प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : कोई न रोके दिल की उड़ान को

पिछली कड़ी – छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : ये वादियाँ ये सदायें बुला रही हैं तुम्हें

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अब सफर था कनालीछिना, असकोट, गर्जिया, बलुआकोट, कालिका होते धारचूला पहुँचने का जहाँ से जाएंगे पांगू और फिर नारायण आश्रम. एनएचपीसी और डीजीबीआर के द्वारा ओगला से उतरते ही सड़क चौड़ा करने को पहाड़ी की तरफ कटान कर नालियाँ बन रहीं थीं.
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कितनी जगह चौमास में ऊपर से ढुलक गई मिट्टी-पत्थर रह रह किनारे से नीचे लुढ़कती. सड़क के बीचों-बीच डम्पर व ट्रक खड़े दिखते. दो तीन दिहाड़ी वाले मजदूर उनमें पत्थर भरते. सभी सवारी गाड़ियों को तब तक इंतज़ार करना पड़ता जब तक वह डंपर पूरी तरह लोड न हो जाये. सरपट भागने के लिए पास मिलने की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी थीं इस सड़क चौड़ीकरण के काम  ने. ठीक आगे का कोई वाहन अगर खराब हो रुक गया तो समझो पूरी लाइन ठप, जब तक वह खराब पड़ा वाहन दुरुस्त न हो जाये. हमारी सूमो के चालक भवान दा ने बताया कि इधर तो हवा भरने, छुटपुट मैकेनिक की सुविधा के लिए बस बलूआकोट और जौलजीबी ही हुए. ये अलग बात है कि जुगाड़ में हर डिरेबर माहिर हुआ. आपस में मिलबाँट इस जुगाड़ की कारीगरी से ही ये लम्बा सफर तय होता है.

असकोट आने ही वाला था. ओगला वाला रास्ता आगे चल दो भागों में बंट जाता है ऊपर बायें हाथ की ओर वाला असकोट तो नीचे धार ही धार लुड़कती बलखाती सड़क धारचूला की ओर.

अब तो ठीक इस दोबाटे के पहले सारे वाहन ठहर गए दिख रहे थे यानी लग गई भंचक. हम सब भी सूमो से उतरे, बीच में तीन की जगह चार बैठ जाएं और उनमें एक दो खाये पिए मुस्टंडे हों तो कब हिलें कब चले ही मन मैं रहता है. सामने थी उदार प्रकृति. खींचने लायक बहुत कुछ दिख रहा था. भवान दा जरा देख के आता हूँ कह आगे चल पड़े उस ओर जहां संकरी सी जगह में एक ट्रक थोड़ा टेढ़ा हो रुका पड़ा था. पता चला कुछ टूट फूट हुई है और उसके मालिक ड्राइवर साब असकोट से अपने किसी मित्र का फटफटिया पकड़ डीडीहाट गए हैं. अभी दस मिनट पहले. जब आए तो ट्रक सुधरे.
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अरे साब यहां कहाँ क्रेन. मेकेनिक तो है सुना डीडीहाट में, असल बात तो पुर्जा मिलने की है.

तब तक पड़े रहेंगे क्या?

चार बालिस्त सरकने की तो जगह नहीं.

अब बकबाकाट से तो ट्रक हिलेगा नहीं.

टाइम काटना हुआ यार पहाड़ में.

अचानक याद आया कि मेरा एक मित्र इंटर कॉलेज में प्रवक्ता, यहीं रहता है असकोट में. नन्दा वल्लभ अवस्थी, यहीं का निवासी. क्यों न उससे मिल लिया जाय. कितनी बार पिथौरागढ़ घर आ बेहिसाब संतरे-माल्टे खिला गया. नाराज भी होता है ये टॉन्ट मार कि तुम कभी नहीं आते हम गंवाड़ियों के घर.

