँ के गणों की संतुष्टि हेतु आदिशक्ति गुफा के समक्ष एक नर बलि माँ को प्रसन्न करने हेतु देने लगे. एक बार चमयाल खाम की एक वृद्ध विधवा के पौत्र की नरबलि की बारी थी.
पौत्र की बलि के बाद वृद्ध विधवा के पूरे वंश के खत्म हो जाने का संकट था और मां को बलि देने की परंपरा भी नहीं तोड़ी जानी थी. इस बात से वृद्ध विधवा बहुत परेशान थी. वह दिन-रात मां की भक्ति में लगी रहती थी और मां से ही इसका कोई समाधान देने की प्रार्थना करती थी. वृद्ध विधवा महिला चमियाल के वर्तमान प्रमुख गंगा सिंह चम्याल जी के परिवार की बताई जाती हैं. प्रार्थना से मां प्रसन्न हुई और माँ बाराही द्वारा ही यह आदेश दिया कि चारों खामों के भक्त अब नरबलि नहीं देकर रक्षाबंधन के दिन एक दूसरे खाम के रण बांकुरे खोलीखाण / दुर्बाचौड़ मैदान में पत्थरों से हमला करेंगे और जब एक नर के बराबर खून गिर जाने का भान हो जाएगा तो मां खुद ही युद्ध विराम की घोषणा करेगी.
तभी से ही रक्षाबंधन के दिन मां बाराही देवी के प्रांगण में चमियाल, लमगडिया, वालिग और गहड़वाल खाम के रणबांकुरे अलग-अलग दिशाओं से योद्धाओं के रूप में दुर्बाचौड़ मैदान मे आते हैं और मां बाराही की पूजा अर्चना के बाद पत्थरों का युद्ध खेल तब तक चलता है जब तक एक मनुष्य के बराबर रक्त की मात्रा जब मैदान में नहीं गिर जाती है. एक मनुष्य के बराबर रक्त की मात्रा मैदान में गिर जाने के बाद पुजारी शंखनाद कर युद्ध विराम की घोषणा करते हैं. तब चारों खामों के रणबांकुरे मित्र आपस में गले लगकर मां का आभार व्यक्त करते हैं. मां की विशिष्ट मूर्ति तांबे के संदूक में कलैक्ट्रेट में रहती है. उसकी पूजा वर्ष में एक बार बगवाल के दिन ही प्रमुख यजमान श्री धन सिंह बागड़ द्वारा की जाती है और चारों खामों के जजमान इस पूजा में शामिल होते हैं. क्षेत्र में हर्ष उल्लास का वातावरण रहता है.
बाराही देवी का मूल मंदिर आदिशक्ति गुफा है लेकिन वर्तमान स्वरूप के मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा किया जाना बताया जाता है. बाराही देवी मंदिर की मूर्ति को नग्न आंखों से ना देख कर कपड़े से आंख बंद कर देखे जाने की जो परंपरा है उसके विषय में मिथक है कि एक बार मां बाराही की मूर्ति चोरी हो गई. चोर ने जिस लोहार को मूर्ति दी उसने जब मूर्ति पर हथोड़ा चलाया तो उससे उत्पन्न चिंगारियों से लोहार अंधा हो गया. तब माँ ने अपने भक्तों से कहा कि अब वह उसके दर्शन सिर्फ बंद आंखों से करें क्योंकि मां नग्नावस्था में है तब से मां की मूर्ति को आंख मे कपड़ा बांधकर स्थापित करने और पूजा अर्चना करने की परंपरा प्रचलित है. समय के साथ पत्थरों का यह युद्ध कोई एक दशक पहले चारों खामों के रणबांकुरों के बीच नाशपति से खेला जाना प्रारम्भ हुआ. वक्त के साथ नाशपति का स्थान फूलों ने ले लिया है. परम्परा और विश्वास जारी है. आज भी उसी भाव से खोणी खाल और दुर्बाचौड मैदान में पूर्णिमा के दिन वैसे ही बांस के फर्रो के साथ पाषाण युद्ध खेला जाता है.
रक्षाबंधन के पर्व पर प्रतिवर्ष खेली जानी बग्वाल आज भी फूलों और फलों से खेली जाएगी. इसके लिए मंदिर कमेटी और चार खाम सात थोकों के प्रधान पात्रों ने तैयारियां पूरी कर ली हैं. बग्वाल देखने के लिए इस बार भी लाखों श्रद्धालुओं के आने की संभावनाएं हैं.
आचार्य कीर्ति बल्लभ जोशी ने बताया कि रक्षा बंधन के दिन तड़के तीन बजे से ही श्रद्धालुओं का मां वाराही धाम में आना प्रारंभ हो जाएगा. करीब चार बजे से चार खाम सात थोक के प्रधानपात्र मां बज्र वाराही की विधिवत पूजा अर्चना करेंगे. ऋषि तर्पण, जनेऊ धारण के बाद बाद रक्षाबंधन का कार्यक्रम होगा. मां वाराही के सिंहासन डोले को नंदगृह से जनता के दर्शनों को लाएंगे. चार खाम के प्रधान पात्र दोपहर बाद सभी बग्वाली वीरों को लेकर मां वाराही धाम आएंगे. मंदिर परिक्रमा के बाद बग्वाल खेलने के लिए खोलीखांड दुर्वाचौड़ मैदान में एकत्र होंगे. शुभ लग्नानुसार बग्वाल खेली जाएगी. उन्होंने बताया कि बग्वाल को लेकर जिला प्रशासन और मंदिर कमेटी ने पूरी तैयारियां कर ली हैं. मंदिर कमेटी के मुख्य संरक्षक लक्ष्मण सिंह लमगड़िया और अध्यक्ष खीम सिंह लमगड़िया ने बताया कि बग्वाल को लेकर आवश्यक दिशा निर्देश सभी मुखियाओं को दे दिए गये हैं. उन्होंने कहा कि इस बार भी बग्वाल शांतिपूर्वक खेली जाएगी.
प्रमोद साह
मोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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