काने तिवाड़ी के धान
– अशोक पाण्डे
हमारे इधर पहाड़ों में तिवारी लोग तिवाड़ी कहे जाते हैं. गगास नदी के किनारे बसे एक गाँव में एक किसी तिवाड़ी का घर था. तिवाड़ी काना था यानी उसकी एक आँख फूटी हुई थी. सो गगास नदी के इस छोर से उस छोर तक के गाँवों में उसे काणत्याड़ि यानी काना तिवाड़ी के नाम से ख्याति प्राप्त थी. काणत्याड़ि बहुत साँवला था और हमारे इधर काले ब्राह्मण को बहुत ख़तरनाक माना जाता है. काणत्याड़ि खतरनाक ही नहीं झगड़ालू भी था. हर किसी से झगड़ा कर चुकने के बाद वह पूरी तरह से एकलकट्टू हो गया और गगास नदी से लगे एक खाली खेत में जा बसा. इस खेत में लम्बे समय से एक भूत रह रहा था और लोग उस से डरा करते थे.
लोग उस भूत से डरते थे ऐसा काणत्याड़ि ने भी सुन रखा था पर सारे गाँव से बैर ले चुकने के बाद उसके पास और कोई चारा नहीं बचा था. इस बेहद उपजाऊ खेत में किसी ज़माने में बढ़िया धान उगा करते थे पर कई पीढ़ियों से छोड़ा होने के कारण अब वह बंजर हो चुका था.
काणत्याड़ि ने मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ी और भूत ने उसे ज़रा भी परेशान नहीं किया. काणत्याड़ि ने सोचा कि भूत-हूत कुछ नहीं होता. गाँव के लोगों का भरम रहा होगा.
बारिशें आते ही बाकी के गाँववालों की तरह काणत्याड़ि ने भी अपने खेत में धान रोपे. सुबह उठकर वह क्या देखता है कि रात में धान के सारे पौध कोई उल्टे रोप गया है. काणत्याड़ि ने गाँववालों पर ही शक किया और बिना किसी तथ्य की तस्दीक किये एकाध लोगों पर हाथ साफ़ किया. धान दोबारा रोपने के बाद काणत्याड़ि उस रात देर एक पेड़ की ओट में छिपकर इन्तज़ार करता रहा कि कोई आए और उसे रंगे हाथों पकड़कर उसकी ठुकाई की जाए.
जब भोर होने को हुई तो काणत्याड़ि की आँख लग गई. आँख खुली तो सूरज चढ़ आया था और सारे पौध उलटे पड़े थे. यही क्रम कई दिनों तक चलता रहा.
अपनी मेहनत को यूँ व्यर्थ जाता देखना काणत्याड़ि की बरदाश्त से बाहर हो चुका था और उसने तय कर लिया कि किसी भी कीमत पर सोएगा नहीं. तब जाकर अगली भोर उसने देखा कि एक छहफुटा चुटियाधारी धान की पौधों को बिजली की गति से उलटाए दे रहा है. ग़ुस्से से आगबबूला काणत्याड़ि ने अचानक नोटिस किया कि चुटियाधारी के पैर उल्टी दिशा में मुड़े हुए थे. यानी चुटियाधारी और कोई नहीं गगास का भिसौण के नाम से कुख्यात वही भूत था जो उनके खेत को लगा हुआ था. एकबारगी तो काणत्याड़ि की हवा डर के मारे सरक गई पर अगले ही पल उसे पिछले कई महीनों की अपनी मेहनत याद आई और उसका नैसर्गिक गुस्सा फट पड़ा.
उसने पीछे से जाकर गगास के भिसौण की चुटिया थामी और कीचड़ में पटक डाला. भिसौण को मनुष्यों द्वारा इस प्रकार का व्यवहार किए जाने की आदत न थी. वे तो उसके सामने पड़ते ही सूखे पत्ते की तरह काँपने लगते थे और डर के मारे उनकी घिग्घी बंध जाती थी.
वह जब तक सम्हलता काणत्याड़ि ने अपने पिता से सीखी पहलवानी की कला का ज़ोर भिसौण पर आजमाने के साथ साथ उस पर लात घूंसों की बरसात चालू कर दी. भिसौण भी खासा ताकतवर था और किसी तरह काणत्याड़ि की दबोच से बचकर बग्वालीपोखर नामक गाँव की दिशा में भागा. काणत्याड़ि ने कुछेक मील उसका पीछा किया और दोबारा उसकी चुटिया थामकर ठुकाई कार्यक्रम चालू कर दिया.