तुरंत मैंने दीप से कहा. दीप ने कहा, ‘अरे हाँ!पूछते हैं चल’. पास की ही एक छोटी सी दुकान में हमने पूछा. ‘अरे मास्साब हाँ-हाँ यहीं हुए. अब घर जाते हो तो ये तिलोकी पहुंचा देगा. बस येss अघिल मोड़ और मास्साब का दुमंजिला. घाम ताप रहे होंगे या कुछ लिख-पढ़ रहे होंगे पढ़ने की अल्त हुई या डोलीने की. उनका अखबार मेरी दुकान पै आता है. बस खोला और घर तक पढ़ते-पढ़ते जाते हैं.
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भवानदा और धर्मसत्तू जी कुछ अपने खास से मिलने की कह चल दिए और बता गए कि गाड़ी जब खुलेगी तो यहीं से बुला लेंगे.इधर-उधर दूर न जाना.

लो अपना नंदू यानी नन्दा बल्लभ तो बहुत ही खुश हो गया. सीढ़ियां चढ़ दुमंजिल में पहुंचे. खूब खुली चाख में सारा परिवार इकट्ठा. कोई किसी कोने कोई कहीं,कुछ न कुछ में रमे थे.

वो पांडे जु आए हैं नैनीताल वाले. वो जहां रमा पढ़ाती है वहीं हुए. हाँ हाँ पिथौरागढ़ से. नंदू ने जोर से बोल अपने बाबू को बताया.

‘रमा, अरे ss अच्छा!अच्छा , आओ रे आओ.भैटोsss. कोई ऐ जां, त भौतेss भल लागों. ओ लाss,ब्वारी चाहा पिला.पौण ऐँ रैइं. कां खोसी रौछा ‘?

‘ऊँनइं. मस्यूड पिसनइं’.

‘आ पे आ झट्ट. यो गोपु ले नि दिखनौss रंकर. उनन कें तमाख दींण छि रे ब्वारीsss’. नंदू की ईजा बोलीं. मुँह में पड़ रही धूप से बचने को लड़द -बदड़ शौल से मुख छोप रखा था.

‘नाss ,नाss मैले बिड़ी खे राखी. तू आपणि जिबडि सौंट कर अब’.

‘मेँ चुप्पे भयूँ.तुमे बलाओ ‘.

नन्दा वल्लभ का परिवार. उसके छोटे बेटे भीतर से टिन की चार- पांच कुर्सी ला,तखत के इनारे-किनारे रख भैटो का अनुरोध तब तक करते रहे जब तक हम बैठ नहीं गए. दूसरा लड़का बड़ी थाली में पीतल के गिलासों में पानी धर गया तखत के किनारे.

‘और होss. आज आई पूरी फौज, ये हुई बात.तुम्हारे घर तो कितना आया कित्ता खाया कित्ते दिन रहे’.

और बताओ नैनीताल जाते होगे. ईजा त वहीं ठेsरी’.

हमारे गुरु जी रामराज यादव साब से भेंट होती है?

अरे प्रिंसिपल हो गए वो?

और जैदी साब?

अरे! पिथौरागढ़ हेड हैं.

और शरद जोशी जी वो अपने दत्तराम जी?

अच्छा तो नारायण आश्रम की तरफ जा रहे. ठंडा बढ़ जाता है अब. ये चल पाएंगे?

और सब बढ़िया.

बस इत्ती सी बातचीत. लगा अपना ही कुनबा है. दीप तो जैकेट खोल जूता -मोजा उतार, तखत में लेट धूप तापने लगा. असलम दोनों छोटे लड़कों के साथ बैठा उनकी कॉपी में चित्र बनाता दिखा.

सोम नन्दा बल्लभ के पिताजी से किसी पचानबे पार के बाबाजी की चर्चा पर मगन दिखा. मैं और रोहिणी नंदाबल्लभ के तखत के पास टिन की कुर्सी पर जम गए जिनमें सफेद भेड़ की खाल बिछा दी गईं थी.

