अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)
(पिछली क़िस्त से आगे)
चुपके-चुपके रात दिन पर्ची चलाना याद है…
ये जानना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि टेलीफोन का आविष्कार किसने किया, क्लास में पर्ची चलाना सबसे पहले किसकी अन्तः प्रज्ञा और सिद्धहस्त कर कमलों से से हुआ लेकिन ये जानना उतना ही जटिल है जितना कि ये साबित करना कि पहले मुर्गी हुई या अंडा. जिसने भी इसकी शुरुआत की अवश्य पदम पुरस्कारों के लिए उसका नाम जाना चाहिए क्योंकि अक्सर ऐसा होता था कि जितना ज्ञान हमें पढ़ाने वाले के पाठ से नहीं होता था उससे ज्यादा उन पर्चियों से हो जाता था. दिन के अंत में `हैण्डआउट’ (एक ऐसा आविष्कार जिसने लिखने की जरूरत, जिसे व्यावहारिक समझ के हिसाब से जहमत कहा जाए, से अभूतपूर्व निजात दिलाई) से जितना मैटेरियल मिलता था उससे ज्यादा डे ऑफिसर इकट्ठा हुई पर्चियों से निकाल सकता था. ऐसी महिमा थी पर्चियों की. जितनी हमारी कक्षाएं नहीं चलीं उससे ज्यादा पर्चियां. पर्चियों का पढ़ाने वाले की योग्यता और पढ़ाए गए पाठ से कोई खास सरोकार नहीं था, मतलब ये कि ऐसा नहीं था कि पढ़ाने वाला बहुत अच्छा कुछ पढ़ाए और इस मुगालते में रहे कि उसकी क्लास में पर्चियां नहीं चलेंगी.
पर्चियों से जुड़ी दो घटनाएं बहुत रोचक हैं. एक तो हमारी नहीं तीसरे आधारभूत( जिसका आधार ही भुतहा हो उससे उम्मीद ही क्या की जा सकती है?) कार्यक्रम के बैच की है जिसकी चर्चा करना मेरे बस में नहीं क्योंकि उसकी आधिकारिक पहली हाथ जानकारी (first hand information- ये अनुवाद गूगल ट्रांसलेशन टूल ने किया है जो ये बताता है कि artificial intelligence can very well replace human intelligence but artificially!) मेरे पास नहीं है और कयासों के आधार पर उस अनैतिक प्रयास के बारे में कुछ ही अनायास कह देना संत्रास से ज्यादा कुछ नहीं देगा.
(उदाहरण: आशुकवि; पर्ची क्षमता के आधार पर मिला हुआ संबोधन और उपाधि! यूं, कि लफ्फाजी के लिए मिला आत्मबल)
इस सम्बन्ध में कुल इतनी जानकारी लीक कर सकता हूँ कि जाने किस अति दुस्साही प्रशिक्षु ने मर्यादा की सीमा के उस पार लॉन्ग जम्प लगा दी और औंधे मुह गिर पड़ा. इससे दो बातें हुईं. एक तो उसे उठाने के चक्कर में कुछ और लोग रपट गए और दूसरी इस पर्चा क्रिया के सम्बन्ध में प्रशासन को जानना पड़ा. नि. प्र. के माध्यम से जानते तो वो पहले से थे लेकिन आधिकारिक तौर पर पुष्टि अब हुई. खूब हलचल हुई और कुछ गंभीर प्रवित्ति लोगों ने इसी बहाने पर्ची क्रिया का तर्पण हो जाने जैसी भविष्यवाणी कर डाली. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पर्चियां भरपूर ज़िंदा रहीं और गाहे बगाहे अपने ज़िंदा रहने के सबूत भी देती रहीं.
दूसरी घटना इससे ज्यादा युगान्तकारी, नव युग प्रवेशी रही. इसने पर्ची लेखन की मेथोडोलोजी ही बदल डाली. एक रिसोर्स पर्सन अवतरित हुए. नाम नहीं लूंगा. उनकी क्लास में भी पर्ची चली. न जाने क्यों हमारे `जी एस’ को ये नागवार गुजरा. गुजरा तो चुपचाप गुजर जाने देते… लेकिन फिर जीएस किस बात के. उन्होंने फतवा जारी किया `अब किसी भी रिसोर्स पर्सन की पर्ची नहीं चलेगी.’ हमने भी बात मान ली, नहीं चली पर्ची किसी रिसोर्स पर्सन की… उस दिन सारे दिन बस जीएस के नाम की ही पर्ची चलती रही.
फिर हमने जुगाड़ पद्धति का सहारा लिया और अब तक पासिंग द पार्सल पद्धति से खेला जाने वाला ये खेल दो खिलाड़ियों के बीच टीटी जैसा हो गया. एक पद या बंद एक खिलाड़ी बनाता और उसे दूसरे की तरफ सरका देता, दूसरा खिलाड़ी आगे का भाग पूरा करके वापस कर देता. हिंदी कविता के भारतेंदु युग में इतनी समस्यापूर्ति नहीं की गयी होगी जितनी यहाँ हो गयी. कुछ दर्शक भी होते थे खेल के जो `भौहँन हंसहि’ द्वारा हौसला अफजाई करते हुए खेल में शामिल हो जाते थे. पर्चों का कार्यस्थल भौगोलिक रूप से सिमट कर एक रजिस्टर में आ गया. इससे उनकी कालजई होने की संभावना भी बढ़ गयी.
सूर, कबीर, तुलसी, जायसी जब पाठ्यक्रम में थे तब इतना नहीं याद किया गया होगा जितना इस दौरान वो याद आए और आशु कवियों की मदद की. कितने ही नौसिखियों ने अपनी काव्य प्रतिभा निखारी और अपनी बनी बनाई इमेज से विस्थापित होते हुए कवि रूप में स्थापित हुए.
पर्ची एक आवश्यक बीमारी के जैसे थी. नेसेसरी ईविल. आवश्यक इसलिए क्योंकि इससे ही हमें बांटे जा रहे ज्ञान के मर्म तक पहुँचने में मदद मिलती थी. तब विकिपीडिया तो था नहीं हमारे पास. ईविल इसलिए क्योंकि परम्परागत रूप से जिस चीज को छिपा कर किया जाए वो…. जैसे डेमोक्रेसी के बारे में कहते हैं `to rectify the evils of democracy we need deeper democracy’ वैसे ही पर्चियों के बारे में कहा गया कि `to rectify the downfall of the popularity of parchees we need more and more parchees.
अपने स्वरूप में भी खासी जनतांत्रिक थी पर्ची. इसमें लगातार प्रश्नों की बौछार (नो पन इन्क्लूडेड) करने वाले पंवार से लेकर लगभग मौनव्रती प्रकाश का भी योगदान था, हिलोरें ले लेकर बोलने वाली और पहाड़ी नदी की तरह चपल चलने वाली मधु से लेकर नींद ही नींद में पूरा व्याख्यान सुन लेने वाली स्मिता का भी सहभाग था. अपनी खतरनाक कूटनीति से दिल दहला देने वाले बंशीधर से लेकर दहले हुए दिल का एक्सप्रेशन देने वाले रोहित भी शामिल रहे इसमें.
कुछ लोग सुर में नहीं होते, कुछ अ–सुर हो जाते हैं कुछ लोगों को ताल की जानकारी नहीं होती, कुछ बे–ताल हो जाते हैं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सुर पर सर मारते हैं और जब कुछ नहीं समझ आता तो ताल पर लात मारकर टहलने निकल जाते हैं.
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