वह 1984 की गर्मियों के दिन थे और दिलकश नैनीताल हमेशा की तरह सैलानियों की गहमा-गहमी में डूबा हुआ था. पहाड़ के बाकी हिस्से में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के `नशा नहीं रोजगार दो´ आंदोलन की बयार बह रही थी. इस सिलसिले में 17 जून को मंडल मुख्यालय में जोरदार प्रदर्शन की तैयारियां चल रही थीं. इन्हीं दिनों मैंने कुमाऊं विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में एडमीशन लिया था. (सी. वी. रमन के छात्र थे कुमाऊं विश्वविद्यालय के पहले कुलपति प्रो. डी. डी. पन्त)
हम `चिपको´ के जमाने से वाहिनी को देखते-सुनते आए थे और इसके घुमंतू युवा नेतृत्व का असर मुझ जैसे देहाती नौजवानों को इसके जुलूस-प्रदर्शनों में खींच लाता था. दूर-दराज से आए स्त्री-पुरुषों के हुजूम तल्लीताल बस स्टेशन में जुटकर माल रोड की ओर बढ़ रहे थे. फिल्मी मिजाज की सरोवर नगरी में स्वभावत: निरीह दिखाई पड़ने वाले `अपने´ लोगों का भारी तादाद में मुfट्ठयां ताने हुए जुटना रोमांचित करता था. अलग रहकर देखना संभव नहीं हुआ तो पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ मैं भी जुलूस में समाहित हो गया.
माल रोड से गुजरते हुए अधेड़ उम्र के एक फटेहाल शख्स ने बरबस मेरा ध्यान खींचा. गले में हस्तलिखित तख्ती लटकाए वह गंभीर मुद्रा में जुलूस में चले जा रहे थे. अपने साइज से बड़ा बरसों से बे-धुला हाफ स्वेटर, मुड़ी-तुड़ी पैंट और इसी श्रेणी के थेगलीदार जूते. आंखों पर ज्यादा पावर वाला पुराना सा चश्मा. तख्ती भी गत्ते के बेकार डिब्बे को खोल कर बनाई गई थी. अलबत्ता, लिखावट निहायत खूबसूरत और उस पर लिखी इबारत इतनी जानदार कि कोई एक चौथाई सदी बीत जाने के बाद आज भी मुझे जस की तस याद हैं:
करना ही होगा एक इंतखाब.
आदमी की जिंदगी या सुरा-शराब
उन्हें देख मैं अचंभित था. थोड़ा सकुचाते हुए मैंने बातचीत की कोशिश की. अपने बारे में उन्होंने इतना भर बताया कि वह यहां सीआरएसटी इंटर कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं. बाकी वह शराब माफिया और सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा जताते रहे. जहां तक मुझे याद है, इस संक्षिप्त बातचीत के दरम्यान उन्होंने मेरा परिचय जानने की भी कोशिश नहीं की थी. अवस्थी मास्साब से यह मेरी पहली मुलाकात थी. नैनीताल में मुश्किल से दो महीने और रहना हो पाया और पढ़ाई-लिखाई के लिए मैं अन्यत्र चला गया. जीवन की गाड़ी ने ऐसी पलटी खाई कि तीन साल बाद राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से मैं दोबारा नैनीताल लौट आया.
पहली शरणस्थली बनी जानेमाने रंगकर्मी और प्रगतिशील शायर जहूर आलम साहब की कपड़े की छोटी सी दुकान- इन्तखाब. इसे नैनीताल का अनौचारिक सांस्कृतिक केंद्र समझ सकते हैं! या फिर उत्तर भारत की स्थापित रंग संस्था `युगमंच´ का आफिस. शहर और बाहर के रंगकर्मी, कलाकार, कवि-लेखक यहां हाजिरी लगाना नहीं भूलते (मैंने तो यहां जाने कितनी बार रात भी गुजारी है). अवस्थी मास्साब लगभग रोजाना दोपहर के वक्त यहां आकर बैठते थे.
संगीत-नाटकों में उनकी गहरी रुचि थी और जहां तक याद पड़ता है वह युगमंच के अध्यक्ष रह चुके थे. हालांकि इन्तखाब की अड्डेबाजी में मैंने उन्हें कभी खुलकर बात-बहस करते नहीं देखा, लेकिन तमाम विषयों पर उनकी संक्षिप्त टिप्पणियां बेहद सार-गर्भित और चुटीली होती थीं. यदाकदा कोई मजेदार बात कहते तो उनकी आंखें खुशी से झपकने लगतीं. बहस-बकलोल में वह अक्सर चुप्पी साधे रहते मगर लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने का उन जैसा साहस बहुत कम लोगों में दिखाई देता है. वह `एकला चलो रे´ के मुरीद थे और तानाशाही का प्रतिवाद करना हो तो किसी के साथ आने का इंतजार नहीं करते थे. (डॉ. राम सिंह की स्मृति: अपने कर्म एवं विचारों में एक अद्वितीय बौद्धिक श्रमिक)
एक घटना संभवत: हर नैनीतालवासी को याद रहेगी. किसी बात पर पुलिस ज्यादाती के खिलाफ सीआरएसटी कालेज के छात्रों-अध्यापकों का गुस्सा फूट पड़ा और इसके बाद हुई पुलिस फाइरिंग में एक चूरन बेचने वाले की जान चली गई. फिर क्या था, जैसे पूरा नैनीताल उबल पड़ा. अवस्थी मास्साब बौखलाए पुलिस वालों को समझाने सीधे थाने पहुंच गए और जब लौटे तो उनका मुंह लहूलुहान था. पता चला कि एक बदमिजाज दरोगा ने वहां पड़े पत्थरों से उनकी यह दुर्दशा कर दी. इस बात पर भी खूब बावेला मचा लेकिन अवस्थी मास्साब का पोस्टर विरोध कभी थमा नहीं.