रोहिणी ने पूछा असकोट के बारे में.यहां के राजपरिवार के बारे में. इस इलाके के बारे में. नन्दा बल्लभ भूगोल वाला जो हुआ.

उसने मुँह खोलना ही चाहा था कि बाबू पहले चाय पी लो फिर बताना की आवाज आई. अरे. कम्मो. ये है मेरी सबसे बड़ी बेटी कल्पना. पंतनगर से कल ही आई, वहीं पढ़ती है.

कम्मो ने थाली से गिलास तखत के कोने रख हर किसी के हाथ थमाऐ. एक बड़ी प्लेट में गुड़ के टुकड़े थे.

सोम तो गिलास हाथ में थाम न पाया.

‘अरे ये बड़ा नाजुक है भई, मेरा दिलबर. रुमाल से पकड़ मेरे यार’. रोहिणी बोली.फिर अवस्थी की ओर देखते बोली,

“हाँ तो बताइये न, अभी दीप जी ने बताया कि आप इस इलाके में खूब यात्रा किये हैं.
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हाँ, जब भी घूमा तो इसी इलाके में, कई -कई बार. यही पैदल जाते अपने यार दोस्तों के साथ घूमा कई बार. एक बारगी ही बदल गया ये इलाका. नीचे जौलजीबी बलुवा कोट और आगे धारचूला ये सब लोगों की आवत जावत से बदले. असकोट वैसा ही रहा. आप देख ही रहे होगे सारी गाड़ियों का मुँह नीचे धोली और काली नदी की तरफ है.

“जिला पिथौरागढ़ का परगना हुआ असकोट. कुमाऊँ में आपको मालूम ही होगा कि पहले कत्युरी राज था फिर चंद राजा आऐ इस परगने में. उनका राज हुआ. इसी परगने में दारमा व्यास और चौदास हुए जहाँ की मुख्य आर्थिक गतिविधि व्यापार हुई.कुमाऊँ के राजा और तिब्बत के राजा दोनों की वसूली का भार हुआ यहां की कौम पर.”

“यू मीन बर्डन ऑफ़ टैक्स, हाँ हाँ ये बात मुझे जाननी है, डिटेल में बताइये”. रोहिणी टिन की कुर्सी से हट तखत में अपने लिए जगह बना गई और पीछे दीवार पर पीठ भी टिका दी.

“मल्ला असकोट परगना जब चंद राजाओं के अधीन आया तो उन्होंने खूब मनमानी की लगान वसूलने में. दारमा व्यास चौदास तक लगान की दर खूब बढ़ी. हमारी तो कई पीढ़ियां यहीं असकोट में रहीं. खेती पाती भी हुई पंडिताई भी. अब तो पढ़ लिख, क्या यहां के अवस्थी और क्या राजघराने वाले पाल? बड़ा नाम कमा रहे ऊँची ऊँची पोस्ट पर जा. पिथौरागढ़ के डॉक्टर डॉ अवस्थी नामी सर्जन यहीं के हुए. उनकी श्रीमती रमा दी भूगोल की प्रोफेसर हुईं. उनसे मिलना आप”

“हाँ, तो सुनो, तीन देशों की सरहद के सात गांव के मवासे यहां “ब्यासी”कहलाए. तीन देश हुए तिब्बत, नेपाल और हमारा हिंदुस्तान. इनकी सीमा में जो गांव रहे वो हुए गर्बयाँग, बूदी, गुंजी, नपलच्यू, नाबी, रॉगकौग और कुटी. ब्यासी यहीं के हुए हालांकि इनके दो गांव नेपाल में भी हुए,’छाँगरू’ और ‘तिंकर’ जो इसी घाटी में पड़े.ब्याँस घाटी में जो गांव रहे जैसे बूँदी, गुंजी गर्बयांग, नपलचयु, नाबी, रोंग कॉंग और कुटी के निवासियों के बीच सीमा विवाद भी बहुत बार होता रहा. सन 1872 में ब्रिटिश सरकार ने अपने अधिकारी की निगरानी में यहां भी गांव की सीमाएं तय करायी जिसे ‘विकट’ का बंदोबस्त कहा गया. गांव की ये सीमाएं स्थानीय बोलचाल में ‘चक्रनामा’ कही गईं.