काणत्याड़ि की दबोच से बच भागने का सिलसिला सात दिन सात रात चलता रहा और इस चक्कर में वे दोनों काली कुमाऊं के आधे इलाके का भ्रमण कर आए. सातवीं रात वे वापस काणत्याड़ि के खेत में थे. बुरी तरह पिट चुकने के बाद भिसौण पस्त पड़ चुका था और उसका अंग अंग दुखने लगा था. अन्ततः रोते हुए उसने छोड़ देने की मिन्नतें करना शुरू किया. छोड़ देने के ऐवज में काणत्याड़ि ने उससे वायदा लिया कि वह पलटकर उसके खेत का मुंह नहीं देखेगा. भिसौण ने जार जार रोते हुए यहाँ तक कह दिया कि काणत्याड़ि के खेत क्या अब तो वह उस पट्टी पल्ला अट्ठागुल्ली के किसी भी गाँव का रुख़ नहीं करेगा.
इतनी लम्बी कुश्ती के बाद काणत्याड़ि के खेत में उस साल धान बहुत कम उगा था पर उगा. और यह अलग बात है कि इस कुश्ती के प्रत्यक्षदर्शी गाँववालों ने काणत्याड़ि से अब भी बात करना बन्द ही रखा पर भीषण मेहनत से प्राप्त होने वाली किसी भी चीज़ को काने तिवाड़ी के धान कहने की परम्परा शुरू हो गई.
पट्टी पल्ला अट्ठागुल्ली के लोग अब किसी भी तरह के भूत प्रेत के सामने आने पर खुद को काणत्याड़ि का सगा सम्बन्धी बतलाने में किसी तरह का गुरेज़ नहीं करते थे. नतीज़तन सारी पट्टी सभी तरह के भिसौणों, टोलों और एड़ियों से मुक्त हो गई. टोलों में भूतों की पार्टी हाथों में मशालें लेकर मनुष्यों को रातों को डराने का काम किया करती थी जबकि एड़ि नाम से जाने जाने वाले भूत लोग स्वाभावतः कमीने और काइयां हुआ करते थे. उल्टे ही पैरों वाली अनिन्द्य सुन्दरी आंचरियां इस प्रेतसमुदाय में ग्लैमर का तड़का लगाने का काम किया करती थीं. आंचरियों के बाबत काणत्याड़ि और भिसौण के दरम्यान क्या महासन्धि हुई इस बाबत कोई आधिकारिक साक्ष्य नहीं मिलते.
यह दीगर है कि इतने भूत-प्रेतों का पट्टी पल्ला अट्ठागुल्ली में रह रहे देवता भी बाल बांका नहीं कर सके थे.
हिन्दू धर्म में बतलाए जाने वाले तमाम तैंतीस करोड़ देवता तो इस सो कॉल्ड देवभूमि में पहले से ही रह रहे थे पर जिस तरह गली-मोहल्ले में उत्पात मचाने वाले हर दुकड़िया नवगुंडत्वप्राप्त लौंडे को सीधा करने को माननीय रक्षामन्त्री या फ़ौज के जरनील नहीं आ सकते उसी तरह एड़ि-आंचरि जैसे छोटे टटपुंजिया भूतों की सुताई करने को भोले बाबा से रिक्वेस्ट थोड़े ही की जा सकती है कि बाबा पप्पू के भाई ने मेरा बल्ला चुरा लिया है. उसके लिए तो मुन्नन भाई या कल्लू दादा टाइप के देवताओं की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि वे घटनास्थल की लोकेल और जुगराफ़िये से भली भांति परिचित होते हैं और समय और ज़रूरत के हिसाब से लोकल सपोर्ट भी जुटा सकते हैं.
गगास के भिसौण का आतंक ख़त्म हो जाने के बाद बहुत सालों तक शान्ति बनी रही. काणत्याड़ि का लड़का अपने बाप जैसा वीर तो न था चतुर और कामचोर ज़रूर था. उसने एक मरे बैल की पूंछ के बालों की लट बनाकर अपने ख़ानदानी बक्से में छिपा कर रख ली और एक बार गाँव में पंचायत लगने पर जब चोरी का एक आरोपी अपना अपराध स्वीकार करने से मुकर रहा था तो काणत्याड़ि के बेटे ने सरपंच से मुखातिब हो कर कहा: “पधानज्यू, अगर ये साला गगास के भिसौणे की चुटिया को छू कर कसम खा ले कि इसने चोरी नहीं की है तो आप इसे छोड़ दोगे ना!”
