रियासत-काल में रास्ते दुरुह-दुर्गम थे. तब भी चारधाम यात्रा तो चलती ही थी. सन् 1880 में परिव्राजक विशुद्धानंद जी, जिन्हें लोग कालीकमलीवाले बाबा के नाम से जानते थे, के प्रयत्नों से यात्रा कुछ हद तक सुगम हुई. उन्होंने स्थान-स्थान पर धर्मशालाएँ खोलीं. कोलकाता के सेठ रायबहादुर सूरजमल ने बाबा की प्रेरणा से पचास हजार रुपए दान करके लोहे के मजबूत रस्सों वाला झूला पुल बनवाया, जिससे नदी पार करना आसान हो गया. यात्री बिना किसी खास जोखिम के चट्टियों वाला यात्रा-मार्ग पकड़ लेते लेकिन 25 साल पहले बना यह पुल 1924 की बाढ़ में काल-कलवित हो गया.
(Bollywood in Rishikesh)
फिर से पहले वाली स्थिति पैदा हो गई. राय बहादुर शिवप्रसाद तुलस्यान अपनी माता को चारधाम यात्रा कराना चाहते थे. नदी छींके वाली डोली से ही पार की जा सकती थी. माताजी दस कदम ही पहुँची होंगी कि नदी का तेज प्रवाह देखकर उन्हें चक्कर आने लगा. उन्होंने बेटे से कहा, मुझे वापस ले चलो. मेरा चारधाम तो हो गया. वापस आने पर पुनः बोलीं- अगर तुम सचमुच मुझे तीर्थयात्रा कराना चाहते हो तो यहाँ पर पक्का पुल बनवा दो. वही मेरी तीर्थयात्रा होगी. सन् 1929 में रायबहादुर शिवप्रसाद तुलसियान ने एक लाख बीस हजार रुपए देकर सस्पेंशन ब्रिज का निर्माण कराया.
1930 में संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर मैलकम हैली ने झूला पुल को जनता को समर्पित किया. ये वही मैलकम हैली थे जिनके नाम से एक वाइल्डलाइफ पार्क को मैलकम हैली पार्क का नाम दिया गया. (वर्तमान में जिसे जिमकार्बेट नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता है.)
इस झूला पुल से बॉलीवुड का गहरा नाता रहा. लंबे समय तक यह स्थल सिनेकारों की शूटिंग का फेवरेट स्पॉट बना रहा. बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन एक साक्षात्कार में कहते हैं कि वे यहाँ गंगा की सौगंध (1978) की शूटिंग के लिए आए हुए थे. वहां वह एक लंगूर को कुछ खिला रहे थे कि बंदर उन पर झपट पड़ा. बंदर को लगा कि मैं उसको नजरअंदाज कर रहा हूँ.
गंगा की लहरें, गंगा की सौगंध, संन्यासी, सिद्धार्थ, महाराजा, अर्जुन पंडित, बंटी-बबली, दम लगा के हईशा, नमस्ते लंदन, बत्ती गुल मीटर चालू जैसी दर्जनों फिल्में हैं जिनको यहाँ शूट किया गया. सीआईडी, भाभी जी घर पर हैं, क्योंकि सास भी कभी बहू थी जैसे टीवी धारावाहिकों में भी इस लोकेशन को फिल्माया गया.
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कुछ बरस पहले आई वेब सीरीज ‘अपहरण’ में चीला बैराज वाली लोकेशन को खूब फिल्माया गया. नहर में बहता कल-कल पानी, अगल-बगल सघन जंगल और निर्जन सुनसान, चौड़ी सड़कें, एक अपराध-कथा के लिए इससे बेहतर लोकेशन क्या हो सकती थी.
एक दौर में सिनेमा में कुछ खास दृश्य होते थे जिनमें लक्ष्मणझूला दिखाना लाजमी होता था. मसलन चरित्र-अभिनेता सपत्नीक तीर्थ-यात्रा को निकले हैं. तो अगर उसमें बनारस, हरिद्वार दिखाएंगे तो एक दृश्य उसमें लक्ष्मण झूला का जरूर होता था या फिर बच्चा खो गया है और उसकी ढूँढ-खोज मची हुई है तो उसकी तलाश के लिए समूचे हिंदुस्तान के तीर्थस्थलों के चित्र सरपट भागते जाते थे. उन चित्रों में एक चित्र लक्ष्मणझूला का जरूर होता था.
सिने-संसार ने इस लोकेशन को क्यों पसंद किया, इसके पीछे कुछ खास कारण थे. एक तो इसकी एस्थेटिक वैल्यू थी. देखते ही दर्शकों में श्रद्धा उमड़ आती. दूसरा वह शीर्ष उत्तर में होने की वजह से अंतरतम तक प्रभाव पैदा करता था. इसके अलावा यह फोटोग्राफरों के लिए भी रोजगार का एक जरिया बना रहा. दूरदराज से जो भी पर्यटक आते तो अपनी यात्रा को यादगार बनाने के लिए यहाँ पर फोटो जरूर खिंचवाते थे. आसपास के नवविवाहित जोड़ों के लिए लक्ष्मणझूला से ज्यादा करीब और कोई लोकेशन नहीं होती थी. फोटोग्राफर पर्यटकों के पते नोट करते और फोटो डेवलप कराकर डाक से भेज देते. बाद के वर्षों में पोलेराइड फिल्म आने से सहूलियत बढ़ गई. वे फोटो उतारकर पाँच मिनट में ही तस्वीरें हाथ में थमाने लगे.
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उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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