विकट के बंदोबस्त में सीमांत में ग्राम नाबी से ग्राम गुंजी की सीमा भी तय की गई जो “यंगतीकंग पार रि रम से जन तिप्पालेख होते हुए कुंडकं तक” मानी गई. ऐसे ही गुंजी और गर्बयांग के बीच कालापानी के बीच की भूमि पर भी विवाद था जिसे विकट के बंदोबस्त से सुलझाया गया. नेपाल सरकार से भी भारत के साथ जब कालापानी की भूमि को ले कर विवाद हुआ तब उसमें भी विकट के बंदोबस्त से तय सीमा या चक्रनामा का आधार लिया गया. कालापानी के पास भारत, नेपाल और तिब्बत की सीमाएं मिलती हैं. विकट के बंदोबस्त से तय चक्रनामा में सीमा को इस तरह तय किया गया :

गर्बयाल गुंज्याल का सीवाना सिनडुब्डुब से गधेरा -गधेरा,
कुडक से गधेरा -गधेरा तिप्पा लेख
जहां गर्बयाल, गुंज्याल एवम नबियाल का सिवाना है,
तिप्पालेख से डांडा -डांडा गरीफू,
गरीफू से डांडा -डांडा लिपुलेख
जहां भारत, तिब्बत का सिवाना है.
लिपुलेख से डांडा -डांडा छाता लेख यानी ॐ परबत,
टाई जक्शन जहां भारत, तिब्बत व नेपाल का सिवाना है.
छातालेख ॐ परबत से डांडा डांडा डामप्यालेख
जहां भारत नेपाल का सिवाना है.

“तो ये हुई तीन देशों भारत, नेपाल और तिब्बत की बात जो अब चीन के कब्जे में हुआ, यही सीमा निर्धारण यानी चक्र नामा है”.

नन्दा बल्लभ चुप हुआ. सोम ने अपनी डायरी में पेन रख उसे बंद किया. मैंने कैमरे के लेंस को उसके मलमली कपड़े से पोछा और कुर्सी से उठ टहलने लगा. नंदा बल्लभ के बाबू मेरी ओर ही देख रहे थे. मैं उठ कर उनकी बाण वाली चारपाई के पास चला गया.
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“दिखाओ हो जरा ये कैमरा. अब ये नए कैमरे तो मुझसे चलेंगे भी नहीं”.

“आप भी”?

“अरे बड़े शौक़ीन हुए ये फोटो खींचने के. घर कमीज फटी ही लटकाएंगे पर नई रील पड़ेगी कैमरे में. फड़फड़ेट हो जाये इनको जब रील खतम हो”. नंदू की ईजा बोली.

“हाँ यार लोदी रोड से चांदनी चौक जाता था सरदार के यहां रील लेने. पैदल ही चल देता. कभी इक्का, कहीं मोटर. दिल्ली बड़ी रंगीन हुई बाबू”

“वो मेरा कैमरा ला हो दीपू. उसे जरा धूप दिखा दूं”.

“दsss. दीपूवा वो नीचे नरंगी के पेड़ पे पहुंचा है”.

नीचे नज़र गई तो देखा दीपू पेड़ से नरंगी तोड़ असलम की ओर फेंक रहा जिसे वह कैच कर वहीं रखी कंडी में डाल रहा.

“हरी-हरी मत तोडना रे दीपुआ, भली के तोड़िये हाँ”.

उनकी नातिणी तब तक एक पूँतुरा ला उसे खोलने लगी. मैंने देखा मोटे जूट की कमीज में उनका कैमरा लिपटा है. कैमरा जब दिखा तो मैं हक्का-बक्का रह गया.