गगास के भिसौणे की चुटिया का ज़िक्र सुनते ही वहाँ मौजूद तमाम लोगों में झुरझुरी सी मची. काणत्याड़ि के कारनामे को अभी तक लोग भूले नहीं थे. सरपंच के जवाब की प्रतीक्षा किये बिना काणत्याड़ि के बेटे ने अपने घर का रुख किया. मरता क्या न करता, सरपंच और चोर और पंच और ग्रामीण सारे के सारे उसके पीछे आने लगे. तब बहुत ठेटर-नौटंकी के बाद काणत्याड़ि के बेटे ने बक्से से बैल की पूंछ निकाली और चोर से कहा: ” है हिम्मत तो इसको देखकर खा कसम कि तूने चोरी नहीं की है. झूठ बोलेगा तो गगास के मसाण से बुला लाऊंगा भिसौणे को.”
चोर का रोना, चोरी के शिकार ग्रामीण का काणत्याड़ि के बेटे के पैर पड़ना और “त्याड़ज्य़ू की जै हो” के नारे का लगना एक साथ हुआ. कालान्तर में काणत्याड़ि के नाम पर एक मन्दिर गगास किनारे प्रतिष्ठित हुआ और काणत्याड़ि के बेटे ने मन्दिर के आचार्य की गद्दी सम्हाली. यूं काणत्याड़ि के कामचोर कुनबे के लिए फ़ोकट की रोटी का जुगाड़ बैठा.
कई पीढ़ियों बाद तैंतीस करोड़ देवताओं की वार्षिक मीटिंग में जब इस वाकये के ज़िक्र का नम्बर लगा तो पाया गया कि हिमालय की पंचचूली चोटियों की गुरुस्थली में पाँच गुरुभाई देवतावृत्ति की अप्रेन्टिसशिप का फाइनल परचा पास कर चुके हैं और यह भी कि जहाँ तैंतीस करोड़ वहाँ तैंतीस करोड़ पाँच भी चल जाएंगे. राउन्ड फिगर में तो संख्या उतनी ही रहनी है. नियत यह किया जा चुका था कि गगास किनारे हो रही इस अनियमितता को यही पाँच गुरुभाई काबू में लाएंगे.
क्रमशः गोल्ल, गंगनाथ, भोला, हरू और सैम के नाम से जाने जाने वाले ये पाँच भाई अपनी बहादुरी और अक्लमन्दी के चलते अपने जीवनकाल में ही काली कुमाऊं पाली पछाऊं के पाँच लोकदेवताओं के तौर पर प्रतिष्ठित हुए. ऊपर से मिले हुए ऑर्डर अलबत्ता अब तक पूरे नहीं हो सके थे.
देवता बन चुकने के बाद भी इनका मन एक जगह नहीं रमता था और अपनी वार्षिक यात्राओं के लिए ये लोग वसन्त के महीने में अलग अलग जगहों से पंचचूली की तरफ निकल जाया करते थे. तो ऐसे ही वसन्त के एक दिन जब मंजरियों, बौर, फूल, समीर, सुरम्य इत्यादि का ठाठ बंधा हुआ था ये पाँचों एक पूर्वनिश्चित स्पॉट पर मिले. हालचाल लेने के बाद सब ने अपने बैरागी मन में उठ रही मनोरंजन की तीव्र इच्छा के बाबत स्टेटमेन्ट जारी किए. आसपास पड़ी धूलि को मुठ्ठी में उठाकर उनमें से एक ने मन्त्रोच्चर किया और धूलि को पटककर वापस ज़मीन पर दे मारा.
धूलि छंटी तो सामने मार बड़े-बड़े चार दैत्याकार पहलवान निर्मित हो चुके थे. पंचदेवों ने उनसे कुश्ती खेलकर उनका मनोरंजन करने का आदेश दिया. पहलवानों का कद लगातार बढ़ता गया और ग्यारह दिन ग्यारह रात बिना खाए-पिये चारों पहलवान पंचदेवों का मन बहलाते रहे. और जब उनका मन बहल गया तो वे थैंक्यू कहकर जाने लगे जब चारों पहलवालों ने उनका रास्ता रोक कर कहा कि ग्यारह दिन भूखे प्यासे उनका मनोरंजन करने की फीस के एवज़ में कुछ खाने का प्रबन्ध तो किया जाना चाहिये. जब पंचदेवों ने अपनी थैलियों, पोटलियों का मुआयना किया तो उनमें समीर के अतिरिक्त कुछ न था.
वे सोच ही रहे थे जब आसमान तक पहुँचने को तैयार कद वाले पहलवानों ने धमकाते हुए कहा कि अगर भोजन नहीं मिला तो एक लंच के लिए उन्हीं को जीमने से भी हिचकेंगे नहीं. जान बचाने के चक्कर में पंचदेवों ने उन्हें भरपूर भोजन मिलने का आश्वासन देकर काणत्याड़ि के घर का रास्ता बता दिया. पहलवानों का जाना था और पंचदेव अपने अपने शॉर्टकटों से अपने अपने ठीहों को रवाना हुए.