नैनीताल में बिल्डरों की छेड़छाड़ हो या आस-पास के गांव वालों पर प्राधिकरण के फरमानों का कहर, वह किसी आंदोलन के उगने का इंतजार नहीं करते थे. चुभने वाले स्लोगन की तख्ती गले में टांगे अकेले बाजार-बाजार घूमते अवस्थी मास्साब जैसे नैनीताल में प्रतिवाद के प्रतीक बन गए थे. उनकी इन मौन टिप्पणियों की मार से कई बार किसी तुनकमिजाज अभिजन या अफसर की त्योरी चढ़ जाती तो उनके चेहरे पर बच्चों जैसी शरारत भरी मुस्कान छा जाती. बाबरी मfस्जद विध्वंस के दिनों में ऐसे ही एक स्लोगन से बौखलाकर एबीवीपी के एक दबंग छात्र नेता ने उन पर हमला बोल दिया था. उत्तराखण्ड आंदोलन के तूफानी दौर में वह लगभग रोज नया स्लोगन गले में लटकाकर घूमते थे. मुजफरनगर कांड के बाद जब शहर का माहौल अचानक बेहद हिंसक और दहशतजदा बन गया, अवस्थी मास्साब हमेशा की तरह तख्ती लटकाए माल रोड में टहलते नजर आए:
वह जालिम सितमगर!
न जाने कब तक रहेगा वो कायम
कितनों को मारकर मरेगा मुलायम!
अपने समय के बेहद निष्ठावान शिक्षक, रंगकर्मी और सबसे ऊपर लोकतंत्र के जांबाज प्रहरी शरत चंद्र अवस्थी बिना कोई लकीर छोड़े एक दिन हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए. वह किसी पार्टी या संगठन के कार्यकर्ता नहीं थे और न ही कोई सेलेब्रिटी. उन्होंने कोई `चमकदार´ काम नहीं किया और न ही किसी ईनाम-पुरस्कार से नवाजे गए. नेपाल की सीमा से सटे एक दूरस्थ गांव में जन्मे हिंदुस्तान के निहायत आम आदमी थे अवस्थी मास्साब. लेकिन आप चाहे मानें या नहीं, दुनिया में लोकतंत्र की सांसें उनकी जैसी राहों में चलने वालों की जिद पर ही टिकी हैं.
-आशुतोष उपाध्याय
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shaandaar.
नमन है उनको! हम इतना ही कह पाएंगे.
नमन है उनको! हम इतना ही कह पाएंगे.
नमन । आदमी के लिये।
नमन। आदमी और आदमियत के लिये।
The photograph used in this article about Awasthi guruji was taken by me...as a matter of courtesy it should be mentioned.
प्रदीप जी, आशुतोष उपाध्याय के ब्लॉग बुग्याल द्वारा उपलब्ध कराई गयी पोस्ट में फोटोग्रफत के नाम का ज़िक्र नहीं था. इसलिए नाम नहीं गया. अभी आशुतोष जी से बात हुई तो उन्होंने बताया है. नाम डाला जा रहा है. कष्ट के लिए खेद है.
नमन !
अवस्थी जी भाकपा माले के कार्ड होल्डर मेंबर थे, ओर 2000 2001 में पार्टी सदस्यता की लेवी उनसे मैंने लिया है। पार्टी की नैनीताल ब्रंच में भी उस समय अकसर ही वे समय से हाजिर रहते थे। फ्लैट्स में हो रहे बच्चों की फुटबाल टूर्नामेंट, हॉकी और क्रिकेट में उनकी भारी दिलचस्पी थी।इंटरनेशनल खिलाड़ियों की स्पोर्ट्स टेलेंट की बारीक समझ उनके पास अपनी ही नजर से होती थी । उनके साथ हम नोजवान आइसा के साथियो को चाय पिलाना ओर उनके साथ कि यादे हमारे साथ रहेंगी।
हैप्पी बर्फ डे का सलोगन भी आज तक नही भुला सके हैं।
अवस्थी जी की राजनीतिक समझ बेहद स्पस्ट थी , इसी लिये उनके पोस्टर एक साफ सन्देश देते थे।
ये बात सही है कि वे कम बोलते थे लेकिन जब बोलना शरू करते थे तो विषय पर रुचि करने वाला बोलते थे,
खेर उनकी दिलचस्प मुलाकात फ्लैट्स की चाय के साथ भुलाई नही जा सकेंगी , कड़की के दौर में अवस्थी जी की चाय हमलोगों के लिये जबरदस्त राहत होती थी।
अंग्रेजी शब्दों के अर्थ को सब्दो को बेहतरीन तरीके से इतिहास के साथ मैंने उन्ही से सीखा।
अवस्थी जी किसी राजनीतिक पार्टी के मेम्बर नही थे ये कहना गलत ही नही चालाकी भरा है।