“अरे ये तो हेजल ब्लेड है, बेस्ट कैमरा. मेड इन जर्मनी”. मैंने हैरत से उसे देखा.

“ख़ुफ़िया विभाग वाले हुए ये, ऐसा ही ठहरा कहा. घर रहे कहाँ. घर पुजे तो गले में कैमरा लटका, बक्से में पिस्तौल. क्या जानूँ कहाँ खून खराबा कर आए”.

“हाँssनतिया. बर्लिन भी गया ठेरा. वहीं से लाया कैमरा “.

“सब कमाई तो ऐसे ही फूकी इन्होने. मैंने तो चार धोतियों में उमर काटी लला. अपना एक ट्रंक भर रखा, चाबी भी छुपा के धरते हैं फिर भूल भी जाते. होई हो sss. बण बणे बल्द हरान. कम झस्की थोड़ी हुए ये, जरूर तिने मेरा संदूक खोला होगा कैते हैं.जे ढुँग डाव हुनाल उमें. पूछो त मुख में म्याव”.

“निगेटिव हुए पोथीया, अब्ब तु घूरमंड नि मचा. कैमरा देख बेर त वच्छाट कर दें यो. अब पिस्तौल तो सरकार ने दी ठेरी. उस पै भी गण गण. पै मत्क्यूण पणो कss”.

“इनर नि कौ. वां समुद्र पार जै बेर जे जे धरम बिगाड़ आईं. इनर फोटो फाटो वाल लबम देखिये हाँ. कतु में गोरफरांग सैणी बीच भैटी छन. अब तुमन के के बतूँ. सैणिले दिखे दंत, बैगेलै पाय अंत”.

नन्दा बल्लभ मुस्काते बोला, “अब बाबू हुए ख़ुफ़िया विभाग वाले कभी कजाकिस्तान कभी कराची. महीनों गुजर जाते जब आते महिने दो महिने की छुट्टी में तब बताते. अब कुछ ग्रुप फोटो में साथ रही वहां की महिलाएं भी हुईं. बस्स ईजा की नर -नर ठर -ठर. उई हाल भै कि निखानी बामुणी भैसैन खीर. अभी यहां के इलाके के बारे में बाबू से सुनना. विकट ज्ञान हुआ इनको. जरा सुनते कम हैं पूछो कुछ तो हैं ss हैं sss करते हैं पर बयासी साल की उमर में भी खेत में बल्द साध पाटा लगाने की दम हुई. खेत तो बहुत हुए हमारे. घर भर का पूरा हो बच भी जाता है”.
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“होss त बाबू यांक कुनि यो जागेकि खासियत बतेया होs”.

“अं. दुणी भर की सुन लियो. तु मेऱ तमाख भर चेला “.

नरंगी से भरी कंडी ले नन्दा बल्लभ का बेटा और असलम पहुंचे.

“मैं लूँ तुमर गुड़गुड़ी”.गोपू बोला.

“ओं साला! तु ले खाप लगूंछे हुक्क में. मील देख राखो”.

“तुम ले ठुलबा खाल्ली. मी त टेस्ट करूँ कि क्वैल सई फुकनैइं या नै. सई फूक नी ए त तुम घूरमंड त ले मचे दीछाsss”.

“हैं sss. सब सुन नई में साला. बरमाण तेज छु त्योर.

“लो होss!सब खाओ नरंगी. इनर फ्यास त मिठे के मात दिनी. फाव खूब हुनि याँ भुला. ईश्वरक वरदान भै, यां शिब ज्यू भै, माता पारबती भै. सब ज चलत – फिरत करनई,उनर गण भै भुला. उ दर्मा व्यास चौदास तक”.

अब सुणो पै ss!

“दारमा, व्यास और चौदास की घाटी.