काणत्याड़ि की बारहवीं पीढ़ी इन दिनों मन्दिर के मैनेजमैन्ट पर काबिज़ थी. पहलवान लम्बे रूट से आ रहे थे जबकि तब तक काफ़ी नाम कमा चुके पंचदेव उनसे कहीं पहले वहाँ पहुंच चुके थे. पंचदेवों ने काणत्याड़ि के वंशजों को पहलवानों का भय दिखाकर अपनी जान बचाने के वास्ते उनसे कुछ दिन कहीं और जाकर रहने को पटा लिया.
इधर काणत्याड़ि के वंशजों का जाना था उधर पंचदेवों ने काणत्याड़ि के खानदानी बक्से में से बैल की पूंछ निकाल ली. पंचचूली से गगास तक का लम्बा रास्ता तय करते हुए यदा-कदा यात्रियों वगैरह से अपनी मंज़िल का पता पूछते पहलवानों को काणत्याड़ि के बारे में जितनी बातें पता लगीं उन से वे इतना तो जान ही गए कि पंचदेवों ने उन्हें फंसा दिया है. एक जगह बहुत से लोग आराम कर रहे थे – बगल में उनके लिए खाना बन रहा था. खाने की खुशबू ने पहलवानों की भूख को ऐसा भड़काया कि वे इस भोजन पर टूट पड़े. आराम कर रहे लोगों ने जान गंवाने के बजाय चुपचाप पड़े रहना उचित समझा. सारा पका हुआ भोजन जैसे पहलवानों की ऐड़ियों में कहीं उतर गया. कच्चे अनाज की बोरियां उनके घुटनों तक पहुँच सकीं. और भूख के अतिरेक से क्रुद्ध पहलवानों ने एक एक कर सारे लोगों को भी खा लिया.
पहलवानों की भूख शान्त हो गई और काणत्याड़ि का पूरा कुनबा उजड़ गया.
जब तक पहलवान काणत्याड़ि के घर पहुंचे पंचदेवों को पता लग चुका था कि बालों का वह गुच्छा भिसौणे की चुटिया नहीं बैल की पूंछ थी. और यह भी कि पहलवान समूचे काणत्याड़ि वंश को सूत आए हैं. स्त्रियों का वेश धारण किए पंचदेवों ने पहलवानों का टीका लगाकर स्वागत किया और उनसे आंगन में बैठने का अनुरोध किया. भीतर रसोई में बड़े बड़े भांडों में हलवा पक रहा था जो पहलवानों को बतौर स्वीट डिश प्रस्तुत किया गया.
सुबह चारों पहलवान आंगन में चित्त मरे पाए गए – गले में बालों का गुच्छा अटकने से.
काणत्याड़ि का वंश समाप्त हो चुका था. काणत्याड़ि का मन्दिर पहलवानों की विराट देहों के बोझ से सपाट हो चुका था.
पंचदेवों में से एक ने वहीं रहने की इच्छा व्यक्त की तो बाकी चार ने उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्वीकार कर लिया और चम्पावत की तरफ़ निकल पड़े.
मुंड मुंडे-कान फड़ाए इन पंचदेव गुरुभाइयों को आजीवन ब्रह्मचारी रहने का कौल दिलाया गया था. सो बहादुरी और अक्लमन्दी का प्रदर्शन करते करते ही इनकी ज़िन्दगानियाँ कटीं. जाहिर है इस चक्कर में कई साधारणजन लाभान्वित भी हुए. पहलवान अलबत्ता उन्होंने फिर कभी नहीं बनाए. गगास किनारे रह रहे गुरुभाई की मृत्यु के बाद ग्रामीणों ने काणत्याड़ि की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया और मृतक की याद में एक मन्दिर स्थापित कर दिया.
अब वहाँ दिन में काले बकरे की और रात को प्राइवेट में दारू की बोतल की बलि देने की अनूठी परम्परा चल निकली है. कहते हैं इस से इष्टदेव खुश रहते हैं. भूतहूत तो खैर अब भी नहीं आते. काने तिवारी के धान के खेत अब बंजर हो चुके हैं क्योंकि गगास में पानी हर दिन कम होता जाता है. गाँव में बचे खुचे ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार शहरों से आते हैं तो नॉस्टैल्जिया को खुजाने की रस्म के तौर पर झुंगरे के चावल या मडवे के आटे की डिमान्ड करते हैं.
“खेती पर कब का बजर गिर चुका” कहती हुई घर की बूढ़ी स्त्रियां पाव पाव भर आटा और चावल अहसान की तरह देती कहा करती हैं: “काणत्याड़ि के धान हैं बेटा. सम्हाल के ले जाना. इतने ही हैं बस. हमारा तो देवता बिगड़ा हुआ है इस साल.”
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