गर्मी के मौसम में यहां के बासिंदे  इन्हीं गाँवो में रह खेती पाती करते, जानवर पालते तो जाड़े पड़ने पर धारचूला की ओर कुंचा कर जाते.वइं खोड़ लै भै, थोड़े गाड़ खेत भी हुए. जोत हुई वहां टानों में.

‘कुंचा’अल्पकालीन प्रवास हुआ. हाँ! माइग्रेशन.

गर्मियों में जो उगाया काटा और भी जो पैदा हुआ उसका व्यापार ‘किदंग’ यानी तिब्बत के व्यापारियों से होता रहा. तब बार्टर सिस्टम हुआ. मतलब अदल -बदल.व्यापार में कोई रोक टोक नहीं हुई पर कर तो देना पड़ता था. तिब्बत के राजा की ओर से उनका नुमाइंदा हर गांव में आता और गांव के हर मवासे से ‘ठल’ वसूलता. ठल का मतलब कर या टैक्स हुआ. जहां जिस जगह पर हर मवासे से कर की वसूली होती उसको ‘ठल- चिम’ कहते. राजा के ये नुमाइंदे तो गांव के हर मवासे की औकात टटोले रखते. किसी से डबल लेते, तब डबल चलने वाला हुआ.तांबे का सिक्का बीच में छेद हुआतो बाद में चला. रुपया पैसे को ढेपुवा कहने वाले हुए. कहीं किन्हीं परिवारों से अनाज वसूला. हमारे बुबू बताते कि लगान के नाम पर हुणिया खाने के लिए बने लगड भी धर लेने वाले हुए. लगड़ मोटी-बड़ी पूरी हुई. और तो और ऐसे बदजात ‘सल’ मल्लब कोयला भी रख लेते ठल के रूप में. ठल-चिम में जो भी लगान वसूली हो उसको बाकायदा बही में चढ़ाया जाता. ठल वसूली का ये रजिस्टर ‘थ्वक’ कहा जाता था.

अब आई जाड़ों की बात जब ठंड से बचने पूरी व्यास घाटी के मवासे अपनी गाय-बैल, भेड़-बकरी, घोड़ा-खच्चर ले धारचूला की घाटी की ओर आने लगते. अब धारचूला घाटी हुई पर इतने घास के मैदान कहाँ हुए वहां जिसमें जानवरों की बड़ी तादाद पल सके. वहां काली नदी के पुल के वार नेपाल का दारचुला हुआ तो उधर के गाँवों रायसौ, हरसिगा बगड़, लेकम, तंतली, द्योथला की तरफ अपने जानवर ले जाना होता जहाँ उनकी जाड़ों में बसने वाली घर-कुड़ी होती. अपने कब्जे की नाप जमीन होती. ये नेपाल का इलाका हुआ, जब अपने ढोर-ढंगर लिए वहां आते तो उसकी सरहद पर फी जानवर के हिसाब से महसूल चुकाते. बाकी कपड़े-लत्ते, सामान-हामान पर कोई रोकटोक नहीं होती. वहाँ इन मवासों की अपनी मोल ली जमीन होती, जिसमें ये खेती-पाती करते. ये मवासे नेपाल के नागरिक भी होते. नेपाल की राजशाही में इनको अपनी पंचायत बनाने और उसका पधान व बाकी मेंबर चुनने का पूरा हक होता. ये जो ब्याँसी हुए इनकी जमीन अपने देश में तो हुई ही जिसका लगान यहां के राजा के कारिंदे वसूलते. अब देखिये ये तिहरा टैक्स देने वाले हुए.इसी लिए हमारी व्याँसी घाटी के बासिंदे कहते हैं. इन सुम राजा गै रइतौ ल्हिने. यानी तीन राजाओं को लगान देने वाले हुए हम.
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” वाह. ये तो मल्टीपुल टेरिफ़ का बेस्ट इग्जामपल हुआ”.

हाँ. ब्याँस घाटी के निवासी अपनी जमीन खेत मकान का लगान भारत सरकार को अदा करते थे. हर गांव में मालगुजार या पधान होते जो अपने-अपने गाँवों से रकम इकट्ठा करते और वसूली कर सारा हिसाब किताब मालखाने में दर्ज करते.फिर वहीं तिब्बती कारिंदे ठल वसूलते जिसकी इंद्राज वह अपनी बही जिसे “थ्वक” कहा जाता, में करते. हर साल ठल की वसूली होती और ये सिलसिला तब थमा जब 1962 में चीन ने भारत पर अटैक कर दिया. तीसरी तरफ नेपाल की श्रीपांच सरकार को लगान दिया जाता.

जब अंग्रेजी राज आया तब काली नदी पर जौलजीबी, बलुआकोट, धारचूला और गर्बयांग में लकड़ी के पुल बने. इन पुलों से जो भी जानवर वारपार होते उनसे फी जानवर -ढोर के हिसाब से कर की वसूली की जाती जिसे ‘जगात’ कहा जाता था. इनकी वसूली मनमाने ढंग से होती.जगात वसूलने का ठेका नेपाल दरबार की ओर से ठेकेदारों को दिया जाता जिनकी मन मर्जी चलती. इसको सुलझाने के बारे में बड़ा फेमस किस्सा ये हुआ कि एक बार ब्यासी के नागरिक भारत-नेपाल के पुल से कुंचा जा रहे थे तो जानवरों के कर को ले कर नेपाल के कारिंदो से उनकी तूतू-मैंमैं हो गई और उन्होंने कर न देने का फैसला कर लिया. कारिंदों ने ठेकेदार को इस बाबत सूचना दी तो ठेकेदार ने राजदरबार मैं गुहार लगाई. राजा ने ब्यासी के चुने ग्रामीणों से मिल उनकी बात जाननी चाही.

ब्यास के ग्रामीणों ने पंचायत कर यह फैसला किया कि गर्बयांग गांव के श्री गोबर सिंह पंडित ‘रंजन राठ’ जैसे चतुर व होशियार सयाने को ले राजदरबार में इस मनमानी की बात राजा को बताई जाय. अब सही दिन और समय तो तय था नहीं. इधर बताते हैं कि गोबर सिंह पंडित के राज दरबार पहुँचने से पहले पड़ी रात मेँ रानी को सपना हुआ कि सफेद पगड़ी पहने एक भव्य व्यक्ति उनके महल में प्रवेश कर रहा है. अब दिन में जब राजा के महल में गांव के चुने लोगों के साथ गोबर सिंह जी प्रवेश की जुगत भिड़ा रहे थे तो रानी ने उन्हें देख राजा को बताया कि ये तो वही पंडित हैं.

राज दरबार में उन्हें बुला जब राजा ने ठेकेदार चंद व उसके कारिंदो की मनमानी सुनी तो उन्हें बड़ा क्रोध आया. पंडितजी ने तो यह सुझाव भी दिया कि वह साल भर की जगात एकबारगी जमा करने को तैयार हैं.शर्त यह है कि ठेकेदार चंद और उसके लोग गड़बड़ी न करें. राजा उनकी व्यवहार कुशलता व विनती से प्रभावित हुआ. तभी उसे अपना बड़ा जरुरी एक अटका काम याद आया. उसने पंडित जी से पूछा कि उनकी एक फरमाइश है. पंडित ने पूछा तो बताइये. तब राजा ने कहा कि उन्हें अपने सिपाहियों के लिए एक हज़ार जोड़ी चमड़े के जूते जल्दी एक महिने के भीतर चाहिए. पंडित जी ने हामी भर दी.
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अब लौट कर वह सीधे कानपुर गए और जूते खरीद लम्बी यात्रा के बाद काठमांडू लौटे. राजा उनके इस काम से बहुत खुश हुआ. उसने आदेश दिया कि जानवरों पर कर की महसूल बंद होगी. पंडित जी ने भी तीन साल के लिए पांच सौ अस्सी रूपये कर के एवज में मुकर्रर कर महसूल जमा कर दिया. नेपाल के राजा ने पंडित जी के ज्ञान अनुभव व कामकाज के ढंग की बहुत तारीफ की. उन्हें लाल मोहर -सनद दी जिससे उन्हें दारचूला जिले के द्योथला, रायसोग, हरसिंगा बगड़, तंतती तथा लेकम इलाकों का अधिकार मिला. अब पंडित जी अपनी पसंद से एजेंट नियुक्त कर सकते थे जो गांव के पशुओं की संख्या के हिसाब से कर वसूली कर नेपाल सरकार को भिजवाएँ”.

“दीप बाबू. रायपा जी का नाम सुना होगा आपने? एनथ्रोपोलॉजी पर बड़ा काम किया उन्होंने”.नंदाबल्लभ ने पूछा.

“भूगोल वाले तो रतन सिंह रायपा हुए. शौका जनजाति पर किताब है जिनकी”?दीप ने बताया.

हाँ,हाँ वही. नैनीताल डी एस बी से पढ़े. वो तो गोल्ड मैडलिस्ट हुए. हमारे हेड साहिब मोहम्मद यूनुस साब बहुत तारीफ करते थे रायपा जी की. बताते थे कि अपने इलाके में बुदी गांव का पूरा भौगोलिक सर्वेक्षण किया रतन सिंह ने. बाद में उन्होंने कंडाली -किर्जी विजयोत्सव व शौका जनजाति पर किताब लिखी. उत्तरप्रदेश में काली नदी के बेसिन पर भोटियाओ के पारिस्थितकी अनुकूलन पर उनकी विवेचना खास रही.

रायपा जी पोर्ट ब्लेयर, शिलोंग व देहरादून के एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे विभाग में कार्यरत रहे जिससे पूर्व वह करीब दस साल तक पिथौरागढ़ जनपद में इंटर कॉलेज में भूगोल के प्रवक्ता रहे. उन्होंने शोध छात्रों का निर्देशन किया और पारिस्थितिकी व पर्यावरण पर गढ़वाल हिमालय, जौनसार भावर, टिहरी बांध पर रिपोर्ट शासन को दीं. मसूरी व अल्मोड़ा -पिथौरागढ़ में खनन के खतरों से चेताया. “भारत के लोग”परियोजना में सीमांत के भोटिया, कुमाऊँ व गढ़वाल के ब्राह्मण व राजपूत जातियों का अध्ययन ऐएसआई को प्रस्तुत किया. सीमांत की अर्ध घूमन्तू अणवाल जनजाति की जातीय विशेषता व अनुकूलन पर उनका विश्लेषण महत्वपूर्ण रहा. केंद्रीय व पश्चिमी हिमालय की जैव सांस्कृतिक विविधता पर रं क्षेत्र में पर्यावरण के खतरों और मानवीय अनुकूलन पर उनके आलेख गंभीर विमर्श के विषय रहे.वह ऐसे भूगोलविद व मानव विज्ञानी रहे जिन्होंने रं जन जीवन पर न केवल मौलिक शोध की बल्कि रं -नृजाति समूह का परिचय पहली बार दुनिया के सामने रखा”.
(Askot Article Mrigesh Pande)

तभी नीचे अवस्थी मास्साब की आवाज लगी. देखा धर्मसत्तू जी व सोबन हैं. जल्दी चलो. सड़क खुल गई की सूचना मिली.

सीमांत इलाके के एक परगना रहे अस्कोट के बारे में जान और नंदाबल्ल्भ के परिवार के आत्मीय व्यवहार से भरे. अब अस्कोट से टाटा सोमू में लद हम नीचे वाली सड़क से आगे बढ़े धारचूला की ओर.

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

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बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

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गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

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